राम नवमी पर विशेष-मन्द मन्द मुस्कुराते दशरथ नंदन राम
किसी विदेशी छात्र ने जापान के एक विद्यार्थी से पूछा-‘आप विश्व का सबसे बड़ा महापुरूष किसे मानते हैं?’
जापानी विद्यार्थी ने बड़े गर्व से कहा कि महात्मा बुद्घ को हम संसार का सबसे बड़ा महापुरूष मानते हैं।
विदेशी छात्र ने अपना अगला प्रश्न फिर दाग दिया-
‘यदि कोई व्यक्ति तुम्हारे बुद्घ पर आक्रमण कर दे तो तुम क्या करोगे?’
जापानी विद्यार्थी ने बड़े गर्व से कहा-‘हम आक्रांता का सिर काट लेंगे।’
तब विदेशी छात्र ने फिर अगला प्रश्न कर दिया-
‘यदि तुम्हारा बुद्घ तुम्हारे देश जापान पर आक्रमण कर दे तो क्या करोगे?’
तब जापानी विद्यार्थी ने अपने उदात्त राष्ट्रवाद का परिचय देते हुए कहा-‘तब हम अपने बुद्घ का सिर काट लेंगे।’अब हमारा प्रश्न कि जापान में विश्व में आगे क्यों है?
एक निष्पक्ष उत्तर-जापान को अपना इतिहास बोध है, वह अपने अतीत के स्वर्णिम पृष्ठों को वर्तमान के साथ समन्वित करके चलता है और दूसरे वह अपने राष्ट्रवाद को किसी भी आदर्श से ऊंचा मानता है।
अब दूसरा प्रश्न-हम भारतीय पीछे क्यों हैं?
फिर एक निष्पक्ष उत्तर-हमें इतिहास बोध नही है, अपने महापुरूषों की उपेक्षा करना हमने गौरव की बात मान ली है और दूसरे हमारे भीतर राष्ट्रवाद की भावना आज भी विकसित नही हुई है।
इस बात का उदाहरण देखें। श्रीराम को मर्यादा पुरूषोत्तम माना गया है। सचमुच भगवान राम ने हर स्थान पर अपने जीवन में मर्यादा का पालन किया। उनका आदर्श जीवन संसार के हर महापुरूष से बढ़कर है, परंतु हमने अपने हीरे को भी कबाड़खाने में लोहे की कटोरी समझकर फेंक रखा है, इतिहास बोध के अभाव का इससे बढ़कर कोई उदाहरण नही हो सकता। दूसरे हमने जापानियों से कुछ नही सीखा। हमारे राम पर बाबर ने हमला किया और हमने बाबर को पूजना आरंभ कर दिया। वर्तमान से गद्दारी का इससे बड़ा प्रमाण और कोई नही हो सकता। इतिहास के तथ्यों को हमने कूड़ा समझकर फेंकने या दबाने का प्रयास किया। नही, तो क्या कारण है कि 1949 से जिस रामजन्म भूमि का वाद लड़ा जा रहा है, उस जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे ने इस राष्ट्र की आत्मा को झकझोरा नही और हमारी सरकारों को सच बताने और समझाने का प्रयास नही किया। दो पुस्तकें रामजन्म भूमि के विषय में अब से 20 वर्ष पूर्व प्रकाश में आयी थीं। इनकी पाण्डुलिपियों का विद्वानों ने गहन अध्ययन किया तो आंखें खोलने वाले तथ्य सामने आए। सन 1732 में संत लालदास जी ने एक पुस्तक लिखी-अवध विलास। जबकि दूसरी पुस्तक इतिहास कार आर.नाथ की ‘आर्किटेक्चर ऑफ बाबरी मस्जिद’ है। ‘अवध विलास’ और ‘आर्किटेक्चर आफ बारी मस्जिद’ में रामजन्मभूमि और उसके आसपास की इमारतों का नाप जोख लिखा है। अवध विलास को पढ़ने से ज्ञात होता है कि विवादित भवन में देश की स्वतंत्रता से लगभग 300 वर्ष पूर्व भी भगवान राम की पूजा अर्चना होती थी। यह पाण्डुलिपि वर्तमान में बांदा के ‘चंद्रहास साहित्य शोध संस्थान’ में उपलब्ध है।
जबकि ‘आर्किटेक्चर ऑफ बाबरी मस्जिद’ जयपुर के सिटी पैलेस में उपलब्ध है। इस पुस्तक में 1717 का एक नक्शा छपा है। रामजन्म परिसर के भवन का भी उल्लेख इस पुस्तक में है, यहां तक कि एक भवन से दूसरे भवन की दूरी भी धनुष की लंबाई के अनुसार (इतने धनुष दूर है) कहकर बतायी गयी है। इसका अभिप्राय है कि 1717 तक भी उक्त भूमि पर कुछ भवन विद्यमान थे। इतिहास कार आर. नाथ लिखते हैं कि औरंगजेब ने अयोध्या में जयपुर के राजा सवाई जयसिंह को 1883 एकड़ जमीन का एक उद्यान एक बड़ा परिसर बनाने के लिए दी थी। इसी जमीन पर रामकोट स्थित रहा। सवाई राजा जयसिंह ने ही रामजन्म भूमि के जीर्णोद्वार के लिए वह नक्शा बनवाया था।
आर.नाथ की उक्त पुस्तक में रामजन्म स्थान, लक्ष्मण कुण्ड, अग्निकुंड, चक्रतीर्थ अयोध्या देवी, भरतकुण्ड, दशरथ भवन, जानकी कुण्ड, स्वामी राघवदास का स्थान आदि कपड़े पर बने चित्रों में अंकित है। जबकि संत लालदास की पुस्तक में रामनवमी मनाने और रामजी की जन्मभूमि का वर्णन है। इस पुस्तक के अनुसार राम जन्मभूमि स्थान विघ्नेश्वर के पूर्व की ओर 8000 धनुष पर है। ऋषि भवन के पश्चिम में लगभग पचास चैन की दूरी पर है। जन्म स्थान के उत्तर की ओर बीस धनुष की दूरी पर कैकेयी भवन और तीन धनुष दक्षिण की ओर सुमित्रा भवन है। इस प्रकार एक भवन से दूसरे भवन की दूरी की नापजोख ‘अवध विलास’ और आर.नाथ की उपरोक्त पुस्तक की साक्षी से सीधे सीधे ज्ञात हो जाती है। परंतु हमने चमड़े के चश्मे लगा रखे हैं और हम उसी सीध में देखना चाहते हैं जिसमें देखने के लिए हमें हमारे विदेशी आका लेखकों, इतिहासकारों और कथित विद्वानों ने विवश कर रखा है।
हमें उदारता का और सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया जाता है और ‘कम खाओ-गम खाओ’ की आत्मघाती सीख दी जाती है। जो लोग हमें ऐसी सीख देते हैं वो भूल जाते हैं कि हम उदार भी हैं और कम व गम खाने में तो हमारी महानता बेजोड़ है। हम घृणा को जीवित नही रखना चाहते हैं और घावों को भरने के लिए फटाफट प्रयास करने लगते हैं, हमने सोमनाथ को खोया भी और पाया भी परंतु किसी के पूजास्थल को कोई क्षति नही पहुंचाई। हमारे संत सत्यमित्रानंद गिरि जी महाराज ने हरिद्वार में भारत माता मंदिर बनाया तो उसमें रहीम, रसखान और जायसी को भी आदरणीय स्थान दिया। हमने राममनोहर लोहिया की इस सीख को भी मान लिया कि रहीम, रसखान और जायसी को गर्व से अपना पूर्वज मानो। परंतु लाख टके का सवाल-क्या सारे आर्यावर्त (भूमण्डल) के समादरणीय पूर्वज श्रीराम को इन सभी आदर्शों के नीचे दफन कर दें? क्या कारण है कि रहीम रसखान और जायसी को यदि अपना पूर्वज मानें तो हम धर्मनिरपेक्ष कहे जाते हैं और सारी मानवता की धरोहर भगवान राम को अपना पूर्वज मानें तो हम साम्प्रदायिक हो जाते हैं? राम की शिक्षाओं में, राम के आदर्शों में और राम के जीवन में सर्वत्र मानवतावाद है। क्या मानवतावाद कभी साम्प्रदायिक हो सकता है?-कोई तो दे इस प्रश्न का सटीक उत्तर?
चित्रकूट में रहीम चले जाते हैं। किसी ने पूछा रहीम तुम मुसलमान होकर यहां क्यों आ गये? तब रहीम ने जो उत्तर दिया वह आज के छदमी धर्मनिरपेक्ष लोगों की आंखें खोलने वाला था-
चित्रकूट में बस रहे, रहिमन अवध नरेश।
जा पै विपदा परत है सो आवत याहि देश।।
आज राष्ट्र पर विपदा है तो मुझे ‘अयोध्या’ आना ही पड़ेगा। विपदा में अपनी आत्मा से ही सवाल पूछा जाता है और आत्मा ही आपदा का निराकरण बताया करती है। इसलिए पूरे राष्ट्र को अपनी ‘आत्मा’ से पूछा चाहिए कि उसने कौन कौन से छल तेरे साथ किये हैं जो आज दण्ड के भागी बनकर अपराधी के रूप में खड़े हैं, हमारी चाल मंद, क्यों पड़ गयी है?
रामनवमी पर दशरथ नंदन राम मंद मंद मुस्करा रहे हैं-हर राष्ट्रवादी उनकी मंद मंद मुस्कान का राज समझता है। बकौल शायर
मंसूर से यह कह दो कि मरना नही मुहाल।
मर-मर के फिक्रे कौम में जीना मुहाल है।।
-राकेश कुमार आर्य
(संपादक उगता भारत)