कामनाएं पूर्ण होवें यज्ञ से नर नार की
मनुष्य की कामनाएं अनंत हैं । अलग – अलग अवसरों पर इन कामनाओं के अलग-अलग स्वरूप हमारे सामने आते हैं । ऐसा नहीं है कि कामनाएं सदा ही बुरी होती हैं । कामनाएं अच्छी भी होती हैं । वैदिक संस्कृति की यह विशेषता है कि जो अच्छी कामनाएं हैं , शुभकामनाएं हैं , उनका तो हम परस्पर आदान-प्रदान भी करें । कहने का अभिप्राय है कि शुभकामनाओं को अपने पास ही लेकर न बैठा जाए अपितु उन्हें समाज के लोगों में बांट देना चाहिए । इससे परिवेश सुंदर बनता है और परस्पर प्रेमरस की धारा भी प्रवाहित होती है । किसी के यहां पर कोई प्रसन्नता का अवसर आया हो या किसी को कोई उपलब्धि प्राप्त हुई हो और उस समय आप उसे शुभकामनाएं देने में कंजूसी कर दें तो इस बात को वह व्यक्ति सदा याद रखता है । इसीलिए हमारे ऋषियों ने परस्पर शुभकामनाओं के आदान-प्रदान का संस्कार हमारे भीतर आरोपित किया है ।
भोजन के समय की कामना
भोजन करते समय हमारी कामनाएं कैसी हों , इस पर भी वेद हमारा मार्गदर्शन करता है। वेद के इस मार्गदर्शन का बड़ा ही मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक लाभ हमें मिलता है। हमारे अक्सर रोगग्रस्त रहने का कारण यही है कि हम भोजन करते समय भी शांत, एकांत और निभ्र्रांत नहीं रह पाते। इसके विपरीत हमारे भीतर चिंताओं भरे विचारों का ज्वार चलता रहता है और हम भोजन में आनंद लेने के स्थान पर उस ज्वार में ही अटके भटके रहते हैं। हमें पता ही नहीं चलता कि हम भोजन न करके विचारों को खाते जा रहे हैं, और विचारों के संसार में खोए रहकर ही भोजन करके उठते हैं। वेद कहता है कि जैसे हमारा शरीर भोजन को देखते ही उसके लिए तैयारी करने लगता है (मुंह में लार आ जाना उसी का प्रतीक है) वैसे ही हमें आत्मिक रूप से भी भोजन की तैयारी करनी चाहिए। उसके लिए हम भीतर से आनंदित होकर भोजन की कामना में खो जाएं। विचारों के अनावश्यक और अनर्गल प्रवाह को हम रोक दें और भोजन के आनंद में अपने आपको प्रतिष्ठित करें।
वेद कहता है :-
ओ३म् अन्नपते अन्नस्य नो देहयनमीवस्य शुष्मिण:।
प्र प्रदातारम् तारिष ऊर्ज्ज नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे।
(यजु. 11.83)
भावार्थ : वेद का संदेश है कि हे अन्न प्रदान करने वाले अन्न के स्वामी परमात्मन! हमें रोग रहित अर्थात नैरोग्य प्रदान करने वाले और बल देने वाले अन्न के भाग को प्रदान करो। वेद अन्न ग्रहण करने से पूर्व अन्न के प्रति शुभकामना व्यक्त कर रहा है, और हमें आदेशित कर रहा है कि भोजन ग्रहण करने से पूर्व भोजन की पवित्रता, शुद्घता और पौष्टिकता की अन्नपति परमात्मा से प्रार्थना करो कि वह हमारे लिए शुद्घ, सात्विक, पौष्टिक और नैरोग्य प्रदान करने वाला अन्न प्रदान करें। हमारे लिए अन्न जितना ही अधिक नैरोग्य प्रदाता होगा हम उतने ही अधिक स्वस्थ रहेंगे और उससे उतना ही अधिक हमारा आयुष्य बढ़ेगा।
वेद कह रहा है कि अन्नादि का दान करने वाले को हे परमात्मन ! आप अपनी कृपा से उन्नत व समृद्घ बनाओ। अन्नादि का दान सर्वोत्तम दान है। भूखे को भोजन कराना बड़ा पुण्य कार्य है। यदि भूखे को भोजन कराने की कामना वाले सभी हो जाएं तो संसार से भूख की बीमारी को मिटाया जा सकता है। आज का संसार भूखे को मिटाने पर लगा है, इसीलिए सर्वत्र हाहाकार मची है। सर्वत्र असंतोष है। भूखे के स्थान पर यदि भूख और निर्धनता को मिटाने की कामना संसार और संसार के लोग करने लगेंगे तो संसार को स्वर्ग बनने-बनाने में देर नहीं लगेगी, इसीलिए वेद अन्नादि का दान करने वाले को उन्नत व समृद्घ बनाने की प्रार्थना परमपिता परमात्मा से कर रहा है। ऐसे लोगों की समृद्घि से सामाजिक वातावरण प्रेममय और आनंदमय बना रहता है।
