सूर्यकांत बाली
गार्गी का पहला सवाल बहुत ही सरल था। पर उसने अन्तत: याज्ञवल्क्य को ऐसा उलझा दिया कि वे क्रुध्द हो गए। गार्गी ने पूछा था, याज्ञवल्क्य बताओं तो, जल के बारे में कहा जाता है कि हर पदार्थ इसमें घुलमिल जाता है तो यह जल किसमें जाकर मिल जाता है?
अगर वैदिक साहित्य पर सूर्या सावित्री छाई हैं तो ब्राह्मण और उपनिषद साहित्य पर गार्गी वाचक्नवी छाई हैं। सूर्या तब हुई जब देश में मंत्रों की रचना समाप्ति की ओर थी और महाभारत से थोड़े ही समय पूर्व उसने विवाह सूक्त की रचना कर वैदिक साहित्य और महाभारत पूर्ववर्ती समाज में इस अर्थ में क्रान्ति ला दी थी कि उसने विवाह संस्था का रूप ही बदल दिया और आज से करीब पांच हजार साल पहले उस विवाह प्रथा का चलन किया जो हम आज तक अपनाए हुए हैं। वाचक्नवी गार्गी इस देश में तब थीं जब वैदिक मंत्र रचना के अवसान के बाद चारों ओर ब्रह्मज्ञान पर वाद-विवाद और बहसें हो रही थी और याज्ञवल्क्य जिस परिदृश्य को अपना एक अद्भुत नेतृत्व प्रदान कर रहे थे।
गार्गी उसी युग में हुई थीं और जनक की ब्रह्मसभा में उन्हीं याज्ञवक्ल्य के साथ जबर्दस्त बहस करके गार्गी ने एक ऐसा नाम हमारे इतिहास में कमाया कि इस प्रकाश स्तम्भ को देश आज भी गौरवपूर्वक याद करता है। कौन थी गार्गी वाचक्नवी? पूरा भारत जिसे पिछले पांच हजार साल से आदरपूर्वक याद करता आ रहा है उसके बारे में कोई खास सूचना पूरे संस्कृत साहित्य में हमें नहीं मिलती। क्या इसे अजीब माना जाए या एक विदुषी नारी का अपमान? कुछ भी नहीं क्योंकि इस युग के जितने भी बड़े-बड़े दार्शनिक थे उनमें से किसी के बारे में कोई खास जानकारियां हमें नहीं मिलतीं। बस उतनी ही मिलती है जितनी ब्रह्मचर्चाओं के दौरान हमें संयोगवश मालूम पड़ जाती हैं। याज्ञवल्क्य के बारे में भी यही सच है। गार्गी का पूरा नाम गार्गी वाचक्नवी बृहदारण्यकोपनिषद (3.6 और 3.8श् में वही मिलता है जहां वह जनक की राजसभा में याज्ञवल्क्य से अध्यात्म संवाद करती है। इसी वाचक्नवी के आधार पर बाद में लोगों ने कल्पना कर ली कि किसी वचक्नु नामक ऋषि की पत्?नी होने के कारण गार्गी का नाम वाचक्नवी पड़ गया। पर हमें इस तर्क में कोई खास दम नजर नहीं आता। वचक्नु बेशक किसी ऋषि का नाम लगता हो, पर हमें इस नाम के किसी ऋषि का कोई अता-पता पूरे साहित्य में कहीं नहीं मिलता। जाहिर है कि अपने समय की प्रखर वक्ता और वाद-विवाद में अप्रतिम होने के कारण गार्गी का नाम वाचक्नवी प्रसिद्ध हो गया होगा। जैसे कई बार प्रसिद्ध सन्तानें अपने पिता को नाम दे दिया करती हैं, वैसे ही गार्गी वाचक्नवी ने अपने पिता को अपने गुण से नाम दे दिया होगा। इसलिए गार्गी वाचक्नवी का अर्थ हुआ वह गार्गी जिसे संवाद या विवाद में कोई हरा न सके। युधिष्ठिर के छत्तीस वर्ष के राज्यकाल के बाद परीक्षित हस्तिनाफर के सम्राट बने।
गार्गी इसी राजा के या इसके पुत्र जनमेजय के, शायद जनमेजय के ही शासनकाल में हुई थी। पर कब? युधिष्ठिर के समकालीन बाहुलाश्व जनक मिथिला में राज कर रहे थे। बाहुलाश्व के पुत्र कृती जनक और कृती के बाद महावशी जनक मिथिला के राजा हुए। वाचक्नवी ने याज्ञवल्क्य के साथ जिन ब्रह्मवेत्ता जनक के राजप्रासाद में अध्यात्म संवाद किया था, वे ही महावशी जनक थे। तो जाहिर है कि इस आधार पर गार्गी को महाभारत युद्ध के करीब पचास-साठ वर्ष बाद का माना जा सकता है। यानी आज से करीब पांच हजार साल पहले देश में एक ऐसी दार्शनिका की दुन्दुभि बज रही थी जिसे उसके स्वभाव के कारण परमहंस भी कह दिया जाता है। कहां की थी गार्गी? कुछ पता नहीं चलता। याज्ञवक्ल्य का नाम फराणों व महाभारत में काफी आता है, पर इन गार्गी का कोई खास उल्लेख नहीं है। सम्पूर्ण उपनिषद् व ब्राह्मण साहित्य में भी गार्गी का उल्लेख सिर्फ मिथिला की अध्यात्म सभा के संवाद के संदर्भ में ही आता है। याज्ञवल्क्य के साथ हुए दो संवादों के अतिरिक्त और कोई संदर्भ भी गार्गी का नहीं मिलता। इसमें से एक निष्कर्ष सहज ही निकाला जा सकता है कि गार्गी कुरु-पंचाल देश की नहीं थीं। गार्गी संभवत: उत्तरी बिहार के किसी क्षेत्र की थीं जहां से उनके लिए मिथिला की राजसभा में जाना भी सहज और सरल रहा होगा। या फिर वह मिथिला की ही थीं।
अपनी परम्परा की इस अतिसमृद्ध विरासत गार्गी वाचक्नवी के बारे में हमारे पास सूचनाओं की कितनी विवश कर देने वाली दरिद्रता है। इसलिए क्यों न उसके दार्शनिक चरित्र का आकलन उन दो संवादों के आधार पर किया जाए जो उसने महावशी जनक की ब्रह्मसी में याज्ञवल्क्य से किए थे? गार्गी का पहला सवाल बहुत ही सरल था। पर उन्होंने अन्तत: याज्ञवल्क्य को ऐसा उलझा दिया कि वे क्रुद्ध हो गए। गार्गी ने पूछा था, याज्ञवल्क्य बताओ तो, जल के बारे में कहा जाता है कि हर पदार्थ इसमें घुलमिल जाता है तो यह जल किसमें जाकर मिल जाता है? अपने समय के उस सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मनिष्ठ याज्ञवक्ल्य ने आराम से और ठीक ही कह दिया कि जल अन्तत: वायु में ओतप्रोत हो जाता है।
फिर गार्गी ने पूछ लिया कि वायु किसमें जाकर मिल जाती है और याज्ञवल्क्य का उत्तर था कि अंतरिक्ष लोक में। पर गार्गी तो अदम्य थी वह भला कहां रुक सकती थी? वह याज्ञवल्क्य के हर उत्तर को प्रश्न में तब्दील करती गई और इस तरह गंधर्व लोक, आदित्य लोक, चन्द्रलोक, नक्षत्र लोक, देवलोक, इन्द्रलोक, प्रजापति लोक और ब्रह्म लोक तक जा पहुंची और अन्त में गार्गी ने फिर वही सवाल पूछ लिया कि यह ब्रह्मलोक किसमें जाकर मिल जाता है? अगर याज्ञवल्क्य ने गार्गी का सवाल शुरू में ही समझ लिया होता तो शायद उन्हें वह नहीं कहना पड़ता। तो गार्गी को लगभग डांटते हुए उन्होंने कहा-‘गार्गी, माति प्राक्षीर्मा ते मूर्धा व्यापप्त्त्’ यानी गार्गी, इतने सवाल मत करो, कहीं ऐसा न हो कि इससे तुम्हारा भेजा ही फट जाए। गार्गी का सवाल वास्तव में सृष्टि के रहस्य के बारे में था। अगर याज्ञवल्क्य उसे ठीक तरह से समझा देते तो उन्हें इस विदुषी दार्शनिका को डांटना न पड़ता। पर गार्गी चूंकि अच्छी वक्ता थी और अच्छा वक्ता वही होता है जिसे पता होता है कि कब बोलना और कब चुप हो जाना है, तो याज्ञवल्क्य की यह बात सुनकर वह परमहंस चुप हो गई। पर अपने दूसरे सवाल में गार्गी ने दूसरा कमाल दिखा दिया उसे अपने प्रतिद्वन्द्वी से यानी याज्ञवल्क्य से दो सवाल पूछने थे तो उसने बड़ी ही शानदार भूमिका बांधी। गार्गी बोली, याज्ञवल्क्य सुनो। मान लो, काशी या विदेह का राजपुत्र अपने धनुष पर पहले डोरी चढ़ाकर, फिर निशाना मार सकने लायक दो फंखों वाले बाणों को धनुष पर चढ़ाकर उनका सन्धान कर दे, वैसे ही मैं तुम्हारे पास दो सवाल लेकर आ रही हूं। यानी गार्गी बड़े ही आक्रामक मूड में थी और उसके सवाल बहुत तीखे थे। क्या थे ये सवाल? याज्ञवल्क्य ने कहा- ‘पृच्छ गार्गी’ हे गार्गी, पूछो। सवाल थे-
1. द्युलोक से ऊपर जो कुछ भी है, और पृथ्वी से नीचे जो कुछ भी है जिसे हम द्यावा पृथ्वी कहते है, उसके बीच जो कुछ भी है,
2. जो हो चुका है और जो अभी होना है- ये दोनों किसमें ओतप्रोत हैं?
सवाल समझ गए न आप? पहला सवाल स्पेस के बारे में है तो दूसरा टाइम के बारे में है। स्पेस और टाइम के बाहर भी कुछ है क्या? नहीं है, इसलिए मानो गार्गी ने बाण की तरह पैने इन दो सवालों के जरिए यह पूछ लिया कि सारा ब्रह्माण्ड किसके अधीन है? याज्ञवल्क्य निफण थे। वे बोले, ‘एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गी।’ यानी कोई अक्षर, अविनाशी तत्व है जिसके प्रशासन में, अनुशासन में सभी कुछ ओतप्रोत है।
गार्गी ने पूछा कि यह सारा ब्रह्माण्ड किसके अधीन है तो याज्ञवल्क्य का उत्तर था- अक्षरतत्व के! इस बार याज्ञवल्क्य अपने जवाब से मानो अति प्रसन्न थे। इसलिए न केवल गार्गी को कोई डांट-वांट इस बार नहीं मिली, अपितु वे अपनी बात को समझाने के मूड में आ गए। बोले, गार्गी इस अक्षर तत्व को जाने बिना यज्ञ और तप सब बेकार है। अगर कोई इस रहस्य को जाने बिना मर जाए तो समझो कि वह कृष्ण है। और ब्राह्मण वही है जो इस रहस्य को जानकर ही इस लोक से विदा होता है।
इस बार गार्गी भी मुग्ध थी। अपने सवालों के जवाब से वह इतनी प्रभावित हुई कि महावशी जनक की राजसभा में उसने याज्ञवल्क्य को परम ब्रह्मिष्ठ मान लिया और वहां मौजूद बाकी प्रतिद्वंद्वी ब्राह्मणों से कहा, ‘सुनो, अगर भला चाहते हो तो याज्ञवल्क्य को नमस्कार करके अपने छुटकारे का रास्ता ढूंढो। इससे पार नहीं है। और आपमें से कोई भी इन्हें जीत कर ब्रह्मिष्ठ नहीं बन सकता।’
यह कहकर गार्गी चुप हो गई, मानो उसने भी याज्ञवल्क्य को अपना गुरु मान लिया हो।
इतने तीखे सवाल पूछने के बाद गार्गी ने जिस तरह याज्ञवल्क्य की प्रशंसा कर अपनी बात खत्म की तो उसने वाचक्नवी होने का एक और गुण भी दिखा दिया कि उसमें अहंकार का नामोंनिशान नहीं था। ज्ञानी को अहंकार नहीं आता, बल्कि ज्ञानवृध्द को गुरु मान लेने में ही अपने बड़प्पन को व्यक्त करना है। गार्गी ने वही किया और इस तरह अपने अगाध ज्ञान की, अदम्य जिज्ञासा की, बहस करने में अपने सामर्थ्य की छाप भी छोड़ी और एक ऐसा बड़प्पन भी दिखा दिया जिसने गार्गी को याज्ञवल्क्य और जनक से अविभाज्य कर दिया है। ऐसी थी गार्गी वाचक्नवी, देश की विशिष्टतम दार्शनिक, युगप्रवर्तक।