जिस प्रकार भौतिकवाद सभ्यता का उद्गम स्रोत होता है उसी प्रकार अध्यात्मवाद संस्कृति का उदगम स्रोत होता है। जिस समाज अथवा राष्ट्र में नैतिकता अथवा उच्च संस्कारों का अभाव होता है और अनैतिकता एवम तुच्छ संस्कारों का बोल बाला होता है, वहां संस्कृति नही होती वहां या तो पाशविकता होती है अथवा फिर जंगली राज्य। ईसाईयत और इस्लाम के पास ये दोनों चीजें ही हैं, वहां संस्कृति का अभाव है। नैतिकता और न्याय के नाम पर ये दोनों पंथ दुनिया के समक्ष मात्र ढकोसलाबाजी ही करते हैं, वास्तविकता के धरातल पर ये नीति और न्याय की बातें उनके यहां उन्हीं के पंथ के अनुयायियों
‘ईशावास्यमिदम् सर्वयत्किंचजगत्याम् जगत’।
अर्थात ईश्वर इस जग के कण-कण में समाया हुआ है। इस प्रकार हमारे वैदिक ज्ञान का मूल आधार ईश्वरीय ज्ञान है, वह अदृश्य सत्ता स्वयं है, जो इस चराचर जगत का आधार है। हमारा तमाम लोकाचार उस अदृश्य सत्ता से आरंभ होकर उसी में समाहित हो जाता है। हम अपने ज्ञान का आरंभ वहां से करते हैं, जहां एक अजर, अमर और नित्य सत्ता इस सृष्टि का नियमन और संचालन कर रही है। जिस समाज और संस्कृति का स्वयं का आचार ऐसा हो, अथवा जिसका सखा ऐसे दिव्य गुणों से सभी के कल्याण और हित के भावों से आपूरित हो उसका स्वयं का जीवन भी इन्हीं गुणों से संचरित और आपूरित को उठना स्वाभाविक है, क्योंकि सखा के गुणों का चिंतन अनुकरण के लिए प्रेरित करता है जिससे नये नये संस्कारों का जन्म होता है और नये सुसंस्कार ही नव संस्कृति का निर्माण कराते हैं। इष्टï देव के गुणों का संचरण भक्त के मन मस्तिष्क में होना स्वाभाविक है, इसलिए नवसृष्टि का होना भी अवश्यम्भावी है। अनंत काल से उस अनादि और अनंत, अजर, अमर और नित्य सत्ता के सुपालक और सर्वकल्याणकारक स्वरूप की उपासना और स्तवन करते करते हम भारतीय मानवमात्र और प्राणिमात्र के प्रति इन्हीं सदगुणों से अपने जीवन को संचालित करते रहे हैं। यही गुण हमारे राष्ट्रीय चरित्र में ‘सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया’ की मिश्री घोलने में मददगार बने। हमारे इस प्यारे भारतवर्ष के एक जीवंत राष्ट्र होने का यही कारण है। वरना विश्व रंगमंच पर कितने ही मजहब संस्कृतियां और लोग आए, तथा काल के विकराल गाल से कालांतर में कहीं इस प्रकार गुमनामी के गड्ढे में गिरकर विलीन हो गये कि मानो थे ही नही। भारत के जीवंत राष्ट्र होने का एक अन्य कारण इसकी संस्कृति में किसी व्यक्ति विशेष के सांत और सीमित ज्ञान की उपासना का प्राविधान न होना भी है। भारतीय संस्कृति का उपासक और पाठक अनंत, और असीमित परमपिता की सत्ता को खोजता है। वह उसे ही पाना चाहता है, इसलिए उसका दृष्टिïकोण व्यापक और हृदय विशाल होता है। यह हमारे ऊपर हमारे ऋषियों मनीषियों का महान उपकार है कि उन्होंने हमारा चिंतन किसी विशेष व्यक्तित्व व कृतित्व के अनुशीलन तक सीमित न रहने दिया, अपितु सारी दृश्यमान सत्ताओं से परे उस अदृश्य और सर्वव्यापक सत्ता के ज्ञान सरोवर में ज्ञान क्रीड़ा करने और ज्ञान सरोवर की गहराई मायने खोजने के लिए खुला छोड़ दिया।
हमें अपनी इस भारतीय संस्कृति पर गर्व होना चाहिए, और संसार में मानवता के प्रचार-प्रसार के लिए मानव को केवल मानव बनाने पर बल देना चाहिए। भारतीय संस्कृति का और मानव संस्कृति का और इससे भी बढ़कर कहें तो देव संस्कृति का (जिसे लोग आजकल भ्रांतिवश सभ्य संसार बसाने की परिकल्पना मान रहे हैं) यही मूल आधार है। इसी पर हमारा चिंतन केन्द्रित होना चाहिए।