शांता कुमार
गतांक से आगे…..
उसके इस व्यवहार को देख पास खड़े यशपाल ने सुखदेव को कहा यह सहन नही हो रहा है। लालाजी का वृद्घ शरीर उन लाठियों के प्रहार को सहन न कर पाया। इस घटना के कुछ ही दिन बाद 17 नवंबर 1928 को उनका प्राणान्त हो गया। सरकार के पाशविक अत्याचारों से भारतीयों की श्रद्घा का प्रतीक लाजपत सदा सदा के लिए जुदा कर दिया गया। उनकी मृत्यु से सारे देश में बड़ी खलबली मची।ने उस विषय पर लिखा है, जब लालाजी मरे तो उनकी मृत्यु अनिवार्य रूप से उन पर जाम हमला हुआ था, उसके पास संयुक्त हो गयी और दुखी से कहीं बढ़कर देश के लोगों में क्रोध भड़क उठा। भगतसिंह इसलिए प्रसिद्घ हुए कि ऐसा ज्ञात हुआ कि उन्होंने कम से कम उस समय के लिए लाला लाजपतराय की और इस प्रकार उनके जरिये से सारे देश के सम्मान की रक्षा की। वह तो एक प्रतीक हो गया, लोग उस कार्य को तो भूल गये। किंतु वह प्रतीक कुछ महीनों के अंदर फैल गया और पंजाब का हरएक गांव और शहर तथा उत्तर भारत उनके नामों से गूंजने लगा।
लालाजी के शव की अंतिम यात्रा लाहौर के इतिहास में अमर रहती यदि लाहौर रावी के तट का प्रतिज्ञा स्थल शव का लाहौर रह पाता। दुर्भाग्य से वह आज तो पराया बना दिया गया है। कोई डेढ़ लाख लोग शव शत्रा में शामिल हुए। लालाजी के घर से अर्थी की यात्रा प्रात: 10 बजे आरंभ हुई तो शमशान घाट तक पहुंचते पहुंचते सांय के 5 बज गये। लोग बिलख बिलख कर रो रहे थे। पंजाब आज नेतृत्वहीन हो गया था। डॉ गोपीचंद भार्गव लालाजी के अत्यंत निकट थे, इसलिए वे सारा समय फूट फूटकर रोते रहे। वे लालाजी को अपना गुरू कहते थे। फूलों के भार से अर्थी इतनी लद चुकी थी कि जल्दी जल्दी कंधा बदलकर पड़ता था।लालाजी की चिता धू-धू कर जल उठी। लाखों नर नारी आग की उन प्रज्वलित लपटों में अपने प्रिय नेता के अंतिम दर्शन कर रहे थे। आज लालाजी के अंतिम मार्मिक शब्द सबके हृदयों में गूंज रहे थे। अपने एक अत्यंत प्रिय नेता को एक साधारण अंग्रेज अधिकारी की लाठियों से आहत होकर मौत के मुंह में जाते हुए देखकर लोगों को गुलामी का प्रत्यक्ष और गहरा अनुभव हो रहा था। डा. गोपीचंद जी रात को शमशान घाट पर सुलग रही चिता केा अकेला छोड़ना नही चाहते थे। अत: यशपाल और भगवतीचरण रात भर उस चिता के पास सोए।रावी के तट पर एक महान नेता की भस्म गरम गरम लाल अंगारों में पड़ी सुलग रही है। सामने शांत गंभीर रावी का अनंत जल मानो उस महाप्रयाण पर आंसू बहा रहा हो और उस प्रशांत निर्जन सूनेपन में उस चिता के पास बैठे हों, दो क्रांतिकारी। उनके चिंतन दिशा की कल्पना की जा सकती है। उनके मन को रह रहकर यह विचार कचोट रहा था कि क्या कारण है, हमारी श्रद्घा के पात्र इतने बड़े नेता का हजारों मील दूर से आई जाति के भाड़े के टट्टू इस प्रकार घृणास्पद अपमान कर देते हैं और हम इसके सिवाय कि आंसू बहाते रोते हुए उनका दाह संस्कार कर दें, कुछ भी नही कर पाते? रावी की उन शांत उर्मियों ने न जाने क्या कहा, अपनी मौन भाषा में, उन क्रांतिवीरों को, जिसे वे हृदय संजोकर प्रात:काल घर आ गये।पंजाब की जनता अपने प्रिय नेता को खोकर दुखी तो बहुत हुई, पर उनकी चिता भस्म के ठंडी होने के बाद वातावरण कुछ शांत होने लगा परंतु नौजवान क्रांतिकारियों के हृदय में यह विचार एक घाव बनकर उन्हें सालने लगा।चंद्रशेखर आजाद लालाजी के हत्यारे को दण्ड देने का विचार कर रहे थे। लालाजी की मृत्यु के बाद होने वाली शोक सभा में स्वाग्रीय चितरंजनदास की धर्मपत्नी माता वासंती देवी ने कुछ ऐसे शब्द कहे थे जो पंजाब के नवयुवकों को शांति से न बैठने देते थे। उन्होंने कहा था मैं जब यह सोचती हूं कि कमीने और हिंसक हाथों ने स्पर्श करने का साहस किया था। एक ऐसे व्यक्ति के शरीर को जो इतना वृद्घ इतना आदरणीय और भारत के तीस कोटि न नारियों को इतना प्यारा था, तब मैं आत्मापमान के भावों से उत्तेजित होकर कांपने लगती हूं। क्या देश का यौवन और मनुष्यत्व आज जीवित है? क्या वह यौवन और मनुष्यत्व का भाव इस कुत्सा को उसकी लज्जा और ग्लानि को अनुभव करता है? मैं इस भारत भूमि की एक स्त्री हूं मैं इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर चाहती हूं। पूर्व इसके कि हमारे पयारे लाजपत की चिता भस्म ठंडी हो, भारत का मनुष्यत्व और युवक समाज आगे आए और जवाब दे।लालाजी के खून के धब्बे अभी गीले ही थे कि लाहौर के मजंग मुहल्ले के मकान पर क्रांतिकारियों की केन्द्रीय समिति की बैठक में भगत सिंह ने एक प्रस्ताव रखा कि लालाजी के खून का बदला लिया जाना चाहिए। प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास हुआ। स्कॉट और सांडर्स दोनों को दण्ड देने की बात तय हुई। क्योंकि स्कॉट ने लालाजी पर लाठी चार्ज करने का आदेश दिया था और सांडर्स ने स्वयं उन पर लाठियां बरसाईं थीं। इस कार्य में बहुत पैसे की आवश्यकता थी। अत: बैठक में पंजाब नेशनल बैंक को लूटने की योजना बनी। परंतु चंद्रशेखर आजाद के बैंक की स्थिति को स्वयं देखने के बाद किन्हीं कारणों से योजना स्थगित कर दी गयी।जयगोपाल को सांडर्स की सब गतिविधियां देखने पर नियुक्त किया गया। स्कॉट उन दिनों लाहौर से बाहर था, अत: सांडर्स को ही प्रमुख निशाना बनाया गया। जयगोपाल कई दिन तक सांडर्स के आने जाने के समय को देखता रहा। वह किस ओर से कब आता है और कहां मोटरसाईकिल खड़ी करता है-इन सब बातों की जानकारी प्राप्त करके ठीक मौके पर शिकार को बताने काकाम जयगोपाल को सौंपा गया।राजगुरू साईकिल चलाना नही जानते थे। इसलिए वे धीरे धीरे पैदल चलकर पुलिस स्टेशन के साथ डीएवी कॉलेज के होस्टल के पास पहुंच गये। आजाद और भगतसिंह साईकिलों पर आए। यह 17 दिसंबर सन 1928 के दिन लगभग चार बजे की बात है। आजाद डीएवी कॉलेज के हॉस्टल के सामने की झाड़ियों में आड़ लेकर खड़े हो गये। भगतसिंह और राजगुरू फाटक से कुछ हटकर पीछे खड़े थे, ताकि किसी को संदेह न हो। सामने जयगोपाल एक साईकिल लिए इस प्रकार खड़ा था जैसे वह बिगड़ी हुई साइकिल ठीक कर रहा हो। यहां साइकिल रखने का एक यह भी कारण था कि यदि शिकार निकल जाए तो भगतसिंह साइकिल पर चढ़कर पीछा करके उसकी हत्या कर दे।सांडर्स ने बाहर निकलकर मोटर साइकिल स्टार्ट की और धीरे धीरे फाटक के पास पहुंचा ही था कि जयगोपाल ने राजगुरू और भगतसिंह को इशारा कर दिया। संकेत पाते ही राजगुरू ने लपक कर अपनी गोली सांडर्स की गर्दन के ऊपर सिर में दाग दी। निशाना ठीक बैठा। बेचारा साइकिल समेत गिर गया। उसके मुंह से मामूली सी पुकार भी निकली। भगतसिंह ने आगे बढ़कर अपने पिस्तौल की सब गोलियां सांडर्स के कंधों व सिर में दागकर उसके बच न सकने के सारे संदेह मिटा दिये। अपना काम समाप्त करके वे डीएवी कॉलेज के होस्टल की ओर बढ़े। टै्रफिक इंसपेक्टर फर्न एकदम मौके पर आ गया। उसने भगतसिंह का पीछा करना चाहा। भगत सिंह ने जब फर्न को अपने पीछे आते देखा तो वह जरा रूका और उनकी ओर पिस्तौल सीधी करते हुए निशाना बांधा। बेचारा फर्न डर के मारे धरती पर लेट गया। उसके साथी भी पीछे हट गये। उनकी इस कायरता पर मुस्कराते हुए भगतसिंह आगे बढ़ गये।
क्रमश:
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