रोग पीड़ित विश्व के संताप सब हरते रहें
यह संसार विभिन्न प्रकार के रोग-शोक व संतापों से ग्रस्त है। एक व्यक्ति किसी न किसी प्रकार के रोग से पीडि़त है। हर एक व्यक्ति के स्वास्थ्य पर उसके वैचारिक चिंतन का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा करता है। यदि व्यक्ति नकारात्मक सोच रखता है तो वह असहिष्णु, चिड़चिड़ा, क्रोधी होते-होते उच्च रक्तचाप व हृदयरोगी तक हो सकता है। कारण कि नकारात्मक चिंतन का हमारे शरीर-स्वास्थ्य पर बड़ा घातक प्रभाव पड़ता है। इसीलिए विवेकशील लोगों का कहना रहता है कि सदा सकारात्मक रहो। दूसरों के साथ ले और दे की नीति अपनाकर कुछ समन्वय स्थापित करके चलने का प्रयास करो।
कौआ संसार में कहीं पर भी जाए-वह गंदगी ही खाना पसंद करता है, परंतु हंस चाहे अमेरिका का हो और चाहे भारत का हो-वह मोती ही चुनना चाहता है। मनुष्य को चाहिए कि वह हंस बने और विचार मोतियों को चुन-चुनकर उन्हें अपना भोजन बनाये।
संसार में कई प्रकार के लोग होते हैं। वार्त्तालाप के स्वर पर ही इन कई प्रकार के लोगों की हमें पहचान हो जाती है। पहली श्रेणी के लोग वे हैं जो दो लोगों की चर्चा में या वार्त्तालाप में खलल डाल देते हैं, अर्थात वार्ता का स्तर और दिशा दोनों में ऐसी नकारात्मक और उत्तेजनात्मक विद्युत उत्पन्न करते हैं कि लोग वास्तविक मुद्दे से भटककर परस्पर वाद-विवाद और झगड़े में पड़ जाते हैं। खलल डालने वाले या झगड़ा कराने वाले ये लोग खलु = दुष्ट होते हैं, जिन्हें समाज का परमशत्रु कहा जा सकता है। क्योंकि ये समाज में उग्रवाद के पोषक होते हैं और शांति के परम शत्रु होते हैं। ऐसे लोगों को समाज के योग्य नहीं माना जा सकता। इनकी नीतियां घातक होती हैं और ये अपने कर्मों से समाज को संताप मुुक्त करने के स्थान पर संतापयुक्त करते रहते हैं। स्पष्ट है कि ऐसे लोगों की समाज को कभी भी आवश्यकता नहीं होती है।
अब दूसरे प्रकार के लोगों पर आते हैं। ये वे लोग होते हैं जो किसी के चल रहे वात्र्तालाप में बीच में ‘विघ्न’ डालते हैं। ये इस प्रकार के लोग राक्षस कहलाते हैं, स्पष्ट है कि ये दुष्ट प्रकृति के लोगों से कुछ कम घातक होते हैं। इनका चिंतन भी समाज के लिए उपयोगी नहीं होता है इनकी विचारधारा भी ‘सर्वजनहितकारी’ नहीं होती है, ये अपने दोषों की भी ‘शेखी बघारते’ हैं और लोगों को अपने जैसा बनाने के लिए सक्रिय रहते हैं। स्टालिन जैसे लेागों ने अपनी विचारधारा के नाम पर संसार में कितना रक्त बहाया, यह सभी जानते हैं। उस जैसे लोगों के कार्यों को इसी श्रेणी के लोगों के कार्यों में रखा जा सकता है। राक्षस और दुष्ट में बहुत ही सूक्ष्म सा अंतर होता है। राक्षस लोग भी आपके कार्यों में या वात्र्तालाप में ऐसा विघ्न डाल सकते हैं कि वह आपके लिए पूर्ण करना भी असंभव हो सकता है।
इन लोगों की कार्यशैली भी निर्माणात्मक नहीं होती, यद्यपि इनके नारे संसार को स्वर्ग बनाने और संसार में व्यवस्था स्थापित कराने वाले होते हैं। परंतु ये रक्तिम क्रांति के समर्थक होने के कारण संपूर्ण भूमंडल के लिए स्वीकार्य नहीं हो सकते। इनकी रक्तिम क्रांति की बातें लाखों करोड़ों लोगों के लिए घातक हो सकती हैं। अत: ये लोग लोगों की वार्त्तालाप में तो विघ्न डालते ही हैं, साथ ही ये संसार की व्यवस्था के लिए भी घातक ही होते हैं। विश्व के संतापहर्त्ता न होकर ये भी संतापों में वृद्घि करने वाले ही होते हैं।
इनके पश्चात तीसरे लोग वह होते हैं जो आपके वार्त्तालाप में हस्तक्षेप करते हैं। ये ऐसे लोग होते हैं जो किसी चर्चा में भाग लेते हैं उस चर्चा को अपने अनुसार मोडऩे का प्रयास भी करते हैं और यदि मोडऩे में असफल होते हैं तो कुछ उग्र भी हो सकते हैं, कुछ सीमा तक हिंसक या कुछ नितांत घातक उपायों का आश्रय भी ले सकते हैं। ये पहली और दूसरी श्रेणी के लोगों की अपेक्षा समाज या विश्व के लिए कम घातक होते हैं। आज के राजनीतिक दल ऐसे लोगों की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। ये लोग जनसाधारण के हितों के नाम पर स्वार्थों की लड़ाई लड़ते रहते हैं, और जनसाधारण को केवल मीठे-मीठे और प्यारे-प्यारे सपने दिखा-दिखाकर सत्ता का खेल खेलते रहते हैं। ये जनहित पर धनहित को और परमार्थ पर स्वार्थ को प्राथमिकता देते हैं। इनकी सोच लोगों के लिए घातक है या अच्छी है, यह पता लगाने के लिए बुद्घि का प्रयोग करना पड़ता है।
अर्थात बड़ी सहजता से आप यह पता नहीं लगा सकते कि ये लोग पृथ्विी के देवता हैं या शत्रु हैं ? अपने स्वार्थों की पूर्ति करने की सीमा तक ये लोग जनहित के कार्यों में लगे रहते दीखते हैं, पर जैसे ही सत्ता इनके हाथ से चली जाती है तो ये सत्तासीन अपने विरोधी को परास्त या असफल करने के लिए कुछ भी और कैसी भी चाल चल सकते हैं। इसलिए लोग इन्हें ‘दो मुंहा सांप’ भी कहने से नहीं चूकते हैं।
अब आते हैं चौथी श्रेणी के लोगों पर। ये लोग ना तो किसी के कार्य में या वार्त्तालाप में खलल डालते हैं ना विघ्न डालते हैं और ना ही अनुचित हस्तक्षेप करते हैं। इन सबके विपरीत ये अपनी बात को विनम्रता से प्रस्तुत कर आपके समक्ष अपने सुझाव रखते हैं और अपने अत्यंत विवेकशील सुझावों को भी मानने या न मानने के लिए आपको स्वतंत्र छोड़ देते हैं। आपको पूरा समय देते हैं कि आप उन्हें मानें यान मानें। वास्तव में ये लोग भू-सुर होते हैं। पृथ्वी के देवता होते हैं। ये भू-सुर प्रवृत्ति के लोग संसार को अपने ओज व तेज से नई दिशा देते हैं और लोग इनका अनुसरण करने में स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। ये ही वह लोग होते हैं जो रोग पीडि़त विश्व के संताप हरते हैं। इनके उपदेशात्मक प्रवचनों से मनुष्य मात्र का ही नहीं, प्राणीमात्र का ही भला होता है। विश्व कल्याण इनका जीवनोद्देश्य होता है। ये दूसरों की पीड़ा हरते हैं।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत