जब सुभाष की लोकप्रियता से चिढे गांधी जी ने डाल दी थी नेहरू व सुभाष के बीच में फूट
बात 1928 की है। जब देश की जनता पूर्ण स्वाधीनता के लिए अंगड़ाई ले रही थी पर पूर्ण स्वाधीनता के संकल्प को कांग्रेस का संकल्प बनाने में गांधीजी और उनके जैसे अन्य नरमपंथी लोग रोड़े अटका रहे थे । वह नहीं चाहते थे कि देश पूर्ण स्वाधीनता का संकल्प पारित करे। उन परिस्थितियों के बारे में इंद्र विद्यावाचस्पति लिखते हैं – ” 1928 के अंत में देश भर में जोश का तूफान सा उमड़ रहा था। लोग न केवल अंग्रेजी सरकार से असंतुष्ट थे ,अपितु अपने उन नेताओं से भी असंतुष्ट होते जा रहे थे जो उन्हें धीरे-धीरे चलने को कहते थे । इस मानसिक दशा का पहला परिणाम यह हुआ कि राजनीति के चित्रपट से मॉडरेट या लिबरल दल (अर्थात गांधी जी की कॉन्ग्रेस ) का निशान लगभग मिट गया। दूसरा परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस के अंदर एक ऐसा दल प्रकट हो गया जो औपनिवेशिक स्वराज्य को अपना लक्ष्य मानने को तैयार नहीं था ।( वस्तुतः यह स्थिति गांधीजी की नीतियों के विरुद्ध सीधे विद्रोही भावना को प्रकट करती है ) महात्मा गांधी पंडित मोतीलाल नेहरू तथा अन्य बुजुर्ग नेता औपनिवेशिक स्वराज्य से संतुष्ट होने को उद्यतथे । परंतु नवयुवक दल चाहता था कि कांग्रेस का उद्देश्य भारत के लिए पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करना माना जाए। इस दल के नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू तथा श्रीयुत सुभाष चंद्र बोस थे । ”
इसी समय कांग्रेस ने अपना अधिवेशन कलकत्ता में रखा। कोलकाता में पंडित मोतीलाल नेहरू को कांग्रेस का सभापति नियुक्त किया गया था। सुभाष चंद्र बोस ने अपने नेता का स्वागत 16 घोड़ों की गाड़ी में बैठाकर एक गौरवमई जुलूस निकालकर किया। ऐसी भव्यता को देखकर राजा महाराजाओं का गर्व भी ढीला हो गया था । सुभाष की एक ही इच्छा थी कि पूर्ण स्वाधीनता प्राप्ति का प्रस्ताव कांग्रेस कोलकाता की भूमि से ही पारित करे । गांधीजी इस समय कांग्रेस से दूरी बना कर बैठे थे। उन्हें कांग्रेस के भीतर अपने विचारों से हटकर किसी परिवर्तन को स्वीकार करना तनिक भी स्वीकार नहीं था। पंडित मोतीलाल नेहरु ने उन्हें एक ‘भक्त की पुकार ‘ जैसे शब्दों में बुलाया तो ‘कांग्रेस का भगवान’ गांधी सम्मेलन में प्रकट हो गया।
वास्तव में गांधी जी यहीं से सुभाष चंद्र बोस के कट्टर विरोधी हो गए थे । वह नहीं चाहते थे कि सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में देश आगे बढ़े और सुभाष देश के लोगों की पूर्ण स्वाधीनता की भावना के प्रतीक बनें । इसलिए गांधीजी ने नेहरू और सुभाष के बीच फूट डालने की रणनीति पर कार्य करना आरंभ किया और इसी अधिवेशन में पंडित जवाहरलाल नेहरू को अपने पक्ष में कर लिया । यद्यपि कांग्रेस के अधिवेशन में उपस्थित लोगों में सुभाष बाबू के समर्थकों की संख्या का बहुमत था । पर गांधी जी की हठ के सामने सबकी भावनाओं पर तुषारापात हो गया। इस प्रकार गांधीजी की हठ की एक बार फिर से जीत हो गई। गांधीजी इस विषय में सौभाग्यशाली थे कि सबका विरोध होने पर भी अंतिम विजय उनकी हठ की होती थी ।
नियति कितनी क्रूरता से देश को विभाजन की ओर ले जा रही थी ? महात्मा गांधी ने सुभाष बाबू को अलग-थलग करके परास्त कर दिया और उस समय उन्हें पता नहीं था कि तूने भारत के भाग्य के साथ और उसके भविष्य साथ कितना क्रूर उपहास कर डाला है ?
नेताजी सुभाष चंद्र बोस का प्रस्ताव गिर तो गया पर अब इस प्रस्ताव ने पूर्ण स्वाधीनता संबंधी प्रस्ताव और गांधीजी की हाथ के बीच की दूरी को केवल 1 वर्ष तक समेट कर रख दिया। इससे देश के युवाओं को गांधीजी की राजभक्ति से मुक्ति प्राप्त करने का अवसर मिल गया। देश में ऐसी संस्थाओं और संगठनों की बाढ़ आ गई जो पूर्ण स्वाधीनता को अपना लक्ष्य मान रहे थे और फटाफट इसके संबंध में प्रस्ताव पारित कर रहे थे । वह अपने कार्यक्रम आयोजित करते तो उनकी अध्यक्षता नेहरू व सुभाष बाबू से ही कराते थे । सुभाष चंद्र बोस की लोकप्रियता उस समय अपने चरम पर थी और गांधीजी व नेहरू उनसे कहीं बहुत पीछे रह गए थे।
दिए गए चित्र से यह स्पष्ट हो रहा है कि लोग नेताजी सुभाष चंद्र बोस को कितना अधिक सम्मान देते थे ? वह गाड़ी में ऊपर खड़े दिखाई दे रहे हैं ,जबकि नेहरू जी निचले पायदान पर हैं।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक: उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत