ओ३म्
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मनुष्य जैसे जैसे वेदों से दूर होता रहा वैसे वैसे वह उतना ही अविद्या, अज्ञान व अन्धविश्वासों में फंसता चला गया। हम ईश्वर व वेद को मानने वाले आर्यावर्तीय आर्य व हिन्दू हैं। हमें अपने देश के अन्धविश्वासों तथा सामाजिक कुरीतियों का ज्ञान ऋषि दयानन्द ने कराया था। ऋषि दयानन्द को पढ़कर हम भी अविद्या, अन्धविश्वासों, पाखण्डों तथा सामाजिक कुरीतियों से परिचित हुए। यदि ऋषि हमें इनका परिचय न कराते और असत्य व अन्धविश्वासों को जांचने व परखने की कसौटी हमें प्रदान न करते तो हम अविद्या व अन्धविश्वासों से ग्रसित रहते। ऋषि दयानन्द ने विश्व के सभी मतों व विचारधाराओं का अध्ययन किया था और पाया था कि सभी विचारधाराओं में अपूर्णता, न्यूनता, अज्ञानता, अविद्या आदि विद्यमान है। संसार में जो मत हैं उनमें अन्धविश्वास, कुरितियां हैं एवं उनकी सामाजिक परम्पराओं में भी अन्धविश्वासों का समावेश है। वेदेतर किसी मत के पास वेद, ऋषियों के बनाये दर्शन, उपनिषद व मनुस्मृति आदि ग्रन्थों के समान सद्ग्रन्थ न होने के कारण वह अपने मत के अन्धविश्वासों को जान नहीं पाते। बहुत अधिक समय नही हुआ जब यूरोप में स्त्रियों में आत्मा के अस्तित्व को ही अस्वीकार किया जाता था। पृथिवी गोल है परन्तु उनकी मत-पुस्तक में ऐसा उल्लेख न होने पर वह सत्य व विज्ञान के विरुद्ध ही विचार रखते रहे। ऐसी बहुत सी बातें हैं जो सभी मतों पर लागू होती हैं। एक सिद्धान्त ईश्वर को आसमान पर मानने का भी है। यह मिथ्या सिद्धान्त है। ईश्वर आसमान पर किसी स्थान विशेष पर नहीं अपितु सर्वत्र है। वह निराकार और सर्वव्यापक है तथा ससार के कण कण में निवास करता है।
ईश्वर आनन्दस्वरूप है यह सत्य सिद्धान्त भी केवल वेदों में ही पाया जाता है। ईश्वर सद्कर्मों को करने वालों को सुख और दुष्कर्म, अशुभ व पाप कर्म करने वालों को दुःख, पीड़ा तथा दण्ड देता है। यह सिद्धान्त सत्य रूप में वेद से इतर किसी मत मंध नहीं पाया जाता। ईश्वर का सत्यस्वरूप और उसकी उपासना की सत्य विधि तो केवल वेद व ऋषि के ग्रन्थों में मिलती है। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर व आत्मा का यथार्थ ज्ञान तथा ईश्वर की उपासना विधि को अत्यन्त सरल शब्दों में प्रस्तुत किया है। ईष्र्यालु व अज्ञानी लोग उनकी बातों को स्वीकार करने के लिये तत्पर नहीं है। हम अध्ययन करने पर पाते हैं कि सभी मतों में अज्ञान है व उनके आचार्यों के अपने अपने स्वार्थ हैं। अनेक मत व उनके आचार्य अशिक्षित व भोलेभाले लोगों का धर्मान्तर करते हैं। यह अनुचित कार्य है। हमारी सरकारें भी इस अनुचित कार्य पर प्रतिबन्ध नहीं लगाती और मूक दर्शक बनी रहती हैं। देश के गृह मन्त्री श्री अमित शाह जी से अपेक्षा है कि वह अवकाश मिलने पर इस विषय पर विचार एवं कार्यवाही करेंगे। एक प्रश्न है कि क्या धर्म व मत में विज्ञान नहीं होना चाहिये? इसका उत्तर यह है कि धर्म व मत में ज्ञान व विज्ञान दोनों होने चाहिये। मनुष्य को चाहिये कि वह सभी मतों की मान्यताओं एवं जीवन शैलियों का अध्ययन कर सत्य मत का ग्रहण और असत्य मत का त्याग करे। वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तकें हैं। वेदों में ज्ञान भी है और विज्ञान भी। अनेक विद्वानों ने वेदों में निहित विज्ञान पर पुस्तकें लिखी हैं। महाभारत व रामायण युग में ज्ञान व विज्ञान उन्नति पर थे और उनके आविष्कारक हमारे वेदों के ज्ञानी ऋषि हुआ करते थे। आज के विज्ञान ने मनुष्य को अशान्त, दुःखी, पर्यावरण प्रदुषण से त्रस्त, रोगी, छल व कपट से युक्त जीवन दिया है जबकि हमारे ऋषियों ने इन सबको नियन्त्रित किया था। यह मौलिक अन्तर प्राचीन व अर्वाचीन ज्ञान व विज्ञान में प्रतीत होता है। हमें विज्ञान की अवहेलना नहीं करनी है परन्तु यह भी ध्यान रखना है कि हमारा पर्यावरण शुद्ध व पवित्र रहे, रोग न हों, मनुष्य स्वस्थ, सुखी व दीघ्रजीवी हो, तनावों से मुक्त सुख व शान्ति से युक्त उसका जीवन हो। यह लक्ष्य वर्तमान विज्ञान मनुष्य को प्रदान कर पायेगा, इसमें सन्देह होता है। अतः वेद और ऋषियों का मार्ग ही कल्याण का मार्ग है। पूरे विश्व को उसी की छत्रछाया में आना चाहिये।
जिस प्रकार हमसे बुरा व्यवहार करने वाले हमारे शत्रु होते हैं, चोर व डाकू भी शत्रु होते हैं उसी प्रकार से असत्य, अज्ञान व अन्धविश्वास सहित मिथ्या सामाजिक मान्यतायें एवं परम्परायें भी मनुष्य की शत्रु ही होती हैं। मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु कोई है तो वह अज्ञान होता है। ज्ञानी मनुष्य अपने अन्य सभी शत्रुओं को अपने अनुकूल कर सकता है। ज्ञान से बड़ा संसार में कोई सुख नहीं होता। यह वैदिक मान्यता है। आजकल इसके विपरीत स्कूली शिक्षा में दीक्षित लोग धन व सम्पत्ति को मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता अनुभव करते हैं। वह अच्छे व बुरे सभी प्रकार से धन व सम्पत्ति का संग्रह करते हैं। देश में बड़े-बड़े प्रभावशाली लोग अधिक भ्रष्टाचार करते हैं जिनका प्रभाव देश के अन्य लोगों पर भी होता है। अधिकांश लोग तो यह मानते हैं कि लोभ, काम, क्रोध, द्वेष सहित भ्रष्टाचार आदि ऐसी प्रवृत्तियां हैं जो कभी समाप्त नहीं की जा सकती। यह बात एक सीमा तक ठीक हो सकती है परन्तु ज्ञान के प्रचार द्वारा लोभ व मनुष्य की बुरी प्रवृत्तियों को बदला जा सकता है। इस कार्य को वैदिक ज्ञान विज्ञान के प्रचार से किया जा सकता है। यदि सच्चे, अच्छे, योग्य, ज्ञानी, समर्पित, स्वार्थशून्य, देशभक्त आचार्य, शिक्षक व शिष्य होंगे तो वह शिष्य निश्चय ही सद्गुणों से युक्त तथा दुर्गुणों से न्यून व मुक्त होंगे। प्राचीन काल में तो हमारे ऋषि, मुनि, मनीषी, योगी, अनेक विषयों का ज्ञान रखने वाले तथा तपस्वी लोग ही गुरुकुलों के आचार्य हुआ करते थे। गुरुकुलों में पढ़ने वाले शिष्य अपने आचार्यों की प्रतिकृति हुआ करते थे। ऋषि दयानन्द के गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती थे। ऋषि दयानन्द ने उनसे शिक्षा प्राप्त की। इससे वह अधिकांश गुणों में अपने गुरु के ही समान थे। अतः शिक्षा के ढांचे व प्रक्रिया को बदला जाना चाहिये। गुरुकुल प्रणाली व आधुनिक शिक्षा की अच्छी बातों का समन्वय कर विद्यार्थियों को ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति के स्वरूप सहित जीवात्मा के जन्म-मरण का उद्देश्य, जीवात्मा का लक्ष्य, लक्ष्य की प्राप्ति के साधन