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हिंदुत्व की आध्यात्मिक चेतना और एकात्म मानववाद

संपूर्ण ब्रह्मांड किसी एक ही चेतना से चेतनित हो रहा है । उसी चेतना के केंद्र में मानव खड़ा है । मानव अपने विराट स्वरूप को पहचान ले तो उसे यह ज्ञान हो जाता है कि वह अनंत ऊर्जा के किसी अज्ञात स्रोत से स्वयं भी अनंत ऊर्जावान हो रहा है , और उसकी यह ऊर्जा ब्रह्मांड व संपूर्ण सृष्टि के लिए वैसे ही प्रयोग होनी चाहिए जैसे वह स्वयं अपनी अनंत ऊर्जा को संपूर्ण ब्रह्मांड और इससे भी बाहर के लोक लोकान्तरों के लिए व्यय करता रहता है ।

एकात्म मानववाद का चिंतन भारत के वैदिक चिंतन की देन है । यह संसार की अनुपम चिंतनधारा है । जिसे कुछ इस प्रकार समझा जा सकता है कि मानो कोई गोला है , उस गोला के केंद्र में एक व्यक्ति खड़ा है । व्यक्ति से जुड़ा हुआ एक घेरा परिवार, परिवार से जुड़ा हुआ एक घेरा -समाज, जाति, फिर राष्ट्र, विश्व और अन्त में अनंत ब्रम्हांड को अपने में समाविष्ट किये है। कहने के लिए तो ये घेरे हैं , पर वास्तव में कोई घेरा दीवार के रूप में नहीं खड़ा दीखता । परंतु ऐसा तभी संभव है जब व्यक्ति स्वयं को इन सभी काल्पनिक घेरों के साथ एकाकार कर लेता है या ऐसा भाव बनाकर जीता है कि मैं अनंत ऊर्जा का स्रोत होकर अनंत दिशाओं में सोचने वाला हूँ । मैं स्वयं अनंत ,मेरी ऊर्जा अनंत , मेरी सोच अनंत , मेरा कार्यक्षेत्र अनंत , मेरा दृष्टिकोण और व्यक्तित्व की अनंत । ऐसे भाव और भावना में जीने वाले व्यक्ति को संसार का कोई स्वार्थ , कोई लोभ ,कोई लालच , अपने धर्म पथ से भ्रष्ट नहीं कर सकता।

आज का मनुष्य परिवार के जिस घेरे में है , उसे व्यावहारिक स्वरूप में उसके लिए एक दीवार माना जा सकता है । क्योंकि वह उस दीवार से बाहर का देख नहीं पाता , फिर उसका मोहल्ला , गांव , क्षेत्र , प्रान्त , भाषा , संप्रदाय , जाति आदि के ऐसे तंग घेरे हैं जिनसे वह बाहर नहीं निकल पाता और छंटपटा कर मरने के लिए अभिशप्त होता जाता है ।

तालाब से उठती तरंगें

एकात्म मानववाद के अंतर्गत मनुष्य के इन तंग घेरों को तोड़ने और उसे अनंत के साथ जोड़ने का सार्थक प्रयास किया जाता है । इसे वैसे ही समझिए जैसे कोई जल से भरा तालाब है , जिसमें हम कोई ढेला डालते हैं तो ढेला जहां पर डाला जाता है , वहां से अनेकों तरंगें गोलाकार घेरा बनाती हुई तालाब के चारों किनारों की ओर भागती सी दिखाई देती हैं । एक तरंग जब गोलाकार घेरा बनाती हुई तालाब के किनारों की ओर भागती है तो वह दूसरी तरंग के गोलाकार घेरे को अपने लिए बाधा नहीं मानती, अपितु कुछ ऐसा आभास देती है जैसे वह अपने से बड़े घेरे को और अधिक ऊर्जान्वित कर रही है । उसे तालाब के किनारों की ओर भागने में सहायता कर रही है । तालाब में उठी इन तरंगों का तालाब के किनारों की ओर भागने का अभिप्राय है जैसे हर एक तरंग कहीं अनंत में खो जाना चाहती है । वह स्वयं अनंत के साथ एकाकार हो जाना चाहती है । उसका यह अनंत में खो जाने का सतत प्रयास मानो उसकी मुक्ति की साधना है । तरंगे उठ रही हैं तो कहीं शांति की खोज में अनंत में विलीन भी हो रही है।

एकात्म मानववाद की धारणा भी कुछ ऐसी ही है जो मनुष्य को अनंत ऊर्जा के एक केंद्र में खड़ा करती है। उसे इतना अधिक उर्जावन्त करती है कि वह भी कहीं अनंत में विलीन होकर मुक्ति को प्राप्त हो जाए । इसके लिए एक ऐसा अदृश्य परंतु सर्व समावेशी सार्थक परिवेश सृजित किया जाता है कि हर एक व्यक्ति अपने पड़ोसी घेरे में रहने वाले व्यक्ति या व्यक्तियों या व्यक्ति समूह के लिए सहायता करने वाला बन जाता है । उसके इन सहायता करने के भावों को उसके भीतर स्थित सहचर्य , सहयोग और सद्भाव के सूक्ष्म तन्तु ऊर्जान्वित करते हैं। इससे एक ऐसा सुरीला साज निकलता है जो सर्वत्र शांति के मस्ती भरे भावों को भर देता है।

विद्वानों की मान्यता है कि इस अखण्डमण्डलाकार आकृति में एक में से दूसरे , फिर दूसरे से तीसरे का विकास होता जाता है। सभी एक-दूसरे से जुड़कर अपना अस्तित्व साधते हुए एक दूसरे के पूरक एवं स्वाभाविक सहयोगी हैं । इनमे कोई संघर्ष नहीं है। इसके विपरीत एक ऐसा सहयोगात्मक और सकारात्मक ऊर्जा से ऊर्जान्वित प्रयास काम करता हुआ दिखाई देता है जो हर एक व्यक्ति को सबके लिए काम करने की अद्भुत , अनोखी और अलौकिक प्रेरणा देता है । हमारे ऋषि पूर्वजों ने व्यक्ति के भीतर मिलने वाली ