गायत्री मंत्र की बहुत मान्यता है, उसे सावित्री मंत्र भी कहते हैं, गुरूमंत्र तथा महामंत्र भी कहते हैं, वास्तव में गायत्री यह छंद है, जिसमें 24 अक्षर रहते हैं। इस गायत्री मंत्र में तत्सवितु:… प्रचोदयात पर्यंत 23 अक्षर ही है, अत: इसे निचृद गायत्री कहते हैं। अस्तु। इस गायत्री मंत्र को पढ़ने से पूर्व उसमें परमात्मा के निज नाम ओउम् के साथ ती व्याहृतीयां जोड़ी जाती हैं। तब मंत्र ओं भु र्भुव: स्व: से प्रारंभ होता है। अर्थ की दृष्टि से इसमें परमात्मा को प्रथम प्राणधार कहा है, फिर दु:ख विनाशक कहा है। बाद में सुखदायक कहा है।
संध्या जिसे ब्रह्मयज्ञ कहते हैं, जो पंचमहायज्ञोमे सर्व प्रथम है कारण सब यज्ञो से बड़ा है, जो एक अनिवार्यता है, उसमें कहते हैं-हे ईश्वर, दयानिधे! भवत्कृपया अनेन जपोपासनादि कर्मणा धर्म अर्थकाम मोक्षाणां सद्य: सिद्घी: भवेन्न:। अर्थात हे दयासागर ईश्वर! आपकी अपार कृपा से मैं नित्य जप, उपासना आदि कर्मों के द्वारा धर्म अर्थ काम मोक्ष की शीघ्र से शीघ्र सिद्घी कर सकूं। उपरी वाक्य में मानव जीवन का उद्देश्य वर्णित है, सब प्रकार के दुखों से छुटकारा प्राप्त करना ही हमारा मुख्य ध्येय है जिसे मोक्ष कहते हैं।
प्रकृति बंधन:-
वैदिक मतानुसार हमारे साथ लगे प्रकृति के अनादि और अनंत बंधन से एक विशेष अवधी पर्यन्त अवकाश प्राप्त करने का नाम मोक्ष है। एक सृष्टि की आयु चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष मानते हैं और इतना ही समय प्रलय का बताते हैं, इस प्रकार छत्तीस सहस्र वार सृष्टि की उत्पत्ति तथा प्रलय हो तब तक प्रकृति पाश से छूटकर मुक्त जीव परमात्मा के आनंद में निमग्र रहते हैं। इसीलिए हमारे ऋषि मुनियों ने मनुष्य जन्म का परम लक्ष्य परमानंद की प्राप्ति माना है। इस प्रकार की यह मुक्ति चाहने वाले मुमुक्षु को ईश्वर की आज्ञा का पालन, धर्म की वृद्घि, योगाभ्यास, परोपकार, सत्यभाषणादि करना चाहिए। अपने आपको ब्रह्मा मानने से मुक्ति नही होती, केवल नाम स्मरण से या नदी तालाब स्नान से, गुरूडमसे, किसी मूर्ति के दर्शन करने से, आड़े खड़े तिलक, लगाने से मुक्ति नही होती। दुर्भाग्य तो यह दुर्व्यसनी साधु, धनलोभी सन्यासी, कामी क्रोधी महात्मा, अज्ञानी आत्मज्ञानी, चेले चेलियों की भीड़ से ग्रसित गुरू, पाखंडी संत, और भोगी योगी बन बैठे हैं, वे भोले भाले नर नारियों के अंधश्रद्घा का लाभ उठा कर उन्हें भटकते रहते हैं, और मटका रहे हैं। कहा है-चल चल सब कोई कहे पहुंचे विरला कोय। कने कामिनी कीर्ति दुर्गम घाटी होय।।
बंधन का कारण तो विषय शक्ति एवं इंद्रियों का दुरूपयोग है। कर्म का बंधन हमारे जीवात्माओं के साथ अनादिकाल से है और अनंत कालपर्यंत रहेगा। हम जीव केवल मानव तनसेही मोक्ष को प्राप्त होते हैं। मानव तनधारी जीवात्मा के पास कर्म करने के तीन साधन हैं-मन, वाणी और शरीर। यह मनुष्य, मुक्ति का सुख भोगकर सर्वप्रथम मनुष्य के शरीर में ही आते हैं। सृष्टि की रचना ईश्वर हमारे कल्याण के लिए करता है। अत: संसार का उपयोग हमें अपने भवबंधन के काटने हेतु करना चाहिए। मुक्ति एक जन्म से नही होती, ठीक है, किंतु इसका यह अर्थ नही कि मोक्ष के लिए किया गया पुरूषार्थ व्यर्थ हो जाएगा। वर्तमान जन्म का पुरूषार्थ हमारे आगामी जीवन में सहायक बनता है, ईश्वर की न्याय व्यवस्था के अंतर्गत परिश्रम का फल अवश्य मिलता है। जो अपने परलोक को सुधारने के लिए वैदिक विधी विधान से यत्नशील रहते हैं, उनका इह लोक स्वयं ही सुधर जाता है अर्थात मोक्ष मार्ग अपनाने वालों का जीवन सुख शांति से व्यतीत होता है। मुमुक्षु जन तन और मन से सदा स्वस्थ प्रसन्न रहते हैं, उनकी बुद्घि कभी विकृत नही होती, अत: वे अपने जीवन से अधिक लाभ उठा लेते हैं। वैदिक विचारधारा जैसे गुण कर्म स्वभावनुसार वर्णश्रम पद्घति, जीवेम शरद : शतं की आश्रम पद्घति, चार पुरूषार्थ वैसे ही पुनर्जन्म विचार यह सब मोक्ष प्राप्ति में साधक हैं, बाधक नही। औ ध्यान रहे वेदाध्ययन और वेद प्रचार संबंधी हर कार्य मोक्ष प्राप्ति में सहायता होता है। देव दयानंद का महान ऋण है कि हमें इस मोक्ष मार्ग पर चलने का अवसर दिया। हमें सौभाग्य प्राप्त है कि आर्य समाज जैसे पवित्र संगठन से हम संबंधित हुए हैं। प्रत्येक मानव को सुख शांति मुक्ति के परमानंद के लिए केवल वेदमार्ग पर ही चलना होगा। नास्ति वेदात्परं शस्त्रं और ना अन्य: पन्या विद्यते अयनाय।
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