1947 में जब देश बंटवारे की तरफ बढ़ रहा था, तो उस समय देश के पांच बड़े नेताओं की मानसिकता कुछ इस प्रकार थी-
-जिन्नाह तपेदिक से बीमार थे।
-गांधी ‘बाबा’ लाचार थे।
-नेहरू सत्ता के लिए तैयार थे।
-सबसे अधिक चिंतित सरदार थे।
-माउंटबेटन सबसे मक्कार थे।
सचमुच देश की सारी राजनीति उस समय इन पांचों लोगों के आसपास घूम रही थी। सत्ता की चाबी के लिए झपटमारी हो रही थी। माउंटबेटन जो कि 1858 में भारत आकर दिल्ली के लालकिले पर यूनियन जैक फहराकर गयीं महारानी विक्टोरिया के प्रपौत्र थे, भारत से ‘यूनियन जैक’ को उतारने के लिए आये थे। सचमुच, उनके लिए यह स्थिति बड़ी ही दर्दनाक थी इसलिए वह ‘यूनियन जैक’ को उतारने से पहले हर प्रकार से भारत को विखंडन और साम्प्रदायिकता की आग में झोंकने की मक्कारियों में व्यस्त थे। उन्होंने देश में आते ही सत्ता की चाबी हवा में उछाल दी। जिन्नाह और नेहरू में इस चाबी के लिए झपटमारी आरंभ हो गयी। गांधी को पता था कि वे थोड़ी देर के लिए ‘बाबा’ के नाते कहीं पंच तो बनाये जा सकते हैं परंतु उन्हें प्रमुख की हैसियत कभी नही दी जा सकती। वह ‘व्यर्थपिता’ थे, क्योंकि उनका अपनी संतान पर नियंत्रण नही था और ऐसी लाचारी की स्थिति में कहीं अपनी उपयोगिता बनाये रखने के लिए वह नेहरू का पक्ष लेकर कहीं-कहीं अपनी स्थिति को सम्मानजनक रूप से बचाने में व्यस्त थे। नेहरू जिन पर कि मूलरूप में मुस्लिम होने के तथ्यात्मक आरोप भी लगे हैं, हिंदू भारत और मुस्लिम भारत अर्थात हिंदुस्तान और पाकिस्तान में से हिंदुस्तान की हुकूमत को पाने के सपने संजोने लगे। उधर जिन्नाह को पता था कि वह एक अलग देश के मालिक तो बन सकते हैं, परंतु हिंदू बहुल भारत के मालिक अब नही बन पाएंगे, इसलिए वह भी पाकिस्तान से कम पर समझौता करने को तैयार नही थे। जिन्ना पाकिस्तान चाह रहा था तो नेहरू हिंदुस्तान चाह रहा था। दोनों का उतावलापन बढ़ रहा था। इसी समय एक व्यक्ति ऐसा भी था जो देश के भविष्य का फैसला करने वाली इस ज्यूरी में सर्वाधिक दुखी था और वह निस्संदेह सरदार पटेल थे। पटेल जिन्नाह के मानसिक रोग का गांधी के आत्मिक रोग (बाबापन) का नेहरू के सत्ता के रोग का और माउंटबेटन के कुचक्रों के रोग का उपचार ढूंढ रहे थे और उपचार ढूंढते ढूंढ़ते उन्होंने जब चारों को समझ लिया कि ये देश का बंटवारा करने पर अब मुहर लगाकर ही मानेंगे तो उन्होंने सारे रोगों का एक उपचार बताया कि देश का बंटवारा यदि साम्प्रदायिक आधार पर किया ही जा रहा है तो बनने वाले पाकिस्तान की ओर सारी हिंदू आबादी और शेष रहे भारत की ओर से सारी मुस्लिम आबादी का शांतिपूर्वक तबादला कर लिया जाए। सरदार भविष्य दृष्टा थे और वह मुस्लिम साम्प्रदायिकता को देश से सदा सदा के लिए विदा कर देना चाहते थे ताकि भविष्य का भारत सुरक्षित रह सके। उनका यह भी मानना था कि पाकिस्तान को भारत का उतना ही टुकड़ा दिया जाए जितना अनुपात भारत की जनसंख्या में मुस्लिमों का है।
दुर्भाग्य रहा इस देश का कि देश के भविष्य का फैसला करने वाली ज्यूरी में सरदार पटेल की आवाज हल्की पड़ गयी और वह बीमारी, लाचारी, मक्कारी और गद्दारी की चाण्डाल चौकड़ी की भेंट चढ़ गयी। इस बीमारी, लाचारी, मक्कारी और गद्दारी के छल और कपट का सर्वाधिक घातक परिणाम भुगतना पड़ा पाकिस्तान में रह गये हिंदुओं को। यदि सरदार पटेल के व्यावहारिक चिंतन को अपना लिया गया होता तो आज पाकिस्तान में हिंदुओं के साथ जो अत्याचार हो रहे हैं वो ना होते। हमने गांधी की अहिंसा पर ढाई करोड़ हिंदुओं को पाकिस्तानी भेड़ियों के सामने हिंसा के लिए मेमने की भांति डाल दिया और वहां से आंखें बंद करके भाग लिये। आज तक किसी ने गुणाभाग नही लगाया कि पाकिस्तान के करोड़ों हिंदुओं को भेड़ियों के लिए लावारिस छोड़कर हिंदुस्तान के सत्ताधारियों को लालकिले की प्राचीर पर झण्डा चढ़ाने का अधिकार है, या नही। आजादी के बाद जब पहला झण्डा लालकिले की प्राचीर पर चढ़ाया गया था तो उस समय उस झण्डे के दांऐ-बांए पाकिस्तानी हिंदुओं की चीखें सुनायी पड़ रही थीं, परंतु सत्ता के लिए लालायित हिंदुस्तान के बेताज बादशाह बने नेहरू के लिए जिन ढोल नगाड़ों का प्रबंध उस समय किया गया था उनके शोर शराबों में पाकिस्तानी हिंदुओं की चीख पुकार कहीं दबकर रह गयी। तब से अब तक हम ढोल नगाड़े ही बजा रहे हैं और पाकिस्तानी हिंदू अपना धर्म बचाने के लिए अपना बलिदान देते जा रहे हैं, जैसे उनका कोई हिमायती ना हो, कोई सुनने वाला ना हो।
नेहरू ने थपकी मारकर एक नया ‘कायदे आजम’ कश्मीर में वहां के सरदार महाराजा हरिसिंह के खिलाफ शेख अब्दुल्ला के रूप में खड़ा किया। नेहरू गांधी ने जिन जिनको ‘कायदे आजम’ बनाया वो अंत में ‘फायदे आजम’ सिद्घ हुए। फायदा ले लेकर भागते रहे और मौज लूटते रहे और हमारे महान भारत निर्माता देश केा तोड़ तोड़कर ‘फायदे आजम’ को देते रहे और बड़े गर्व से ‘वायदे आजम’ बन गये। कहते रहे… ‘जो वायदा किया वो निभाना पड़ेगा’।
-कश्मीर को अलग निशान, अलग प्रधान, अलग विधान देने का वायदा किया गया, फायदा मिला शेख अब्दुल्ला को।
-कश्मीर में पाकिस्तान से आए हिंदुओं को वोट का अधिकार न देने का वायदा किया गया, फायदा मिला शेख अब्दुल्ला को।
-कश्मीर को मुस्लिम बहुल प्रांत मानकर उसका मुखिया मुस्लिम बनाने का वायदा किया गया फायदा मिला शेख अब्दुल्ला को।
-कभी भी पाकिस्तान से कोई मुस्लिम आकर कश्मीर में बस सकता है। यह वायदा किया गया और फायदा मिला शेख अब्दुल्ला को।
-धारा 370 लागू करके कश्मीर की विशेष स्थिति बनाने का वायदा किया गया और फायदा मिला शेख अब्दुल्ला को।
हमारे ‘वायदे आजम’ वायदे निभाते रहे और वो वायदे के फायदे उठाते रहे। घाटा किसे रहा-सरदार पटेल को, राजा हरिसिंह को और देश की आत्मा को। चीख किसकी निकली-देश की आत्मा की-ये चीख किसने सुनी-पटेल ने सुनी, राजा हरिसिंह ने सुनी, श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने सुनी, हिंदू महासभा ने सुनी, आर.एस.एस ने सुनी और दूसरे राष्ट्रवादी संगठनों ने सुनी। जिन्होंने नही सुनी वो अंधे थे, बहरे थे, गांडीव फेंके हुए अर्जुन थे, जिन्हें वृहन्नला कहा जाना उचित होगा। बृहन्नलाओं का वंदन गान गाकर भारत को कैसे महान बनाया जा सकता है? समझ नही आता।
एक दार्शनिक ने कहा है कि परमात्मा ने मनुष्य को बुद्घि इसलिए दी है कि वह अपने गलत कार्यों को भी उचित सिद्घ कर सके।
आज तक हमारे नेतृत्व ने इसी गलती को दोहराया है। वायदे, कायदे और फायदे की चक्की में पिसते लोगों को देखकर लगता है कि इस देश में अब हिंदू होना ही पाप हो गया है। पाकिस्तान से आये हिंदुओं की व्यथा सुनकर यह पीड़ा और बढ़ गयी। सचमुच पाक से आए 479 हिंदुओं को हमारे सहारे की आवश्यकता है। उन्हें भारतीय नागरिकों की सी सारी सुविधाएं तत्काल मिलनी चाहिए। हर जागरूक नागरिक आज सरदार पटेल बन जाए, महाराजा हरिसिंह बन जाए और ढोल नगाड़ों को बंद करके अपने भाईयों की पुकार को सुने। पाकिस्तान को लक्ष्मण के इन शब्दों को बताये कि–
न च संकुचित पन्था ये न बाली हतो गत:
समये तिष्ठ सुग्रीव या बाली पथमन्वगा।।
अर्थात हे सुग्रीव! राम के तरकश में अभी भी वह बाण मौजूद हैं जिनसे बाली मारा गया था। वह रास्ता अभी बंद नही हुआ है। अत: तेरे लिए उचित यही है कि तू अपनी प्रतिज्ञा का पालन कर और बाली के रास्ते पर मत चल।
आज पाकिस्तान के सुग्रीव (जिन्नाह) को धर्मनिरपेक्ष पाकिस्तान में हिंदुओं के हितों की पूरी सुरक्षा करने का वायदा याद दिलाने की आवश्यकता है। जो लोग जिन्नाह की मजार पर मत्था टेक कर उसे धर्मनिरपेक्षता का मसीहा करार दे आए उनसे यह काम नही हो पाएगा। इसे कोई ‘लक्ष्मण’ ही कर सकता है। क्योंकि लक्ष्मण ये जानता है कि जीवन अपनी सारी शक्ति अतीत से प्राप्त नही करता। हर शिशु के जन्म के साथ प्रकृति सारी पिछली परंपराएं देती हैं, सिर्फ उनको छोड़कर जो मनुष्य ने अपने ऊपर लादी हैं। अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता हुआ बच्चा क्या किन्हीं परंपराओं के अनुसार सांस लेता सोचता बोलता या अंगों को चलाता है? हमें इसकी खोज करनी चाहिए कि जिन परंपराओं के लिए हम विलाप करते हैं, वे कहीं जड़ मस्तिष्कों की बैसाखियां अथवा कमजोर पड़ गयी इच्छा शक्तियां तो नही हैं और यदि ऐसा है तो हमें परंपराओं को धूनी लगाकर टिकाने का काम बंद कर देना चाहिए। अच्छा हो कि हम अपने अपने प्रेरणादायक जीवन छोड़ जाए, जो भावी युगों को हमारे अपूर्ण स्वप्नों को अर्धज्ञान और अर्ध देवताओं को तथा हमारे मन तथा शरीर के विकारों को मिटाकर उच्चतर लक्ष्यों की ओर अग्रसर होने की शक्ति प्रदान करें। हमारा मुख्य संकट यह नही है कि अतीत की उपलब्धियां मिटती जा रही हैं हमारा असली संकट है प्रचार, जिसके पीछे न सदभावना और न श्रद्घा है। क्या भारत सरकार पाक विस्थापित हिंदुओं से सदभावना और श्रद्घा नही रखती है?
-राकेश कुमार आर्य