सत्यार्थ प्रकाश : एक अनुपम ग्रंथ नवम समुल्लास
अब जिस-जिस गुण से जिस-जिस गति को जीव प्राप्त होता है उस-उस को आगे 11 श्लोकों के द्वारा लिखते हैं-
देवत्वं सात्त्विका यान्ति मनुष्यत्वञ्च राजसाः।
तिर्यक्त्वं तामसा नित्यमित्येषा त्रिविधा गतिः।।१।। से
इन्द्रियाणां प्रसंगेन धर्मस्यासेवनेन च।
पापान् संयान्ति संसारान् अविद्वांसो नराधमाः।।११।। तक
जो मनुष्य सात्त्विक हैं वे देव अर्थात् विद्वान्, जो रजोगुणी होते हैं वे मध्यम मनुष्य और जो तमोगुणयुक्त होते हैं वे नीच गति को प्राप्त होते हैं।।१।।
जो अत्यन्त तमोगुणी हैं वे स्थावर वृक्षादि, कृमि, कीट, मत्स्य, सर्प्प, कच्छप, पशु और मृग के जन्म को प्राप्त होते हैं।।२।।
जो मध्यम तमोगुणी हैं वे हाथी, घोड़ा, शूद्र, म्लेच्छ निन्दित कर्म करने हारे सिह, व्याघ्र, वराह अर्थात् सूकर के जन्म को प्राप्त होते हैं।।३।।
जो उत्तम तमोगुणी हैं वे चारण (जो कि कवित्त दोहा आदि बनाकर मनुष्यों की प्रशंसा करते हैं) सुन्दर पक्षी, दाम्भिक पुरुष अर्थात् अपने मुख से अपनी प्रशंसा करने हारे, राक्षस जो हिसक, पिशाच जो अनाचारी अर्थात् मद्यादि के आहारकर्त्ता और मलिन रहते हैं; वह उत्तम तमोगुण के कर्म का फल है।।४।।
जो अत्यन्त रजोगुणी हैं वे झल्ला अर्थात् तलवार आदि से मारने या कुदार आदि से खोदनेहारे, मल्ला अर्थात् नौका आदि के चलाने वाले, नट जो बांस आदि पर कला कूदना चढ़ना उतरना आदि करते हैं, शस्त्रधारी भृत्य और मद्य पीने में आसक्त हों; ऐसे जन्म नीच रजोगुण का फल है।।५।।
जो अधम रजोगुणी होते हैं वे राजा क्षत्रियवर्णस्थ राजाओं के पुरोहित, वादविवाद करने वाले, दूत, प्राड्विवाक (वकील बारिष्टर), युद्ध-विभाग के अध्यक्ष के जन्म पाते हैं।।६।।
जो उत्तम रजोगुणी हैं वे गन्धर्व (गाने वाले) गुह्यक (वादित्र बजानेहारे), यक्ष (धनाढ्य) विद्वानों के सेवक और अप्सरा अर्थात् जो उत्तम रूप वाली स्त्री का जन्म पाते हैं।।७।।
जो तपस्वी, यति, संन्यासी, वेदपाठी, विमान के चलाने वाले, ज्योतिषी और दैत्य अर्थात् देहपोषक मनुष्य होते हैं उनको प्रथम सत्त्वगुण के कर्म का फल जानो।।८।।
जो मध्यम सत्त्वगुण युक्त होकर कर्म करते हैं वे जीव यज्ञकर्त्ता, वेदार्थवित्, विद्वान्, वेद, विद्युत् आदि काल विद्या के ज्ञाता, रक्षक, ज्ञानी और (साध्य) कार्यसिद्धि के लिये सेवन करने योग्य अध्यापक का जन्म पाते हैं।।९।।
जो उत्तम सत्त्वगुणयुक्त होके उत्तम कर्म करते हैं वे ब्रह्मा सब वेदों का वेत्ता विश्वसृज् सब सृष्टिक्रम विद्या को जानकर विविध विमानादि यानों को बनानेहारे, धार्मिक सर्वोत्तम बुद्धियुक्त और अव्यक्त के जन्म और प्रकृतिवशित्व सिद्धि को प्राप्त होते हैं।।१०।।
जो इन्द्रिय के वश होकर विषयी, धर्म को छोड़कर अधर्म करनेहारे अविद्वान् हैं वे मनुष्यों में नीच जन बुरे-बुरे दुःखरूप जन्म को पाते हैं।।११।।
इसी प्रकार सत्त्व, रज और तमोगुण युक्त वेग से जिस-जिस प्रकार का कर्म जीव करता है उस-उस को उसी-उसी प्रकार फल प्राप्त होता है। जो मुक्त होते हैं वे गुणातीत अर्थात् सब गुणों के स्वभावों में न फंसकर महायोगी होके मुक्ति का साधन करें। क्योंकि-
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।१।।तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।२।। –
ये योगशास्त्र पातञ्जल के सूत्र हैं।
मनुष्य रजोगुण, तमोगुण युक्त कर्मों से मन को रोक शुद्ध सत्त्वगुणयुक्त कर्मों से भी मन को रोक, शुद्ध सत्त्वगुणयुक्त हो पश्चात् उस का निरोध कर, एकाग्र अर्थात् एक परमात्मा और धर्मयुक्त कर्म इनके अग्रभाग में चित्त का ठहरा रखना निरुद्ध अर्थात् सब ओर से मन की वृत्ति को रोकना।।१।।
जब चित्त एकाग्र और निरुद्ध होता है तब सब के द्रष्टा ईश्वर के स्वरूप में जीवात्मा की स्थिति होती है।।२।। इत्यादि साधन मुक्ति के लिये करे। और-
अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः।। यह सांख्य का सूत्र है।
जो आध्यात्मिक अर्थात् शरीर सम्बन्धी पीड़ा, आधिभौतिक जो दूसरे प्राणियों से दुःखित होना, आधिदैविक जो अतिवृष्टि, अतिताप, अतिशीत, मन इन्द्रियों की चञ्चलता से होता है; इस त्रिविध दुःख को छुड़ा कर मुक्ति पाना अत्यन्त पुरुषार्थ है।
इसके आगे आचार अनाचार और भक्ष्याभक्ष्य का विषय लिखेंगे।।९।।
इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिकृते सत्यार्थप्रकाशे
सुभाषाविभूषिते विद्याऽविद्याबन्धमोक्षविषये
नवमः समुल्लासः सम्पूर्णः।।९।।
राकेश आर्य बागपत
सह संपादक : उगता भारत