भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से गीता में धर्मयुद्ध का उपदेश दिया है । उन्होंने अर्जुन को धर्मयुद्ध के लिए प्रेरित करते हुए उसे स्पष्ट संदेश दिया कि यदि होने वाले युद्ध में तुम युद्ध के उपरांत जीवित रहे तो इस संपूर्ण वसुधा का राज्य भोगने का सौभाग्य तुम्हें प्राप्त होगा और यदि इस युद्ध में तुम वीरगति को प्राप्त हुए तो तुम्हें स्वर्ग की प्राप्ति होगी । वास्तव में भारत में धर्म युद्ध की बात जब भी कहीं किसी शास्त्र में अथवा गीता में उठाई जाती है तो उसका अभिप्राय यह होता है कि संपूर्ण मानव जाति के अधिकारों की रक्षा के लिए अपने कर्तव्य को पहचानो । भारत ने अपने लोगों को बताया और समझाया कि तुम्हें अपने अधिकारों की रक्षा नहीं करनी है अपितु दूसरों के अधिकारों की रक्षा के लिए हथियार उठाओ और युद्ध करो । जबकि संसार में हिंदुओं से अलग अन्य जातियों के लोगों ने जितने भी संघर्ष या युद्ध किए हैं वे सब के सब दूसरों के अधिकारों के अतिक्रमण करते हुए किए गए हैं । दूसरों की भूमि छीनने के लिए , दूसरों का धन छीनने के लिए और दूसरों की महिलाओं को छीनने के लिए नरसंहार तक किए गए हैं । अपने अधिकारों की रक्षा के लिए दूसरे के अधिकारों का हनन करना भारतीय युद्ध परंपरा में सम्मिलित नहीं रहा । यहां दूसरों के अधिकारों की रक्षा के लिए अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए युद्ध लड़ने की परंपरा रही है । इसी में भारत का एकात्म मानववाद का वह संकल्प समाविष्ट है , जिसमें व्यक्ति को नागरिक के रूप में नहीं अपितु परिवार के सदस्य के रूप में देखा जाता है ।
अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना अच्छा हो सकता है , लेकिन दूसरे के अधिकारों का हनन करना या उनकी हत्या करना भारतीय एकात्म मानववाद की विचारधारा में सर्वथा त्याज्य और हेय है। भारतवर्ष में यह माना गया है कि जब युद्ध दूसरों के अधिकारों की रक्षा के लिए अपना कर्तव्य मानकर लड़ा जाता है तो उससे आत्मिक शांति मिलती है और संसार में भी शांति स्थापित होती है । यह व्यक्ति के चिंतन का ही प्रभाव है कि जब युद्ध दूसरों के अधिकारों का हनन करने के लिए लड़ा जाता है तो उससे युद्ध भड़कता है और अंतहीन युद्धों की श्रंखला फूट पड़ती है। जैसा कि हम आजकल भी संसार में सर्वत्र होते हुए युद्धों को देख रहे हैं । घर से लेकर संसार तक सर्वत्र युद्ध का कोलाहल व्याप्त है।
अमेरिका की स्थिति बनी दयनीय
अमेरिका जैसा देश जो अपने आप को विश्व का नेता मानता है वह भी युद्धों की इस श्रंखला से अछूता नहीं है । वह अपने सैन्यबल और शस्त्रबल के आधार पर जितना ही युद्धों को शांत करने के लिए युद्ध करता जाता है , युद्ध उतने ही भड़कते जा रहे हैं । इसका अभिप्राय है कि अमेरिका ने युद्ध के लिए व्यक्ति के भीतर चल रहे युद्ध को समाप्त करने की ओर ध्यान नहीं दिया। वह शासन और राशन के माध्यम से लोगों के भीतर शांति स्थापित करना चाहता है , परंतु शासन और राशन की उसकी नीति सर्वथा अदूरदर्शिता पूर्ण सिद्ध हो चुकी है। वह नींद की गोलियों में शांति खोज रहा है , परंतु नींद की गोलियां ले लेकर नींद ले रहे अमेरिकी ही संसार में सबसे अधिक आत्महत्या कर रहे हैं। संसार को इस तथ्य पर भी ध्यान देना चाहिए।
सारा पश्चिमी जगत मन , बुद्धि , आत्मा और शरीर की पवित्रता पर ध्यान न देकर कहीं और ध्यान दे रहा है , जिसका कुपरिणाम भी उसे भुगतना पड़ रहा है।
भारत ने अपने एकात्म मानववाद की विचारधारा को बलवती करने के लिए लोगों को भद्र की उपासना करने का मार्ग सुझाया । हमारे ऋषियों ने हमें बताया कि भद्र की उपासना करोगे तो संपूर्ण भूमंडल के चक्रवर्ती सम्राट बनकर भी मोक्ष की अभिलाषा वाले बने रहोगे । यह बहुत बड़ी साधना है । व्यक्ति आजकल एक छोटे से गांव का प्रधान बनकर भी अपनी भूमिका को संतुलित और मर्यादित नहीं रख पाता । जबकि हमारे देश में तो ऐसे चक्रवर्ती सम्राट की कल्पना की गई है कि वह चक्रवर्ती सम्राट होकर भी मोक्ष का अभिलाषी हो। यह तभी संभव है जब व्यक्ति धर्म के मार्ग का अनुकरण करने वाला हो और अस्तेय एवं अपरिग्रह जैसे भारत के मौलिक चिंतन को अंगीकार कर चलने वाला हो । हमारे लिए यह अनिवार्य किया गया है कि धर्मपूर्वक अर्थोपार्जन कर अपनी कामनाओं की पुष्टि करते हुए मोक्ष रूपी परम पुरुषार्थ को प्राप्त करना ही मानव जीवन का ध्येय है।
एकात्म मानववाद पर विचार करते हुए हमारे ऋषियों ने धर्म को आधारभूत पुरुषार्थ के रूप में मान्यता प्रदान की है ।
दुर्भाग्यवश भारत के स्वातंत्र्योत्तर नेतृत्व ने पश्चिमी संस्कृति का अनुकरण करते हुए उसी के राजनीतिक और सामाजिक सिद्धांतों को मान्यता प्रदान की। शासन की नीतियों के भटकाव का परिणाम यह निकला कि सारा भारतवर्ष भटकाव का शिकार हो गया।
विद्वानों ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के एकात्म मानववाद की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया है कि मानववाद वह है जो ऐसी प्राणवान आत्मा से निर्सगित होकर निर्झर होकर एक शक्ति पुंज के रूप में सर्वत्र राष्ट्र भर में मुक्त भाव से बहे, अर्थात अपनी क्षमता से और प्राणपण से उत्पादन करे और राष्ट्र को समर्पित भाव से अर्पित कर दे एवं स्वयं भी सामंजस्य और परिवार बोध से उपभोग करता हुआ विकास पथ पर अग्रसर रहे. एकात्मता में सराबोर होकर मानववाद की ओर बढ़ता यह एकात्म मानववाद अपनें इस ईश्वरीय भाव के कारण ही अन्त्योदय जैसे परोपकारी राज्य के भाव को जन्म दे पाया । हम इस चराचर ब्रह्माण्ड या पृथ्वी पर आधारित रहें, इसका दोहन नहीं बल्कि पुत्रभाव से उपयोग करें किन्तु इससे प्राप्त संसाधनों को मानवीय आधार पर वितरण की न्यायसंगत व्यवस्थाओं को समर्पित करते चलें यह अन्त्योदय का प्रारम्भ है। अन्त्योदय का चरम वह है जिसमें व्यक्ति व्यक्ति से परस्पर जुड़ा हो और निर्भर भी अवश्य हो किन्तु उसमें निर्भरता का भाव न कभी हेय दृष्टि से आये और न कभी देव दृष्टि से!!
दीनदयाल उपाध्याय कहते हैं- हेगेल ने थीसिस, एंटी थीसिस और संश्लेषण के सिद्धांतों को आगे रखा, कार्ल मार्क्स ने इस सिद्धांत को एक आधार के रूप में इस्तेमाल किया और इतिहास और अर्थशास्त्र के अपने विश्लेषण को प्रस्तुत किया, डार्विन ने योग्यतम की उत्तरजीविता के सिद्धांत को जीवन का एकमात्र आधार माना; लेकिन हमने इस देश में सभी जीवों की मूलभूत एकात्म देखा है। एक राष्ट्र लोगों का एक समूह होता है जो एक लक्ष्य, एक आदर्श, एक मिशन के साथ जीते हैं और एक विशेष भूभाग को अपनी मातृभूमि के रूप में देखते हैं। यदि आदर्श या मातृभूमि दोनों में से किसी का भी लोप हो तो एक राष्ट्र संभव नहीं हो सकता। यहाँ भारत में, व्यक्ति के एकीकृत प्रगति को हासिल के विचार से, हम स्वयं से पहले शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की चौगुनी आवश्यकताओं की पूर्ति का आदर्श रखते है। जब राज्य में समस्त शक्तियां समाहित होती हैं– राजनीतिक और आर्थिक दोनों– परिणामस्वरूप धर्म की गिरावट होती है। धर्म एक बहुत व्यापक अवधारणा है जो समाज को बनाए रखने के जीवन के सभी पहलुओं से संबंधित है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत