हमारे देश में सरकारी मंत्रालयों , विभागों व संस्थानों के सूत्र वाक्य संस्कृत में निर्धारित किए गए हैं । उनसे पता चलता है कि वह ये सूत्र वाक्य हमें सूत्र या बीज रूप में प्रेरणा दे रहे हैं और हमारे राजधर्म को निर्धारित कर रहे हैं । यही कारण है कि हमारे देश के संसद भवन के केन्द्रीय कक्ष के द्वार के ऊपर पंचतंत्र का एक संस्कृत श्लोक अंकित है। वह श्लोक इस प्रकार है :–
अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।(पंचतंत्र 5/38)
हिन्दी में इस श्लोक का अर्थ है:-
“यह निज, यह पर, सोचना,
संकुचित विचार है।
उदाराशयों के लिए
अखिल विश्व परिवार है।”
‘वसुधैव कुटुंबकम’ की यह पवित्र भावना भारतीय शासन और शासकीय नीतियों का ध्येय वाक्य है। यदि इसके बारे में यह कहा जाए कि प्राचीन काल से अब तक भारत इसी नीति पर कार्य करने वाला देश रहा है तो कोई अतिशयोक्ति न होगी । भारत का धर्म उसे ‘वसुधैव कुटुंबकम ‘ की पवित्र भावना में विश्वास रखने के लिए प्रेरित करता है। संपूर्ण वसुधा को अपना परिवार मानना वास्तव में बहुत बड़ी भावना है । इससे राष्ट्र की या देशों की नागरिकताएं बहुत संकुचित दिखाई देती हैं । इस पवित्र भावना को अंगीकार करने वाले व्यक्ति के लिए नागरिकता की ये संकीर्णताएं धीरे धीरे समाप्त हो जाती हैं । क्योंकि व्यक्ति के लिए संपूर्ण वसुधा रूपी परिवार का एक सदस्य होना अपने आप में किसी देश के नागरिक होने से अधिक गरिमा पूर्ण है।
धर्म की महत्ता और राजनीति
भारत के संविधान निर्माताओं ने धर्म की अनिवार्यता को कहीं पर भी भंग नहीं किया ,अपितु उन्होंने धर्म को अपने लिए अनुकूल , उपयुक्त , उचित और प्रासंगिक मानकर उसकी कदम – कदम पर अनिवार्यता को अनुभव किया है । प्राचीन काल से ही धर्म को भारत ने प्रमुखता प्रदान की है । प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति को धर्म ही शासित व अनुशासित रखता है। इसीलिए गृहस्थ धर्म , राजधर्म आदि जैसे शब्द समाज में प्रचलित मिलते हैं । धर्म को राजनीति ने भी स्वीकार किया है तभी तो संसद भवन की लिफ्ट संख्या 1 के निकटवर्ती गुम्बद पर महाभारत का यह श्लोक अंकित है:-
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा,
वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
धर्म स नो यत्र न सत्यमस्ति,
सत्यं न तद्यच्छलमभ्युपैति।(महाभारत 5/35/58)
इस श्लोक का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-
“वह सभा नहीं है जिसमें वृद्ध न हों,
वे वृद्ध नहीं है जो धर्मानुसार न बोलें,
जहां सत्य न हो वह धर्म नहीं है,
जिसमें छल हो वह सत्य नहीं है।”
बात स्पष्ट है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने संसद के दोनों सदनों अर्थात राज्यसभा और लोकसभा में ऐसे धर्मप्रेमी , ज्ञानवृद्ध लोगों को भेजने का सपना संजोया था , जो संसद भवन में बैठकर धर्मानुसार शासन करने की नीतियों पर विचार करने वाले हों , उनका गंभीर ज्ञान रखने वाले हों । धर्म प्रेमी से अभिप्राय उन ज्ञानीजनों , परोपकारी और लोक कल्याण को अपने लिए सर्वोपरि मानने वाले लोगों से है जो राजनीति को व्यवसाय न बनाकर सेवा का एक माध्यम बनाकर उसे अपने लिए अपनाते हैं ।सचमुच भारत का यह दुर्भाग्य रहा कि स्वतंत्र भारत में कुछ देर पश्चात ही ऐसे लोग संसद में पहुंचने में सफल हो गए जो धर्म शब्द से ही घृणा करते थे , क्योंकि वह धर्म शब्द का अर्थ नहीं जानते थे ।
लोक सभा के भीतर अध्यक्ष के आसन के ऊपर यह शब्द अंकित है:-
धर्मचक्र-प्रवर्तनाय
“धर्म परायणता के चक्रावर्तन के लिए”
प्राचीन काल से ही भारत के शासक धर्म के मार्ग को ही आदर्श मानकर उस पर चलते रहे हैं और उसी मार्ग का प्रतीक ‘धर्मचक्र’ भारत के राष्ट्र ध्वज तथा राज चिह्न पर सुशोभित है। इसमें आठ चक्र हैं । इस धर्म चक्र का अर्थ है , अष्टांग योग की भारत की प्राचीन परंपरा को आज के साथ समन्वित करना। स्पष्ट है कि हमारे संविधान निर्माता भारत के अष्टांग योग की परंपरा के अनुसार भारत के लोगों को एक ऐसा न्यायपूर्ण शासन देने के पक्षधर थे जो लोगों को धर्मानुकूल आचरण करने के लिए प्रेरित करते हुए मोक्ष प्राप्ति का रास्ता बताता । ऐसे विद्वान जनों से जो संसद बनती जरा कल्पना कीजिए कि वह कितनी भव्य होती ?
‘अष्टांग योग’ को अपनाने वाला व्यक्ति अपने इस लोक को तो उत्तम बनाता ही है , परलोक को भी सुधार लेता है । क्योंकि ‘अष्टांग योग ‘ का मार्ग धर्म का मार्ग है , जिस पर चढ़ने वाले व्यक्ति से किसी भी प्रकार के प्रमाद की या गलती की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
भारत की ‘सत्यमेव जयते’ की परंपरा
भारतीय शासन के ध्येय वाक्य ‘सत्यमेव जयते ‘ के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं कि इसे भारत के राष्ट्रीय पटल पर स्थापित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पंडित मदन मोहन मालवीय जी हैं । जिन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष रहते हुए 1918 में इसे ‘ध्येय वाक्य’ बनाकर चलने की प्रेरणा तत्कालीन कांग्रेसियों को दी थी । ‘सत्यमेव जयते’ की परंपरा में विश्वास रखने का अभिप्राय है कि हम उस सत्य के उपासक हैं जो कि समस्त चराचर जगत का आधार है। हम शरीर की साधना में नहीं बल्कि आत्मसाधना में विश्वास रखते हैं , जो परमात्मा की साधना में परिवर्तित होकर हमें मोक्षाभिलाषी बनाती है।
‘सत्यमेव जयते’- यह मुंडकोपनिषद का मंत्र है । भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में निष्णात रहे पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने इस धेय वाक्य को कांग्रेस को दिया तो स्वतंत्रता उपरांत यही ध्येय वाक्य भारतीय शासन का ध्येय वाक्य भी बना । ‘सत्यमेव जयते’ से हमें इस सत्य को भी समझने में सहायता मिली कि प्रत्येक व्यक्ति जन्म से स्वतंत्र उत्पन्न होता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्र सोचने , जीवन यापन करने और अपना सर्वांगीण विकास करने का नैसर्गिक अधिकार है । भारत ‘सत्यमेव जयते’ की इसी परम्परा के प्रति समर्पित राष्ट्र के रूप में प्राचीन काल से अपना स्थान बनाने में सफल रहा था । इसी परम्परा ने उसे स्वतंत्रता को हड़पने वाली विदेशी शक्तियों के विरुद्ध उठ खड़ा होने के लिए प्रेरित किया। पंडित मदन मोहन मालवीय जैसे संस्कृति पुरुष से यही अपेक्षा की जा सकती थी कि वह भारत की चेतना के इस मूल स्वर को तत्कालीन भारतीय समाज को समझाते और इसकी क्रांतिकारी स्वर लहरियों से भारत को आंदोलित करते।
शास्त्रों में आत्मा, परमात्मा, प्रेम और धर्म को सत्य माना गया है। इसका अभिप्राय है कि जहाँ आत्मा , परमात्मा , धर्म और प्रेम की बात होती हो वहाँ जीत होती है । बात स्पष्ट है कि जहाँ धर्मनिरपेक्षता हो अर्थात धर्म से दूरी बनाकर चलने की भावना हो , वहाँ जय न् होकर पराजय होती है । ‘ सत्यमेव जयते ‘ को भारत के शासन का ध्येय वाक्य बनाना एक अलग बात है परंतु ‘ सत्यमेव जयते ‘ की परम्परा के गूढ़ और रहस्यपूर्ण अर्थ को न समझना एक अलग बात है । निश्चित रूप से ‘सत्यमेव जयते ‘ की परम्परा के वास्तविक और रहस्यपूर्ण अर्थ को समझकर चलने की परम्परा का भी भारत में आगे बढ़ना नितांत आवश्यक था ।
राजनीति में अशिक्षित और गुणहीन लोगों को राजनीतिक दलों के द्वारा थोक के भाव में भरा गया और अधर्मी , नीच , पापी और अपराधी प्रकृति के लोगों को संसद और विधानसभाओं में भेजा गया।
यह भी मानना पड़ेगा कि तथाकथित हिंदूवादी दलों के पास भी भारतीय संस्कृति , धर्म और इतिहास की विशुद्ध परम्परा को समझने वाले जनप्रतिनिधियों का अभाव रहा। जिसका परिणाम यह निकला कि ‘ सत्यमेव जयते ‘ केवल दीवारों पर लिखा गया ध्येय वाक्य मात्र बनकर रह गया । उसकी भावना हमारे शासन , शासन की नीतियों और परम्पराओं में विकसित नहीं हो पाई । हमने सत्य को अर्थात धर्म को ही ‘अफीम’ कहना आरंभ कर दिया। अफीम , भांग और गांजा पीने वाले को धर्म वैसे ही प्रिय नहीं होता जैसे चोर को घर में जलता हुआ दीपक प्रिय नहीं होता।
कहा जाता है कि सत्य से बढ़कर कुछ भी नहीं। सत्य के साथ रहने से मन हल्का और प्रसन्न चित्त रहता है। मन के हल्का और प्रसंन्न चित्त रहने से शरीर स्वस्थ और निरोगी रहता है।
सत्यमेव जयते (संस्कृत विस्तृत रूप: सत्यं एव जयते) भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य है। इसका अर्थ है : सत्य ही जीतता है / सत्य की ही जीत होती है। यह भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे देवनागरी लिपि में अंकित है। यह प्रतीक उत्तर भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश में वाराणसी के निकट सारनाथ में 250 ई.पू. में सम्राट अशोक द्वारा बनवाये गए सिंह स्तम्भ के शिखर से लिया गया है, लेकिन उसमें यह आदर्श वाक्य नहीं है। ‘सत्यमेव जयते’ मूलतः मुण्डक-उपनिषद का सर्वज्ञात मंत्र 3.1.6 है। पूर्ण मंत्र इस प्रकार है:—
सत्यमेव जयते नानृतम सत्येन पंथा विततो देवयानः।येनाक्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत् सत्यस्य परमम् निधानम्॥
भावार्थ है कि अंततः सत्य की ही जय होती है , अर्थात आत्मा , परमात्मा , धर्म और प्रेम के अनुकूल किए गए आचरण व्यवहार और नीतियों की ही जय होती है । जो लोग आत्मा , परमात्मा , धर्म और प्रेम के विपरीत नीतियों को अपनाते हैं , उनकी देर सवेर पराजय होती है । ऐसे लोग कभी-कभी जीतते हुए दिखाई देते हैं , परंतु उनका अंत सदा पराजय में होता है ।एक भ्रष्टाचारी व अनाचारी व्यक्ति रातों-रात महल खड़े कर सकता है , कार – कोठियां खरीद सकता है , परंतु उसका अंत कैसा होगा ?- देखने वाली बात यह होती है। असत्य की कभी जीत नहीं होती । ,सत्य ही वह मार्ग है जिससे होकर आप्तकाम (जिनकी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों) मानव जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।
जिन शासकों ने अपने शासनकाल में किसी वर्ग विशेष के लोगों के नरसंहार किए या अपने से विपरीत विचारधारा रखने वाले लोगों को मौत के घाट उतारा या किसी भी कारण से शांति प्रिय लोगों पर अत्याचार किए , उनके इतिहास में नाम हो जाने का अभिप्राय यह नहीं है कि सत्य जीत गया था । इसके विपरीत उनके इन पापों का परिणाम यह हुआ कि इतिहास की तो हत्या हुई ही साथ ही सत्य एवं धर्म को उत्पीड़ित करने की परम्परा का आरंभ भी हुआ ।
यह परम्परा अभी तक भी जारी है । लोग सत्ता स्वार्थों के लिए पता नहीं कैसे-कैसे पाप कर रहे हैं ? – सारे संसार में सत्ता स्वार्थ की पूर्ति की आग लगी हुई है । यदि सूक्ष्मता से इस लगती हुई आग पर दृष्टिपात किया जाए तो पता चलता है कि सत्य आज भी उत्पीड़ित हो रहा है । इतिहास चाहे किन्हीं तानाशाहों के और अवैध व अनैतिक शासकों के कितने ही गुणगान कर ले , लेकिन संसार में लगती हुई आग एक दिन इन सारे तानाशाहों , क्रूर शासकों और अनैतिक लोगों के क्रियाकलापों को भस्मसात कर देगी।
भारत के ‘सत्यमेव जयते’ की भांति ही हम देखते हैं कि पूर्ववर्ती चेकोस्लोवाकिया का आदर्श वाक्य “प्रावदा वीत्येज़ी” (“सत्य जीतता है”) का भी समान अर्थ है।
भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप में विश्वास रखने वाले लोगों को धर्म और सत्य के समानार्थी स्वरूप पर अवश्य चिंतन करना चाहिए । सचमुच वह दिन बड़ा महान होगा जब धर्म और सत्य पर धर्म और सत्य की सुरक्षा के लिए समर्पित हमारे संविधान की मूल भावना का सम्मान करते हुए संसद में चर्चा होगी।
यतो धर्मः ततो जयः
‘ सत्यमेव जयते’ की परम्परा का मूल भी धर्म होता है । जहां धर्म होता है, जय वहीं होती है। धर्म के लिए कहा जाता है कि यह प्रजा को धारण करता है। धर्म के अनुसार जीवन यापन करने वाला व्यक्ति गलतियों का पुतला नहीं रहता । मनुष्य को ‘गलतियों का पुतला’ कहना पश्चिमी चिंतन की देन है । भारत तो शूद्र रूप में जन्मे बच्चे को द्विज बनाकर समाज को देता है । जब तक वह शूद्र है , तब तक उससे गलती करने की अपेक्षा की जा सकती है , परंतु जैसे ही वह द्विज बन जाता है , फिर उससे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह अब भी गलतियां करता रहेगा। द्विज बन जाने का अभिप्राय है कि अब वह धार्मिक हो गया है , धर्म के अनुसार चलने वाला हो गया है , अब उसे अपने किए हुए प्रत्येक कार्य के परिणाम का भी ज्ञान हो गया है। अतः यदि अब भी वह कोई गलती करेगा तो उसे शूद्र के द्वारा की गई गलती के कई गुना अधिक दंड दिया जाएगा। स्पष्ट है कि द्विज की अपेक्षा शूद्र कम दंड का पात्र है , क्योंकि वह अज्ञानता वश गलतियां करता है ।
अब आते हैं यतो धर्मः ततो जयः (या, यतो धर्मस्ततो जयः) पर , जो कि एक संस्कृत श्लोक है। यह भारत के सर्वोच्च न्यायालय का ध्येय वाक्य है। यह महाभारत में कुल ग्यारह बार आया है और इसका अर्थ है “जहाँ धर्म है वहाँ जय (जीत) है।”
इस ध्येयवाक्य का अर्थ महाभारत के उस श्लोक (संस्कृत: यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः) से आता है जब कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन युधिष्ठिर की अकर्मण्यता को दूर कर रहे हैं। वो कहते हैं, “विजय सदा धर्म के पक्ष में रहती है, एवं जहाँ श्रीकृष्ण हैं वहाँ विजय है ।” गांधारी भी अपने पुत्रों की मृत्यु के उपरांत समान उद्गार कहती है। कृष्ण जी जहाँ हैं – वहीं जीत होगी , इसका अर्थ यह नहीं है कि श्री कृष्ण जी इतने बलशाली थे कि वह जहाँ भी होंगे , वहीं उसी व्यक्ति को जिता देंगे ? – इसके विपरीत इस कथन का अभिप्राय यह है कि श्री कृष्ण जी होंगे ही वहाँ जहाँ धर्म होगा , जहाँ नैतिकता होगी , जहाँ न्याय होगा और जहाँ मर्यादा होगी । जहाँ पर यह सब चीजें मिलेंगी , वहाँ जीत होना निश्चित है । अर्जुन युधिष्ठिर को यही कह रहे हैं कि यदि श्रीकृष्ण हमारे साथ हैं तो समझ लीजिए कि यह सब चीजें हमारे साथ हैं और हम न्याय के लिए युद्ध कर रहे हैं । इसलिए ही श्री कृष्ण जी ने महाभारत के युद्ध को धर्म युद्ध भी कहा है।
यतो धर्मः ततो जयः के इस ध्येय वाक्य पर भी यदि चिंतन किया जाए तो इसका अर्थ भी ‘सत्यमेव जयते’ ही है । इस प्रकार स्पष्ट है कि हमारा सर्वोच्च न्यायालय और भारत का शासन अपने जिन ध्येय वाक्यों के आधार पर भारत में न्याय प्रदान करता है या शासन करता है , उनका मूल चिंतन समानार्थी है ।
इसके उपरांत भी शासन अपने आपको धर्म से दूर रखने की नीति पर कार्य करता हुआ दिखाई देता है । ‘ गुड़ खाएं , पर गुलगुलों ( गुड़ से बने पूड़े ) से परहेज ‘ — करने की शासन की नीतियां कार्य कर रही हैं । जिन्हें भारतीय संविधान के निर्माताओं की मूल भावना के विपरीत तो कहा ही जाएगा , साथ ही हमारे राजनीतिज्ञों का ऐसा आचरण उनकी अज्ञानता को भी प्रकट करता है।
हिंदुत्व की चेतना के इन मूल स्वरों को यदि हमारे संविधान निर्माताओं ने अपनाने का संकल्प लिया तो उन्हें बाद के शासकों ने क्यों विस्मृत कर दिया या शासन की ऐसी नीतियां क्यों बनाई गयीं जो भारतीयता के अनुकूल हिंदुत्व के इन स्वरों को समाप्त करती हुई जान पड़ती हैं ?
गंभीर प्रश्न है । जो आज की संपूर्ण राजनीति के लिए न केवल एक यक्ष प्रश्न है बल्कि उसकी आत्मा को झकझोर देने वाला प्रश्न भी है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत