जयदीप शेखर
नई दिल्ली। कहावत है कि विपत्ति कभी अकेले नहीं आती। आज जबकि भारत घरेलू मोर्चों पर बुरी तरह उलझा हुआ है- स्थिति करीब-करीब अराजक-विस्फोटक है, चीन ने लद्दाख में घुसपैठ करके तथा पीछे हटने से मना करके एक नया सिर दर्द पैदा कर दिया है। जाहिर है कि भारत उन्हें धकेल कर पीछे नहीं हटायेगा-वे अपनी मर्जी से लौट जायें तो भले लौट जायें। न लौटें, तो हम कुछ नहीं कर सकते। इस ‘तात्कालिक’ घुसपैठ का क्या हल निकलेगा, यह तो नहीं पता; मगर यहाँ ‘पूर्णकालिक’ सुझाव पेश किये जा रहे हैं कि वास्तव में भारत की चीन-नीति क्या एवं कैसी होनी चाहिए?
चरूस से दोस्ती: चीन शरीर से ‘दानव’, दिमाग से ‘शातिर’ और स्वभाव से ‘धौंसिया’ है। इसके मुकाबले भारत का राष्ट्रीय चरित्र एक ऐसे शरीफ आदमी का बनता है, जो अपने झगड़ालू पड़ोसी से झमेला मोल लेने या उसके खिलाफ कोर्ट-कचहरी जाने से बचता है और इसके लिए अपनी कुछ जमीन तक छोड़ने के लिए राजी हो जाता है। ऐसे में, दुनिया में भारत का एक ऐसा दोस्त होना ही चाहिए, जो शरीर से दानव, दिमाग से शातिर हो और जिसने अतीत में धौंस भी खूब जमायी हो। भारत का ऐसा दोस्त रूस ही हो सकता है। अतीत में रूस ने भारत के साथ दोस्ती निभायी भी है- 1971 के युद्ध के दौरान। ‘सोवियत संघ’ के विघटन के बाद रूस से मुँह मोड़ लेना भारत की एक महान कूटनीतिक भूल है। जबकि दोस्ती के तकाजे के अनुसार रूस के बुरे वक्त में भारत को उसका साथ देना चाहिए था। मगर भारत ने रूस को छोड़ अमेरिका के साथ पींगे बढ़ाना शुरु कर दिया। अमेरिका कभी किसी का दोस्त नहीं हो सकता- यह एक खुली सच्चाई है- खासकर, भारत का दोस्त तो वह हर्गिज नहीं हो सकता- जैसा कि इतिहास बताता है। अमेरिका हर रिश्ते में अपना हित तथा अपनी कम्पनियों का मुनाफा देखता है- और कुछ नहीं। कहते हैं कि जब भी जागो, सवेरा समझो। इस नीति के तहत भारत को रूस के साथ पूर्णकालिक मित्रता करनी चाहिए, आपत्ति-विपत्ती में, अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में एक-दूसरे का साथ देना चाहिए और वक्त पड़ने पर एक-दूसरे को सैन्य मदद देने से भी नहीं हिचकना चाहिए। अगर ऐसी दोस्ती भारत-रूस के बीच कायम हो गयी, तो भारत पर धौंस जमाने से पहले चीन दस बार सोचेगा। आज उसे कुछ सोचने की जरुरत ही नहीं है- क्योंकि दुनिया में भारत का दोस्त भला है ही कौन?
चतिब्बत का समर्थन: किसी भी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र का एक भौतिक बल होता है, और एक होता है- नैतिक बल या आत्मबल। कहने की आवश्यकता नहीं कि आत्मबल वक्त पड़ने पर चमत्कार का काम करता है। आत्मबल पैदा होता है- सही को सही और गलत को गलत कहने का साहस रखने से। किसी भी तरह के भय से अगर कोई व्यक्ति, समाज या राष्ट्र सही को गलत या गलत को सही ठहराने लगे, तो वह अपना आत्मबल खो देता है। तिब्बत के मामले में यही हुआ है। तिब्बत पर चीन के बलात् अधिग्रहण को मान्यता देकर भारत ने अपना आत्मबल खो दिया है। फायदा कुछ नहीं हुआ- चीन अब भी गाहे-बगाहे अरूणाचल प्रदेश तथा लेह-लद्दाख पर अपना हक जता ही देता है।
अक्षय चीन छोड़ने की तो वह सोचता ही नहीं है। फिर वही बात- जब भी जागो, सवेरा समझो। भारत को तिब्बत की आजादी का समर्थन करना चाहिए, धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) स्थित तिब्बत की निर्वासित सरकार को राजकीय सम्मान देना चाहिए और दुनिया के दूसरे देशों से भी ऐसा करने का आग्रह करना चाहिए।
इनके अलावे, भारत को दो काम और करने चाहिए-
(क) लेह से लेकर अरूणाचल तक सीमा से सटे क्षेत्र को नया तिब्बत घोषित कर देना चाहिए और तिब्बतियों को इस गलियारे में बसाना चाहिए।
(ख) ‘भारत-तिब्बत सीमा सुरक्षा बल’ में तिब्बती युवाओं को भर्ती करते हुए इसे सीमा पर तैनात करना चाहिए। बेशक, जहाँ यह सीमा नेपाल और भूटान से गुजरती है, वहाँ नेपाली एवं भूटानी युवाओं को इस बल में भर्ती करते हुए तैनाती करनी चाहिए। इस बल की बटालियनों में भारतीय जवानों का 50 प्रतिशत रखना ही पर्याप्त होगा।
3. जम्बूद्वीप का पुनरुत्थान
जब कोई दुर्घटना होती है, तो पड़ोसी ही पहले मदद के लिए आते हैं- दूर के दोस्त या रिश्तेदार बाद में आते हैं। इस नीति के तहत भारत को अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान, बर्मा, श्रीलंका, मालदीव से दोस्ती बनाये रखने के लिए हर जरूरी कदम उठाने चाहिए। इतना ही नहीं, थाईलैण्ड, वियेतनाम, लाओस, मलेशिया, इण्डोनेशिया से भी भारत को मित्रता कायम करनी चाहिए। रही बात पाकिस्तान और बाँग्लादेश की, तो यहाँ कुछ ऐसे तत्व हैं, जो भारत को नुक्सान पहुँचाते हैं- इस मामले में भारत को सख्ती तथा सतर्कता बरतनी चाहिए।
ऊपर जिन देशों के नाम आये हैं, उन्हें अगर संगठित कर लिया जाय, तो चीन की धौंस से निपटा जा सकता है। ये सारे देश चूँकि प्राचीनकाल के जम्बूद्वीप में आते हैं, इसलिए इस संगठन को जम्बूद्वीप ही नाम दिया जाना चाहिए। डर सिर्फ एक है कि भारत इस संगठन में कहीं बड़ा भाई बनने की कोशिश न करे- वर्ना भारत और चीन में अन्तर ही क्या रह जायेगा? अत: भारत को चाहिए कि वह खुद को इस भावी संगठन में बराबर का साझीदार माने। अगर सभी देश राजी हों, तो तिब्बत को भी इसका मेहमान सदस्य बनाया जा सकता है। भारत के लिए बेहतर होगा कि वह यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया के बीच जाकर अब्दुल्ला बनकर नाचना छोड़ दे और अपने पड़ोसियों के साथ दोस्ती करना सीख ले।
4. बराबरी का व्यापार
कहते हैं कि पैसा सबकुछ नहीं, तो बहुत-कुछ जरूर होता है- इसकी मार बड़ी गहरी होती है।
भारत को चाहिए कि वह चीन के साथ बराबरी का व्यापार करे। उसूल सीधा हो- अगर आप हमसे 100 रुपये का सामान खरीदेंगे, तो हम भी आपके यहाँ से 100 रुपये का ही सामान अपने यहाँ आने देंगे। चीन ही क्यों, प्राय: सभी अमीर देशों के साथ इस नीति को अपनाया जा सकता है। इससे भारत को कोई नुक्सान नहीं होगा- उल्टे, ‘आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है’ के तहत भारत में उच्च तकनीक वाली वस्तुओं का निर्माण शुरु हो जायेगा!
5. लोकतांत्रिक आन्दोलन को नैतिक समर्थ
कहने को चीन एक साम्यवादी देश है, मगर वहाँ साम्यवाद का स भी नहीं खोजा जा सकता। वहाँ के शासक जिन आलीशान महलों में रहते हैं, उसकी चहारदीवारी के पार झाँकने की भी हिम्मत आम चीनियों में नहीं है। आम चीनी खुली हवा में साँस लेने के लिए तड़प रहे हैं। यह सही है कि थ्येन-आन-मेन चौक की बगावत के बाद चीन में लोकतंत्र समर्थक आन्दोलन नहीं हुआ है, मगर वहाँ की जनता अपने शासकों से प्यार करने लगी हो- ऐसा हो ही नहीं सकता। गुप्त रुप से लोकतंत्र समर्थक जरूर कोई योजना बना रहे होंगे। भारत को चाहिए कि वह इन गुप्त आन्दोलनकारियों के सम्पर्क में रहे और इन्हें नैतिक समर्थन दे। इसके अलावे, खुले रुप से चीन के आम नागरिकों के प्रति अपनी सहानुभूति जताये। कभी-न-कभी चीन की ‘जनता की सेनाÓ के जवानों की बुद्धि खुलेगी और वे लोकतंत्र की स्थापना में रोड़े अटकाने से इन्कार कर देंगे। तब लोकतंत्र समर्थकों के साथ भारत की दोस्ती बहुत काम आयेगी। अन्त में, सौ बातों की एक बात- आज की तारीख में भारत में राजनेताओं का जो चरित्र है, उसे देखते हुए उपर्युक्त सुझावों को अमली जामा पहनाये जाने की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। इन राजनेताओं को देखकर सिर्फ कीचड़ में लोटते-पोटते शूकरों की याद आती है, और किसी की नहीं। किसे फिक्र है- देश की सीमा की सुरक्षा की?
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