व उपाय, सद्ज्ञान की प्राप्ति और ज्ञानानुकूल आचरण से लाभ सहित इसके विपरीत आचरण व व्यवहार से होने वाली हानियों का भी अध्ययन कराया जाना चाहिये। इन सब बातों का ज्ञान बाल, किशोर व युवा पीढ़ी को दिया जाना चाहिये। सभी आध्यात्मिक विषयों का अध्ययन भी बच्चों को बालकाल से ही कराया जाना चाहिये। ऐसा करने से नई पीढ़ी को लोभ, पाप, अन्याय, अत्याचार, स्वार्थ, अनावश्यक सुखों की कामना आदि से मुक्त कराया जा सकता है।
संसार से अविद्या एवं अज्ञान को हटाना व दूर करना आवश्यक है। इसके लिये सभी विद्वानों को मिलकर व व्यक्तिगत रूप से भी समाज में प्रचलित व विद्यमान अज्ञान, अन्धविश्वासों, पाखण्डों, मिथ्या व दूषित सामाजिक परम्पराओं, जन्मना जातिवाद, देश विरोधी विचारधाराओं का खण्डन करना आवश्यक है। यदि ऐसा नहीं किया जायेगा तो अज्ञान व अविद्या का अस्तित्व समाप्त न होने से समाज में भेदभाव, निर्धनों तथा दुर्बलों का उत्पीड़न, उनका शोषण, उन पर अन्याय व अत्याचार, हिंसा, लूट, भ्रष्टाचार, ईश्वर व आत्मा के प्रति विमुखता, चरित्र की दुर्बलता, नैतिक मूल्यों का ह्रास आदि समस्यायें बनी रहेंगी जो किसी भी समाज व राष्ट्र के लिये उचित नहीं हैं। महर्षि दयानन्द ने अज्ञान व अविद्या को दूर करने के महत्व को समझा था। इसी कारण उन्होंने सत्य मान्तयाओं से युक्त सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि तथा वेदभाष्य आदि ग्रन्थों की रचना कर देश व विश्व के लोगों को सत्य व ज्ञान से अवगत कराया। उन्होंने देश भर में घूम कर असत्य व अविद्या के विरुद्ध प्रचार किया। सभी मतों के विद्वानों से शास्त्रार्थ किये और सत्य को प्रतिष्ठित कराया। उन्होंने सत्य की प्रतिष्ठा व स्थापना के लिये मत-मतान्तरों की अवैदिक व असत्य अविद्यायुक्त मान्यताओं का प्रमाण, तर्क व युक्तियों के साथ खण्डन भी किया। इसी का परिणाम हुआ कि देश में अन्धविश्वासों व दूषित सामाजिक परम्पराओं में सुधार हुआ। वर्तमान में भी जड़ मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष से मुक्ति सहित एक सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान ईश्वर की वैदिक विधि से उपासना, वैदिक अग्निहोत्र यज्ञों का प्रचार व उनका व्यवहार समय की आवश्यकतायें हैं। ऐसा करने से देश के सभी मनुष्यों को लाभ होगा। वेद, ईश्वर तथा ऋषि दयानन्द के अनुसार सभी मनुष्यों का धर्म एक है। वह धर्म है सत्य पर आधारित सबका हित करने वाले धार्मिक व सामाजिक विचार, मान्यतायें, सत्य सिद्धान्त व परम्परायें। वेद विश्व के सभी मानवों को असीम सुख प्रदान करने का एकमात्र साधन व उपाय है। वेद स्वतः प्रमाण ग्रन्थ है। वेद की कोई बात भी ज्ञान विज्ञान व सृष्टिक्रम के विरुद्ध नहीं है और न ही यह विश्व के किसी एक मनुष्य के लिये भी अहितकर ही है। अतः सभी मनुष्यों को वेद की शरण में आना चाहिये। वेद प्रचार द्वारा अविद्या दूर करने का कार्य भी बिना असत्य व अविद्या का खण्डन किये प्राप्त नहीं हो सकता। अतः सब विद्वानों व निष्पक्ष सत्पुरुषों को असत्य व अन्धविश्वासों का खण्डन करना चाहिये जिससे समाज, देश व विश्व में शान्ति प्रसारित हो सके। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य