ओ३म
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हम एक मनुष्य हैं। मनुष्य कोई जड़ पदार्थ नहीं अपितु एक चेतन प्राणी होता है। चेतन प्राणी इस लिये है कि मनुष्य के शरीर में एक चेतन सत्ता जीव वा जीवात्मा का वास है। यह चेतन सत्ता शरीर से पूर्णतः पृथक होती है। चेतन व जड़ परस्पर एक दूसरी सत्ता में परिवर्तनीय नहीं हैं। इसका अर्थ यह है कि चेतन से जड़ और जड़ से चेतन नहीं बन सकता। इस प्रश्न पर ऋषि दयानन्द ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में भी विचार किया है और सिद्ध किया है चेतन सत्ता जड़ पदार्थों से या इनके किन्हीं विकारों से अस्तित्व में नहीं आती। ऋषि दयानन्द ने वेद और अनेक वैदिक ऋषियों के प्रमाणों से माना है कि ईश्वर व जीव चेतन हैं और यह दोनों अनादि, नित्य, अनुत्पन्न, शाश्वत, अमर, अविनाशी सत्तायें हैं। ईश्वर के हमें प्रायः सभी सत्य गुणों का ज्ञान है। यह गुण हमें वेद, उपनिषद एवं दर्शन ग्रन्थों से प्राप्त हुए हैं। ऋषि दयानन्द ने इन सभी गुणों को अपने सत्यार्थप्रकाश आदि अनेक ग्रन्थों में यथास्थान वर्णन किया है।
वेद व प्राचीन शास्त्रों सहित ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों में ईश्वर व जीवात्मा का जो सत्यस्वरूप व गुण, कर्म व स्वभाव पाये जाते हैं वह सब तर्क एवं युक्ति की कसौटी पर सत्य हैं। किसी पदार्थ को सिद्ध करना हो तो उसे तर्क व युक्ति की कसौटी पर ही सत्य सिद्ध करना होता है और उस सत्ता को वस्तु रूप में प्रस्तुत करना होता है। ईश्वर सत्य की कसौटी पर तो सत्य है ही, सत्यार्थप्रकाश में ईश्वर को सिद्ध करने विषयक सभी तर्क व युक्तियों को प्रस्तुत किया गया है। ईश्वर की सत्ता को वस्तु रूप में प्रस्तुत करने के लिये यह समस्त संसार है जो अपौरुषेय है, जो किसी मनुष्य ने नहीं बनाया, अपने आप बन नहीं सकता अतः यह सृष्टि अपनी रचना व पालन के लिये किसी सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, अनादि, नित्य, सर्वातिसूक्ष्म सत्ता की अपेक्षा रखती है। ईश्वर अत्यन्त व सबसे सूक्ष्म होने के कारण हमें हमारी आंखों से दिखाई नहीं देता। आकाश, वायु और जल के परमाणु वा जल की वाष्प को भी हम आंखों से देख नहीं पाते परन्तु इनके अस्तित्व से कोई मनुष्य व विद्वान इनकार नहीं करता। वायु को हम स्पर्श गुण से जानते हैं। आकाश का गुण खाली या पोलापन होता है। शब्द आकाश का मुख्य गुण है। ईश्वर के गुणों की बात करें तो वह अपनी सृष्टि व अपौरुषेय पदार्थों की रचना एवं संसार में सभी भौतिक व प्राणियों में विद्यमान सुव्यवस्था से जाना जाता है।
एक सिद्धान्त यह है कि कर्ता के बिना कार्य वा रचना नहीं होती। इसका प्रयोग सृष्टि में करने पर यह सिद्ध होता है कि यह सृष्टि इसके कर्ता स्रष्टा व सृष्टिकर्ता की रचना है। जो इसे स्वीकार नहीं करते वह अविद्या व अज्ञान से ग्रस्त कहे जा सकते हैं। ईश्वर का यदि प्रत्यक्ष करना हो तो वह वेदाध्ययन से एवं योग-समाधि में प्रत्यक्ष होता है। योगी समाधि अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार कर बोल उठता है ‘त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि’। नास्तिक व हमारे कुछ वैज्ञानिक ईश्वर को नहीं मानते। उन्हें ईश्वर को जानने के लिए वेदादि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। उन्हें यदि कोई बात मिथ्या व भ्रमयुक्त लगती है तो उसका खण्डन तर्क एवं प्रमाणों से करना चाहिये। वस्तु स्थिति यह है कि वह इससे बचते हैं। इस कारण से उनकी बातों का विश्वास नहीं किया जा सकता। नास्तिकों एवं वैज्ञानिकों को चाहिये कि वह जहां विज्ञान के ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं वहीं मत-मतान्तरों के ग्रन्थों का त्याग कर शुद्ध ज्ञान व विज्ञान के ग्रन्थ वेद सहित उपनिषदों एवं दर्शनों का अध्ययन करें। इसके साथ योगाभ्यास भी करें। हमारा अनुमान है कि ऐसा करने पर अधिकांश वैज्ञानिक व नास्तिक ईश्वर को मानने लगेंगे।
ऋषि दयानन्द के जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो उनके जीवन में एक समय था जब उन्हें मत-मतान्तरों में वर्णित ईश्वर के स्वरूप पर सन्देह हो गया था और उन्हें उस स्वरूप वाले परमात्मा व ईश्वरीय सत्ता को मानना छोड़ दिया था। उन्होंने अन्वेषण किया, योग सीखा, समाधि अवस्था प्राप्त की, ईश्वर का साक्षात्कार किया, वेद, उपनषिद, दर्शन आदि सैकड़ों व सहस्रों ग्रन्थों का अध्ययन किया। उस अध्ययन एवं अपने चिन्तन व विश्लेषण के आधार पर उन्होंने सार व निष्कर्ष रूप में वेद वर्णित ईश्वर के स्वरूप को स्वीकार किया। हम अपने अध्ययन के आधार पर यह कह सकते हैं कि हमें ईश्वर का प्रत्यक्ष व साक्षत्कार हो या न हो परन्तु वेदाध्ययन, तर्क एवं युक्ति आदि से ईश्वर सत्य सिद्ध होता है। साक्षात्कार अनुभव सिद्ध ज्ञान को कहते हैं। जिस पदार्थ व सत्ता में रूप व आकृति है ही नहीं उसका दर्शन व साक्षात् चर्म चक्षुओं से न होकर सद्ज्ञान, वेद, तर्क, युक्तियों, आत्मा की अनुभूतियों व अनुभवों से ही हो सकता है। यह अनेक मनुष्यों व विद्वानों को होता है। आवश्यकता केवल निष्पक्ष होकर अध्ययन व निर्णय करने की है।
इस सृष्टि में दो चेतन सत्ताओं में से पहली ईश्वर तथा दूसरी सत्ता जीवात्मा की है। जीवात्मा परमात्मा से मनुष्य जन्म प्राप्त कर अनेक योनियों में जन्म धारण करने वाली चेतन सत्ता है। जीवात्मा शुभाशुभ व पाप-पुण्य कर्मों का फल भोगने वाली एक अत्यन्त सूक्ष्म जिसका आकार व आकृति निश्चित नहीं है, अल्पज्ञ, ससीम, एकदेशी, अल्प-ज्ञान व कर्म-सामथ्र्य से युक्त, कर्म के बन्धनों में बन्धी हुई सत्ता व पदार्थ है। मनुष्य योनि में यह जीवात्मा वेदाध्ययन एवं वेदज्ञान को प्राप्त होकर साधना व उपासना कर ईश्वर का साक्षात्कार करने में समर्थ होती है। ईश्वर का साक्षात्कार कर लेने पर जीवात्मा मोक्ष प्राप्ति की अधिकारी हो जाती है। मोक्ष जन्म व मरण के चक्र से सुदीर्घ अवधि के लिये अवकाश होता है। इस अवस्था में जीवात्मा ईश्वर के सान्निध्य में रहती है और ईश्वर के आनन्द का भोग करती है। मोक्ष में अनेक जीवात्मायें होती है। मोक्ष को प्राप्त जीवात्मा अन्य जीवात्माओं से मिल सकती है व उनसे वार्तालाप कर सकती है। मोक्ष में जीवात्मा को कई प्रकार की शक्तियां प्राप्त होती हैं। इनको जानने के लिये सत्यार्थप्रकाश का नवम् समुल्लास पढ़ना आवश्यक है। यहां पर विस्तार से जीवात्मा के मोक्ष व उसके विभिन्न पक्षों का वर्णन नहीं किया गया है।
मोक्ष से इतर अवस्था में जीवात्मा अपने पूर्वजन्म के कर्मानुसार सहस्रों व असंख्य योनियों में परमात्मा की कृपा से समय समय पर किसी एक योनि में जन्म लेकर अपना जीवन निर्वाह करती है। मनुष्य योनि विवेकपूर्वक कर्म-योनि एवं भोग-योनि दोनों है जबकि अन्य योनियां केवल भोग योनियां होती है। उन योनियों में जीवात्मा को अपने विवेक व इच्छा से कर्म करने की छूट नहीं होती। वहां केवल अपने पूर्व कृत कर्मों का भोग ही करना होता है। यह क्रम सृष्टि के आरम्भ से चल रहा है। इससे पूर्व के कल्पों में भी यही जीवात्मा इसी प्रकार अपने कर्मों के अनुसार जन्म पाकर जीवन व्यतीत करते हुए सुख व दुःख का भोग करती थीं। इस ब्रह्माण्ड में हमारी पृथिवी के समान अनेक लोक हैं जहां मनुष्य आदि प्राणी निवास करते हैं। वह लोक हमारे सौर मण्डल में न होकर अन्य सौर मण्डलों में होने सम्भावित हैं। अन्य सभी लोगों में भी परमात्मा इस पृथिवी ग्रह के समान सब जीवों को कर्मानुसार जन्म व भोग प्रदान करता है। अधिकांश जीवात्माओं को अल्पज्ञ होने सहित वेदादि ग्रंथों का स्वाध्याय न करने के कारण जन्म-मरण विषयक ईश्वरीय विधान का ज्ञान नहीं होता। वह जिस स्थिति में होते हैं उसी में वह सुख व दुःख का अनुभव करते हैं। उन्हें यह पता नहीं होता कि यदि वह अपने कर्मों पर विचार कर असद् व पाप कर्मों को करना बन्द कर दें और सद्कर्मों का अनुष्ठान करें तो उनका जीवन भी उद्धार व सुधार को प्राप्त हो सकता है।
हम मनुष्य हैं। परमात्मा हमारा माता, पिता, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है। हमें ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करना है। यदि करेंगे तो ईश्वर से हमें सभी प्रकार का सुख, स्वास्थ्य एवं कल्याण प्राप्त होगा। हमारे पास ईश्वर की आज्ञा पालन करने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग व विकल्प भी नहीं है। इसका कारण यह है कि यदि हम ईश्वर की अवज्ञा करते हैं तो वह सर्वशक्तिमान न्यायाधीश जो हमारे प्रत्येक कर्म का साक्षी होता है, हमें दण्ड देगा। दण्ड कोई भी मनुष्य व चेतन प्राणी भोगना नहीं चाहता। अतः ईश्वर की आज्ञाओं का पालन ही हमारे सामने एकमात्र विकल्प है। ईश्वर की आज्ञाओं का ज्ञान हमें वेद तथा ऋषियों के ग्रन्थों से प्राप्त हो सकता है। ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश एवं उनके अन्य ग्रन्थों से भी हमें ईश्वर आज्ञाओं वेद विधानों का ज्ञान होता है। हमें वेद, ऋषियों के उपनिषद एवं दर्शन ग्रन्थों के स्वाध्याय से अपना ज्ञान बढ़ाना है। ईश्वर, आत्मा और संसार को जानना है तथा अपने कर्तव्य व ईश्वर की आज्ञाओं का भी बोध प्राप्त करना है। ऐसा करके और वेदमार्ग पर चलकर हम न केवल अपने इस जीवन में अपितु इसके बाद के अनेक जन्मों में भी इस जन्म के पुण्य कर्मों से सुखी व कल्याण को प्राप्त हो सकते हैं। हमें ईश्वर के प्रति अपने कर्तव्यों सहित अपने परिवारजनों, समाज व देश के प्रति कर्तव्यों का भी पालन करना है। इन सभी कर्तव्यों का विधान व मार्गदर्शन जो वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थों में है, हम ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों से एक स्थान पर प्राप्त कर सकते हैं। हम आशा करते हैं कि पाठकों को इस लेख से कुछ लाभ होगा। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य