भाजपा को रियायत नहीं देना चाहती नीतीश लॉबी
बीरेन्द्र सेंगर
एनडीए में बहुचर्चित नरेंद्र मोदी के विवादित मुद्दे पर जदयू की आंतरिक राजनीति में भी सरगर्मी तेज हो गई है। शनिवार और रविवार को पार्टी कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठक यहां होने जा रही है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सिपहसालारों ने तैयारी शुरू कर दी है कि पार्टी की इस बैठक में प्रधानमंत्री पद के मुद्दे पर एक, दो टूक राय जताता हुआ राजनीतिक प्रस्ताव पास कराया जाए। हालांकि, इस रणनीति को लेकर पार्टी में आम सहमति की स्थिति नहीं बन पा रही है। क्योंकि, पार्टी के प्रमुख शरद यादव चाहते हैं कि इस मुद्दे पर पार्टी अपना निर्णायक दबाव न बढ़ाए। वरना, एनडीए कमजोर पड़ जाएगा। इसका राजनीतिक फायदा कांग्रेस नेतृत्व को ही मिलेगा। ऐसे में, कोई ऐसा कदम नहीं उठाया जाना चाहिए, जिससे कि विपक्ष की धार और कमजोर पड़ जाए।
पिछले एक पखवाड़े से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के लिए अपनी दावेदारी मजबूत करते घूम रहे हैं। वे देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग मंचों से राजनीतिक ‘प्रवचन’ दे रहे हैं। कहीं पर वे अपनी राजनीतिक लाइन का रोडमैप पेश करते हैं, तो कहीं बता देते हैं कि कैसे वे अपने नए ‘विजन’ से देश का आर्थिक काया पलट कर सकते हैं? पिछले दिनों दिल्ली में उन्होंने भारतीय उद्योग परिसंघ की महिला शाखा में कहा था कि पब्लिक, प्राइवेट व स्टेट सेक्टर संयुक्त रूप से औद्योगिक विकास के लिए जुटेंगे, तभी देश के आर्थिक हालात बदल सकते हैं। इसके लिए उन्होंने कई तरह के फॉर्मूले भी दे डाले हैं।
उनका जोर खास तौर पर इस बात पर रहा है कि पिछले एक दशक में उन्होंने गुजरात में विकास का जो मॉडल तैयार किया है, उस प्रयोग का दायरा बढ़ाया जा सकता है। क्योंकि, इस फॉर्मूले के जरिए उनके शासन में गुजरात तेजी से आगे बढ़ा है। इसे केंद्रीय योजना आयोग के साथ विदेशी एजेंसियों ने भी स्वीकार कर लिया है। ऐसे में, ‘गुजरात मॉडल’ देश का ‘भाग्य-विधाता’ बन सकता है। वे यह बताने की कोशिश भी कर डालते हैं कि कैसे उनकी सरकार ने तमाम बाधाओं की चुनौती पार करके विकास की नैया को आगे बढ़ाया है? एक तरफ मोदी, ‘गुजरात मॉडल’ के बड़े पैरवीकार बने हैं, तो दूसरी तरफ मोदी के आलोचक ‘गुजरात मॉडल’ के औचित्य पर ही सवाल लगाते हैं। जदयू के राष्ट्रीय महासचिव शिवानंद तिवारी, खांटी समाजवादी वैचारिक पृष्ठभूमि के नेता हैं। उनका मानना है कि मोदी सरकार का ‘गुजरात मॉडल’ पूरे देश के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि, इस विकास शैली से पिछड़े प्रदेश अपना भविष्य नहीं संवार सकते। सच्चाई तो यह है कि नीतीश सरकार के कार्यकाल में बिहार के विकास का मॉडल ज्यादा व्यवहारिक बन पड़ा है। गुजरात के मुकाबले बिहार का विकास समावेशी प्रकृति का है। आर्थिक विकास के बावजूद कई मानवीय पहलुओं पर गुजरात काफी फिसड्डी है। वहां गरीब बच्चों में कुपोषण ज्यादा है। लैंगिक असंतुलन की खाई भी पट नहीं पा रही है। जबकि, बिहार जैसे राज्य में इन पहलुओं पर काफी बेहतरीन तस्वीर बन रही है। ऐसे में, विकास का ‘बिहार मॉडल’ किसी से कम नहीं कहा जा सकता।
दरअसल, जदयू की राजनीति में ‘बाबा’ नाम से लोकप्रिय शिवानंद, नीतीश कुमार के ज्यादा करीबी माने जाते हैं। वे मोदी के मुद्दे पर महीनों से मुखर रहे हैं। उनका मानना है कि एनडीए में कोई ऐसा व्यक्ति ही प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जा सकता है, जिसकी छवि सबको साथ लेकर चलने वाली हो। 2002 में मोदी सरकार के दौर में पूरे राज्य में भीषण सांप्रदायिक दंगे हुए थे। इनमें 1000 से ज्यादा लोग मारे गए थे। गोधरा कांड के बाद पूरे राज्य में सांप्रदायिक आग भड़की थी। इसमें मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी की भूमिका खासी विवादित रही है। इस दंगे से ही उनकी छवि खांटी हिंदुत्ववादी नेता की बनी। उनके लोगों ने एक समुदाय के खिलाफ घृणा की राजनीति को बढ़ाकर एक नया सामाजिक ध्रुवीकरण तैयार कर लिया था। इसी के बूते पर वे लगातार तीन विधानसभा चुनाव भारी बहुमत से जिता चुके हैं। इसके चलते भाजपा के अंदर मोदी का कद बढ़ गया है।
मोदी तीसरी बार चुनाव जीतने के बाद, दिल्ली की राजनीति के लिए महत्वाकांक्षी हो गए हैं। संघ परिवार की एक लॉबी उन्हें एनडीए का ‘पीएम इन वेटिंग’ बनवाने के लिए लगातार दबाव बढ़ा रही है। जबकि, भाजपा नेतृत्व की घोषित नीति यही है कि लोकसभा चुनाव के बाद ही पीएम उम्मीदवार तय किया जाएगा। लेकिन, मोदी की लॉबी लगातार दबाव बढ़ा रही है। जबकि, एनडीए के जदयू जैसे घटक दंगाई छवि वाले मोदी को लेकर रार ठाने हैं। पार्टी अध्यक्ष शरद यादव ने कह दिया है कि वे लोग किसी व्यक्ति विशेष के खिलाफ नहीं हैं। लेकिन, धर्म-निरपेक्षता की अपनी घोषित राजनीति से किसी भी कीमत पर समझौता नहीं किया जा सकता। यह बात भाजपा नेतृत्व को बता दी गई है।
क्या पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में मोदी को लेकर कोई औपचारिक चर्चा की जाएगी? इस सवाल पर जदयू अध्यक्ष ने कहा है कि इसका जवाब तो बैठक के दौरान ही मिल पाएगा। भला, वे पहले से ही इस बारे में कैसे कुछ बता सकते हैं? क्योंकि, उनकी पार्टी में खुले तौर पर बहस कराने का रिवाज है। यदि कुछ सदस्य किसी मुद्दे पर बहस कराना चाहेंगे, तो होगी। जदयू के सूत्रों के अनुसार, नीतीश लॉबी की तैयारी है कि परिषद की बैठक में एक राजनीतिक प्रस्ताव लाया जाए। जिसमें इस बात का स्पष्ट जिक्र हो कि एनडीए में किसी सांप्रदायिक छवि के व्यक्ति को ‘पीएम इन वेटिंग’ प्रोजेक्ट किया जाए, तो पार्टी अपने सिद्धांतों से समझौता न करे। दूसरे शब्दों में कहें, तो ऐसे किसी प्रस्ताव से तय कर दिया जाएगा कि यदि भाजपा ने मोदी को उम्मीदवार बनाया, तो जदयू एनडीए से अलग हो जाएगा।
हालांकि, शरद यादव सहित पार्टी के कई नेता चाहते हैं कि इस विवादित मुद्दे पर फटाफट फैसला लेने की जल्दबाजी न की जाए। यदि दो-चार महीने की मोहलत भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को दी दी जाए, तो संभव है कि पार्टी का नेतृत्व खुद ही कोई उपयुक्त रास्ता निकाल ले। ऐसा होने पर एनडीए की एकता के लिए भी कोई खतरा नहीं पैदा होगा। जदयू के एक राष्ट्रीय महासचिव ने अनौपचारिक बातचीत में डीएलए से कहा कि मोदी के मुद्दे पर भाजपा से हाथ झटक लेना, तो आसान है। लेकिन, सवाल यह है कि भाजपा से अलग होने के बाद पार्टी, राष्ट्रीय राजनीति में किसके साथ जुड़ेगी? कुछ लोग इस संदर्भ में यूपीए के साथ जुड़ने को एक विकल्प मान रहे हैं। लेकिन, इसको लेकर भी भारी ऊहापोह है। यह बहस शुरू हुई है कि भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मारक मुद्दों से घिरी यूपीए की राजनीति से जुड़ना कहां की अक्लमंदी होगी? क्योंकि, जनता में इतना गुस्सा है कि वह इस बार यूपीए को सत्ता तक नहीं पहुंचने देगी।
एनडीए का एक और घटक है, अकाली दल। मोदी के मुद्दे पर इस पार्टी का स्टैंड अभी बहुत साफ नहीं है। इस पार्टी के प्रमुख प्रकाश सिंह बादल कह चुके हैं कि अच्छा यही रहेगा कि एनडीए के घटक मिलकर ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम आपसी रजामंदी से तय कर लें। यूं तो एनडीए में भाजपा सबसे बड़ा घटक है। ऐसे में, पीएम उम्मीदवार तो इसी पार्टी से बनेगा। लेकिन, अच्छा रहेगा कि इस महत्वपूर्ण फैसले में जदयू और उनके दल की भी राय ले ली जाए। अकाली दल के सांसद नरेश गुजराल का कहना है कि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के मामले में जल्दी ही फैसला किया जाना चाहिए। ताकि, यूपीए के लोग एनडीए के बारे में ज्यादा राजनीतिक अफवाहें न फैला पाएं।
शिवसेना, भाजपा का सबसे पुराना राजनीतिक सहयोगी रहा है। शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे का पिछले दिनों निधन हो चुका है। अब पार्टी की कमान उनके बेटे उद्धव ठाकरे संभाल रहे हैं। मोदी विवाद के मुद्दे पर इन दिनों वे भी मुखर होने लगे हैं। उन्होंने खुलासा किया है कि शिवसेना के प्रमुख रहे बाला साहब ने पीएम उम्मीदवारी के लिए भाजपा में सबसे उपयुक्त नाम सुषमा स्वराज का बहुत सोच-समझकर बताया था। सुषमा, लोकसभा में विपक्ष की नेता हैं। उद्धव का दावा है कि उस दौर तक मोदी, पीएम पद की दावेदारी में कहीं नहीं थे। ऐसे में, शिवसेना प्रमुख ने सुषमा स्वराज का नाम आगे बढ़ाया था। सुषमा स्वराज ने बाला साहब से मुंबई आकर मुलाकात भी की थी। उद्धव ठाकरे की बयानबाजी से भी इस विवाद में एक नया आयाम जुड़ा है।
भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने पिछले दिनों पार्टी पदाधिकारियों की बैठक में हिदायत दी थी कि ‘पीएम इन वेटिंग’ के सवाल पर पार्टी का कोई नेता बयानबाजी न करे। लेकिन, इस हिदायत के बावजूद शत्रुघ्न सिन्हा और सीपी ठाकुर जैसे नेता बयानबाजी से नहीं हिचक रहे। पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सीपी ठाकुर, मोदी के मुद्दे पर यही कहते हैं कि व्यक्तिगत रूप से उनका मानना है कि मोदी के नाम का ऐलान जल्द से जल्द हो जाए। क्योंकि, कोई लड़ाई बगैर ‘कमांडर इन चीफ’ के कैसे जीती जा सकती है? उनका सुझाव है कि मोदी के नाम पर एक-दो घटक विरोध करते हों, तो उनकी परवाह नहीं की जानी चाहिए। क्योंकि, मोदी के फैसले के बाद जब राजनीतिक हवा पक्ष में बहेगी, तो तमाम और घटक हाथ मिलाने के लिए आगे आ जाएंगे। जदयू के शिवानंद तिवारी जैसे नेता, सीपी ठाकुर जैसे नेताओं की बयानबाजी से खासे नाराज हैं।
अनौपचारिक बातचीत में कहते हैं कि जरूरत इस बात की है कि उनकी पार्टी सांप्रदायिक राजनीति के अवसरवाद का लाभ उठाने का मंसूबा बनाने वालों को पाठ पढ़ा दे। समझा जाता है कि जदयू की दिल्ली में होने जा रही बैठक मोदी के मुद्दे पर काफी महत्वपूर्ण साबित हो सकती है।