वेद आगे कहता है कि हमारे दो पैर वालों अर्थात पारिवारिक जनों के लिए चार पैर वालों अर्थात पशुओं के लिए अन्नबल प्रदान करो। वेद के इस मंत्र के अंतिम चरण का यह भाव भी ग्रहण करने योग्य है। इसमें सर्वप्रथम तो यह बात ध्यान देने की है कि परमपिता परमात्मा से भक्त अपने-अपने लिए या अपने परिवार के लिए ही अन्न बल प्रदान करने की प्रार्थना नहीं ंकर रहा है, अपितु दोपाये और चौपाये अर्थात सभी प्राणियों के लिए प्रार्थना कर रहा है कि सभी प्राणियों को अन्न बल प्रदान करो। कहने का अभिप्राय है कि वेद की प्रार्थना में ‘रोटी रिज्क‘ पर सभी का अधिकार माना गया है, इसलिए वेद की कामना है कि ये दोनों चीजें सभी को बिना किसी भेदभाव के प्राप्त होनी चाहिएं। वसुधा को परिवार मानने वालों की प्रार्थना में ऐसी संकीर्णता आ भी नहीं सकती कि ‘मुझे-रोटी दो रिज्क दो मेरे खानदानियों को और मेरे संप्रदाय के लोगों की रोटी दो, रिज्क दो,’ वह तो सबके लिए मांगेगा, क्योंकि सब उसके हैं और वह सबका है।
यही कारण है कि भोजन करने के बाद भी वेद व्यवस्था करता है :-
मोघमन्नं विन्दते अप्रचेता: सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी।
(ऋ . 10-117-6)
अर्थात (अप्रचेता:) अनुदार चित्तवाला स्वार्थी व्यक्ति (अन्नं मोघं विन्दते) अन्न धन को व्यर्थ अर्थात निष्फल ही प्राप्त करता है। वह उसका सदुपयोग नहीं कर पाता। कहने का अभिप्राय है कि वह अपने धन का पर कल्याण में सदुपयोग नहीं कर पाता है, जिससे उसका अन्नधन व्यर्थ ही जाता है, अर्थात उसके अन्नधन होने का यदि संसार को कोई लाभ नहीं मिल पाया तो वह व्यर्थ है। (सत्यं वदामि) मैं यह सत्य कहता हूं कि (स:तस्य वध इत्) वह अन्नधन उसकी मृत्यु ही है, अर्थात ऐसा अन्न अपने उस स्वामी को रोगादि उत्पन्न करता है, जो उसकी मृत्यु का कारण बनता है, क्योंकि न तो वह विद्यादाता विद्वानों को तृप्त करता है और न यज्ञादि द्वारा ईश्वर की उपासना करता है, और न देवताओं को भाग देता है, तथा न मित्रों को तृप्त करता है। ऐसा (केवलादी) केवल स्वयं ही खाने वाला व्यक्ति (केवलाघो भवति) केवल पापरूप होता है। वह उस भोजन के रूप में पाप का भक्षण करता है अर्थात इस प्रकार उसके मन में पाप के संस्कार ही पनपते हैं। कहने का अभिप्राय है कि स्वार्थ का चिंतन हमें स्वार्थी बनाता है और भोजन के समय होने वाला परमार्थ का चिंतन हमें परमार्थी बनाता है। वेद भोजन के समय परमार्थ की कामनाओं से हमें भिगो देता है और उस आनंदरस में भीगी हुई अवस्था में हमें सचेत करता है कि अपने आप ही मत खा, अपितु सबसे पूछकर खा, सबके सामने प्रस्तुत (परोसना) हो गया है या नहीं-यह देखकर खा, पड़ोसी भूखा तो नहीं-यह देखकर खा, कोई आगंतुक या अतिथि अभी भोजन से वंचित तो नहीं रह गया है-यह भी देखकर खा। तभी तेरा भोजन स्वादिष्ट और पौष्टिक बनेगा। ऐसी कामनाएं यज्ञीय कामनाएं होती हैं और यज्ञ हमारी ऐसी ही कामनाओं को पूर्ण कराने का माध्यम है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत