एकात्म मानववाद और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन
एकात्म मानववाद के इस सरस प्रवाह ने स्वतंत्रता आंदोलन के काल में हमारे देशवासियों का मार्गदर्शन किया । इसी प्रकार तुर्क और मुगलों के शासनकाल में उनके अत्याचारों का सामना करने के लिए भी अदृश्य रूप में एकात्म मानववाद के इसी सरस प्रवाह ने हमारे देशवासियों के भीतर राष्ट्र भाव को प्रवाहित किये रखा । इस बात को स्पष्ट करते हुए पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था कि – “हमारी आत्मा ने अंग्रेजी राज्य के प्रति विद्रोह केवल इसलिए नहीं किया कि दिल्ली में बैठकर राज करने वाले विदेशी थे, अपितु इसलिए भी कि हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन में, हमारे जीवन की गति में विदेशी पद्धतियां और रीति-रिवाज, विदेशी दृष्टिकोण और आदर्श अड़ंगा लगा रहे थे, हमारे संपूर्ण वातावरण को दूषित कर रहे थे, हमारे लिए सांस लेना भी दूभर हो गया था. आज यदि दिल्ली का शासनकर्ता अंग्रेज के स्थान पर हममें से ही एक, हमारे ही रक्त और मांस का एक अंश हो गया है तो हमको इसका हर्ष है, संतोष है, किन्तु हम चाहते हैं कि उसकी भावनाएं और कामनाएं भी हमारी भावनाएं और कामनाएं हों। जिस देश की मिट्टी से उसका शरीर बना है, उसके प्रत्येक रजकण का इतिहास उसके शरीर के कण-कण से प्रतिध्वनित होना चाहिए ।”
बात स्पष्ट है कि हमारी अपनी सांस्कृतिक धरोहर विदेशी सत्ताधारियों के शासनकाल में तार – तार हो रही थी । हमारे सांस्कृतिक मूल्य और सामाजिक एवं राजनीतिक आदर्श धूमिल होते जा रहे थे । पूरे देश का चिंतन इस बात में लगा हुआ था कि इन सबकी रक्षा कैसे हो ? फलस्वरूप हम एकात्म मानववाद के सूक्ष्म संस्कार से संकल्पित हो उठे और विदेशी सत्ताधारियों को उखाड़ फेंकने के महान कार्य में जुट गए।
विश्वात्मा परमात्मा की दिव्यता का अनुभव करते हुए जब मनुष्य स्वयं ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना से भर उठता है तो वह सार्थक जीवन की सार्थक अभिलाषा के रूप में स्वयं को प्रकट करता है। तब वह आत्मविकास से अधिक विश्व के प्रत्येक व्यक्ति के विकास में स्वयं कैसे सहायक हो सकता है ? – इस पर अधिक चिंतन करता है। एकात्म मानववाद के प्रति आस्थावान व्यक्ति के लिए ‘ जियो और जीने दो’ का सिद्धांत भी संकीर्ण है ।क्योंकि “जियो और जीने दो ” में भी स्वार्थ है । इसमें भी कुछ ऐसा है कि तुम अपने ढंग से जियो और मैं अपने ढंग से जीऊँ। कहने का अभिप्राय है कि ” जियो और जीने दो ” में मुझे आपके विकास से कोई लेना देना नहीं और आपको मुझ से कोई लेना-देना नहीं । जबकि ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना के प्रति समर्पित एकात्म मानववादी व्यक्ति स्वयं तो उन्नति , वृद्धि और विकास करता ही है साथ ही दूसरों की उन्नति , वृद्धि और विकास में सहायक भी बनता है। क्योंकि उसके लिए संपूर्ण वसुधा ही एक परिवार है । उसकी यह एकात्मता संपूर्ण भूमंडल के सभी प्राणियों में एक विश्वात्मा का वास अनुभव करती है।
एकात्म मानववाद के पवित्रतम भाव से व्यक्ति की संपूर्ण रचनाधर्मिता और उत्पादन क्षमता का उद्भव और विकास होता है । जिसमें उसके मानस की संपूर्ण सकारात्मक शक्तियां प्राणी मात्र और लोक के कल्याण के लिए प्रवाहित होती हैं। ऐसा व्यक्ति स्वयं को राष्ट्र का नागरिक न मानकर उसका सेवक मानता है । स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति में राष्ट्र , समाज या परिवार के भीतर अधिकारों के लिए संघर्ष न होकर कर्तव्य पूर्ति के लिए एक स्वस्थ चर्चा होती है , स्वस्थ चिंतन होता है और स्वस्थ परिवेश सृजित होता है।
समाजवाद, साम्यवाद, पूंजीवाद, उदारवाद, व्यक्तिवाद आदि आयातित वादों को नकारते हुए और मानव मात्र की समस्याओं के समाधान में इनको सर्वथा असफल सिद्ध करते हुए एकात्म मानववाद सिद्धांत को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने आधुनिक राजनीति, अर्थव्यवस्था तथा समाज रचना के लिए उत्तमता से प्रस्तुत किया। श्री उपाध्याय ने बुद्धि, व्यक्ति और समाज, स्वदेश और स्वधर्म , परंपरा तथा संस्कृति जैसे गूढ़ विषयों का चिंतन मनन, एवं गंभीर अध्ययन कर उपरोक्त सिद्धांत का निरूपण किया। सर्वप्रथम उन्होने ही जनसंघ के सिद्धांत और नीति की उन्हीं के शब्दों में ”विदेशी धारणाओं के प्रतिबिंब पर आधारित मानव संबंधी अपुष्ट विचारों के मुकाबले विशुद्ध भारतीय विचारों पर आधारित मानव कल्याण का संपूर्ण विचार करके एकात्म मानव वाद के रूप में उन्हीं सुपुष्ट भारतीय दृष्टिकोण को नये सिरे से सूत्रबद्ध किया।”
पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद के अपने इस सिद्धांत पर विचार प्रस्तुत करते हुए यह स्पष्ट किया कि एकात्म मानववाद इस शास्त्रीय अवधारणा पर आधारित है कि व्यक्ति मन, बुद्धि, आत्मा एवं शरीर का एक समुच्चय है। पाश्चात्य विचारों की अनुपयोगिता इस बात से सिद्ध हो जाती है कि वह मानव के इन अलग-अलग भागों पर टुकड़े-टुकड़े के रूप में विचार करती है।
प्रजातंत्र व अन्य विचारधाराएं
कई लोगों ने अपने विचार प्रस्तुत करते हुए प्रजातंत्र को मानव मात्र की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने में सबसे समर्थ विचारधारा के रूप में प्रस्तुत किया । परंतु व्यवहार में देखा गया कि भय , भूख , भ्रष्टाचार इस व्यवस्था में भी यथावत बने रहे हैं । राजनीतिक गलियारों में एक ऐसे वर्ग को लोकतंत्र ने पुष्पित व पल्लवित किया है जो ‘सत्ता के दलाल’ के रूप में काम करता है और आम जनता तक वह विकास के लिए आवंटित किए गए धन को या तो पहुंचने नहीं देता या फिर पहुंचता है तो वह बहुत कम मात्रा में पहुंचता है । इस प्रकार लोकतंत्र भी मानव की समस्याओं का समाधान करने में असफल विचारधारा के रूप में स्थापित हो चुका है।
लोकतंत्र से अलग एक दूसरी विचारधारा मार्क्सवाद के नाम से संसार में जन्मी । इसने लाखों-करोड़ों लोगों की हत्या करवाई । रक्तपात कराया । अधिकारों की रक्षा के नाम पर लोगों ने लोगों के ही अधिकारों का जमकर शोषण किया । यदि किसी ने शोषण का विरोध किया तो बलशाली व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह ने निर्बल पड़े व्यक्ति या व्यक्ति समूहों का सामूहिक नरसंहार कर दिया । वर्ग संघर्ष की बात कहकर मार्क्सवाद नई विचारधारा को लेकर आया । पर व्यवहार में कुछ ऐसा हुआ कि वर्ग संघर्ष की भावना और भी अधिक भड़क गई । फलस्वरुप यह विचारधारा भी लोगों को रास नहीं आई , और असफल हो गई । इसका कारण यह था कि मार्क्सवाद धर्म की पवित्र भावना को समझ नहीं पाया। उसने बाहरी जगत को समझने व पढ़ने का ही काम किया । मनुष्य के भीतरी जगत की जटिलताओं को वह समझ नहीं पाया । अतः भीतरी जगत को शांत कर बाहरी जगत में शांति स्थापित करने वाले धर्म को भी मार्क्सवाद समझने में असफल रहा । वह धर्म को अफीम कहता रहा और स्वयं अफीम के नशे में रहकर लोगों की हत्याएं करता रहा ।
इस अनर्थक , अनर्गल और फिजूल की विचारधारा ने संसार में करोड़ों लोगों की हत्या करवा दी । इसके उपरांत भी सभ्य समाज के लोगों ने कभी इस विचारधारा में आस्था और विश्वास रखने वाले लोगों को पश्चाताप करने तक का संकेत नहीं दिया।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत