मोक्ष का सच्चा स्वरूप दो प्रकार का है, पहला स्वरूप है, दुखों से छूट जाना और दूसरा स्वरूप है आनंद प्राप्त करना। दुखों की अत्यंत निवृत्ति का अर्थ प्रकृति बंधन अर्थात मायावेष्टïन से छूट जाना है। स्थूल और सूक्ष्म शरीर से जब छुटकारा मिल जाता है तब दुखों का अत्यंत अभाव हो जाता है। न्याय शास्त्र में लिखा है दुखों का कारण शरीर ही है। जन्ममरण के बंधन से मुक्त होकर परमात्मा की अनुभूतिका नाम मोक्ष है और वही मानव, जीवन का वैदिक तथ शुद्घ स्वरूप है। आत्मा के लिए मोक्ष की, बुद्घि के लिए धर्म की, मनके लिए काम की आवश्यकता है, उसी तरह शरीर के लिए अन्न की भी आवश्यकता होती है।
धर्म : मनुष्य के चार पुरूषार्थ हैं, धर्म अर्थ काम और मोक्ष। इसी को दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि मनुष्य अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति करता है, उसे बढ़ाता है उसकी रक्षा करता है और उसे परोपकार, परहित में लगाता है। इन सबका आधार धर्म है। आज धर्म शब्द की जितनी अवहेलना उपेक्षा हुई है उतनी अन्य किसी शब्द की नही।
धर्म वह गुण कर्म है जो परमपिता परमात्मा से प्राप्त हुए हैं। धर्म ईश्वरीय है। वेद तो धर्म का मूल है-वेदो अखिलो धर्म मूलम। और धर्म का फल है मोक्ष या छुटकारा। धर्म की गली तो जौहरीयों की गली जैसी है, उसमें सब्जी मंडी जैसी भीड कहां? अग्नि का धर्म जलाना, प्रकाश देना, गति तथा पदार्थों को सूक्ष्म करना, पर लपटें उठना, गरमी देना है, जो केवल परमात्मा की ओर से है। पत्थर का धर्म पानी में डूब जाना है, लकड़ी का धर्म पानी पर तरंगना है, कोयल का धर्म पंचम स्वर में गाना है, कौवे का धर्म कर्कश कर्णकटु आवाज करना है चुंबक प्रति आकृष्टï होना लोहे का धर्म है। सिंह का धर्म घास खाना नही तो गाय का धर्म मांस खाना नही, स्त्री विषयक आकर्षण होना यह पुरूष का धर्म है और संतान प्रति इच्छा रखना यह स्त्री का धर्म है। आज जरा सोचिए कि क्या यह धर्म किसी वैज्ञानिक ने साधु महात्मा योगियों ने या संत, महापुरूषों ने लगाये हैं? उत्तर होगा नही कदापि नही ना उनकी वह शक्ति है तब निर्णय यही है कि धर्म ईश्वरीय देन है, मानव संस्थापित नही। ध्यान रहे धर्म कभी धर्मी से अलग नही होता। यह ही मोक्ष मार्ग की पहली सीढ़ी है। परंतु दस प्रकार के लोग धर्म को नही जानते नशे में चूर मतवाला, असावधान पागल थका हुआ, क्रोधी, भूखा, जल्दबाज, लोभी, भयभीत और कामी मनुष्य धर्म क्या जाने? धर्म शब्द की विडंबना इस देश में प्रचलित हैं। हमारा दावा है कि संसार की कोई शक्ति ईश्वर प्राणित धर्म से ना वस्तु को ना मनुष्य को निरपेक्ष कर सकती है।
अर्थ-जिस अर्थ का अर्जन धर्म के मूल से नही होता, वह अर्थ, अर्थ नही रहता वह अनर्थ हो जाता है। धन, द्रव्य, संपत्ति कमाना बुरी बात नही, शास्त्र कहता है, शत हस्त समाहर, सहस्र हस्त संकिर, वेद कहता है पतयो रयीणाम्। एक से प्रश्न पूछा आप धन संग्रह किस लिए करते हो? उत्तर मिला सुख शांति ऐश्वर्य के लिए परिवार के लिए। मतलब केवल-स्वार्थ के लिए, परंतु यह धन का सच्चा उपयोग नही। शास्त्र कहता है धन इसलिए कमाओ कि – धन धर्माय यश से, अर्थाय, आत्मने स्वजने च। सर्व प्रथम धर्म के लिए हो, तदनंतर सुयश सुकीर्ति के लिए, पश्चात धन से धन कमाने के लिए और अंत में आया है स्वत: के लिए और अपने परिवार के लिए। वेद कहते हैं-येन धनेन प्रपणं चरामि, धनेन देवा धनं इच्छमान: परंतु वर्तमान स्थिति इससे बिल्कुल विपरीत है, हाय धन, हाय पैसा कर कर के उसका केवल संग्रह हो रहा है, वह ना धर्म के लिए होता है, ना यश के लिए ना अधिक धन कमाने के लिए ना स्वयं के लिए ना परिवार के लिए तभी तो वह काला धन बन जाता है।
क्रमश:
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