मनुष्य अपने आप में स्थित (स्वस्थ-निर्भान्त और शांत) कैसे रहे ? – ऋषि लोग उसे इसका उपाय बताते हैं। इन ऋषियों के दर्शन के लिए लोग तरसते हैं और इनके मुखारबिन्द से निकले एक-एक शब्द को अपने लिए सहेज कर रखते हैं।

हमारे यहां प्राचीनकाल में हमारे ऋषि पूर्वज अपने प्रवचनों से लोगों का कल्याण करते फिरा करते थे। ‘वह रोग पीडि़त विश्व के संताप’ दो प्रकार से हरते थे-एक तो वह अपने प्रवचनों से मानव के मानस के वैचारिक प्रदूषण को हटाकर उसे प्रसन्नचित्त रहने का उपाय बताते थे और दूसरे रूग्ण मानसिकता से उत्पन्न किसी व्याधि का उपचार करने के लिए लोगों को औषधियां देते थे। उन औषधियों पर इनका सतत अनुसंधान चलता रहता था। इस कार्य के लिए हमारे ऋषि लोग हिमालय को अपने लिए सर्वाधिक उपयुक्त मानते थे। क्योंकि वहां प्रकृति का सान्निध्य मिलने से इनकी ईशभक्ति तो सफल होती ही थी, साथ ही वहां पर वनस्पतियों की प्रचुरता भी होती थी-जिससे ये लोग विभिन्न प्रकार की औषधियां बनाया करते थे।

उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि आयुर्वेद के पुरातन आचार्य आत्रेय का कार्यक्षेत्र अधिकांशत: गिरिराज के रमणीक शैल, उपत्यकाएं और उपांत प्रदेश ही रहे हैं। यहीं पर रहते हुए ऋषियों ने मानव मात्र के रोग-शोक हरण के लिए आयुर्वेद के जीवन संदेश पर गहन शोध किया था। महर्षि आत्रेय ने अग्निवेश, भेल, जतूकर्ण पराशर, हारीत और क्षारपाणि इन छह शिष्यों को आयुर्वेद का उपदेश दिया था। इनमें से अग्निवेश ने गुरूजी के सारे उपदेशों का सार संग्रह ‘अग्निवेशतंत्र’ में किया। आचार्य चरक ने आगे चलकर इसी ‘अग्निवेशतंत्र’ को विस्तार दिया। जिन्होंने ‘चरक-संहिता’ का निर्माण किया।

इस संहिता के नाम से ही स्पष्ट है कि हमारे ऋषियों के यत्र-तत्र बिखरे ज्ञान को या चिकित्सा विज्ञान संबंधी समस्त तथ्यों और मर्यादाओं को और संपूर्ण प्रक्रिया को चरक ने संहिताबद्घ किया था। कुल मिलाकर सुदीर्घ काल तक चले इस अनुसंधान कार्य का एक ही लक्ष्य था कि जैसे भी हो, विश्व को नीरोग रखा जाए और उसके संतापों का हरण किया जाए। जब हम यह कहते हैं कि ‘रोग पीडि़त विश्व के संताप सब हरते रहें’ तो इसका अभिप्राय होता है कि हम सर्वप्रथम तो भूसुर बनें, हमारे कारण किसी को कष्ट न हो यह सुनिश्चित करें। उसके पश्चात मनुष्य के लिए हमारे ऋषियों ने जिस चिकित्सा पद्घति आयुर्वेद की खोज की उसे सुरक्षित और संरक्षित रखने के लिए कृतसंकल्प हों।

हमें हमारे शास्त्र श्रेष्ठ कार्य करने के लिए इसीलिए आदेशित करते हैं कि हम मानसिक, वाचिक और कायिक रूप से पवित्र रहें। श्रेष्ठ चिंतन से श्रेष्ठ कार्यों का संपादन होता है और श्रेष्ठ चिंतन परमश्रेष्ठ परम पवित्र प्रभु के सान्निध्य को पाकर ही बनता है। विद्वानों का मत है कि त्रिदोष और रज तम की रोग कारणता का प्रतिपादन कर प्रज्ञापराध में वृद्घि होती है। बिना प्रज्ञापराध के इंद्रियार्थों का असात्म्य संयोग नहीं होता है। प्रज्ञापराध चिंतन को विकृत नकारात्मक और विध्वंसकारी बनाता है। सदग्रंथों का अध्ययन और विद्वानों की संगत हमें प्रज्ञापराध से बचाते हैं। सत्संगति से अच्छे-अच्छे लोगों का जीवन संवर गया और सुधर गया। इसलिए संसार के लोगों का परस्पर एक दूसरे के लिए यह परम पवित्र कत्र्तव्य है कि वे सब मिलकर प्रज्ञापराध से बचने का सामूहिक प्रयास करें। ऐसी पवित्र भावना से दूषित चिंतन और तदजनित तनाव से विश्व को मुक्ति मिलेगी। आज के समय में यह तनाव ही वह कारण है-जिसने हर व्यक्ति को रोगी बनाकर रख दिया है। ऐलोपेथी में इस रोग का कोई उपचार भी नहीं है। ऐलोपेथी रोगी को रोगी समझकर उसका उपचार करती है। जिससे रोगी और चिकित्सक के मध्य आत्मीयता का संबंध विकसित नहीं हो पाता है। जबकि आयुर्वेद रोगी को मनुष्य और उससे भी बढक़र ईश्वर की एक अनमोल कृति समझकर उसका उपचार करता है। इसलिए आयुर्वेद प्रकृति के कण-कण में और प्रकृति की हर वनस्पति में मनुष्य जीवन के कल्याण के संगीत को सुनता है और उसे अपनी ओर से बलवती करने के लिए प्रयास भी करता है। यही कारण है कि प्रकृति और यज्ञ का अन्योन्याश्रित संबंध है। ये दोनों मिलकर मनुष्य के कल्याण में रत हैं। अत: मनुष्य को वैदिक संस्कृति प्रकृति के अनुकूल बनने और उसी के अनुकूल चलने की शिक्षा देती है।

आयुर्वेद के मनीषियों ने मनुष्य की सारी दिनचर्या और जीवनचर्या ही ऐसी बनायी है कि उसके पालन करने से वह कभी भी रोगी नहीं हो सकता। जैसे प्रात:काल में चार बजे शैय्या छोडक़र ईशभजन करने सहित शौचादि से निवृत्त होने, स्नान करने और योगासानादि करने केे साथ-साथ भ्रमण करने की व्यवस्था हमारी दिनचर्या में अर्थात दैनिक कार्यों में सम्मिलित कर दी गयी है। दैनिक कार्यों में इन सारे कार्यों को सम्मिलित करने का अभिप्राय है कि ये सारे कार्य अनिवार्यत: आपको प्रतिदिन करने ही हैं। जिसके जीवन में ये सारे कार्य प्रतिदिन होने लगते हैं उसके जीवन से और शरीर से रोग स्वयं ही भाग जाते हैं। पर जो व्यक्ति आलसी बनकर शैय्या पर पड़ा रहता है उसे रोग-शोक घेर लेते हैं। प्रात:काल की ऑक्सीजन भरी वायु को ग्रहण करने के लिए व्यक्ति हमारे यहां शौचादि के लिए भी दूर जंगल में जाया करते थे। उससे दो बातें एक साथ हो जाती थीं-एक तो प्रात:कालीन भ्रमण हो जाता था और दूसरे शौचादि से निवृत्त हो जाता था। खुले में शौच जाना आजकल अधिक आबादी हो जाने के कारण अशोभनीय लगता है, वरना शौच के लिए वही रीति उत्तम थी।

उसमें घुटनों के बल बैठकर व्यक्ति शौच करता था। जिससे मल का दबाव निकासी द्वार पर अच्छा बनता था और व्यक्ति बड़ी सुगमता से अपने दैनिक कार्य को पूर्ण कर लेता था। कई किसान उस मल को मिट्टी से दबा दिया करते थे। आज मलीन बस्तियों में और कस्बों में लोग मल को नालियों में बहाते हैं, यह असभ्यता है। जिससे मल की दुर्गंध गलियों में और घरों में घुस जाती है और वायु को विषाक्त बनाती है। फलस्वरूप शहरों और कस्बों के लोग गांव के उन लोगों से कहीं अधिक बीमार मिलते हैं, जो आज भी खुले में शौच जाते हैं। कारण यही है कि गांव के लोगों को खुली और ऑक्सीजन युक्त स्वच्छ वायु मिलती रहती है और शहरी या कस्बों में रहने वाले लोग उस वायु से वंचित होते जा रहे हैं। लोगों की जीवन शैली बन गयी है कि रात्रि में देर तक जागते हैं और देर रात में ही भोजन करते हैं फिर प्रात:काल में देर में ही शौच जाते हैं उठते ही उन्हें चाय चाहिए। प्रात:काल उठते ही पानी पीने वाले लोग कम हैं और चाय पीने वाले लोगों की संख्या अधिक है। जबकि प्रात:काल की चाय शरीर के लिए विष का कार्य करती है। विष पीकर भी लोग स्वस्थ रहने की कामना करते हैं-यह कितनी मूर्खतापूर्ण बात है ?

स्वामी रामदेव जी महाराज ने लोगों पर बड़ा उपकार किया है। जिससे अब बहुत से लोगों ने प्रात:काल में पानी पीना आरंभ कर दिया है। कई एलोवेरा का भी प्रयोग करते हैं। साथ ही गरम पानी का भी प्रयोग करने लगे हैं।

स्वामी जी ने अष्टांगयोग मार्ग में से केवल आसन करने के मार्ग पर लोगों को डालने में भी बड़ी सफलता प्राप्त की है। हम देखते हैं कि यदि अष्टांगयोग में से एक योग (आसन और प्राणायाम) को अपनाने से ही करोड़ों लोगों का भला हो सकता है तो अष्टांगयोग का समग्रता से लाभ उठाने से तो यह सारी वसुधा ही स्वर्ग बन जाएगी।

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

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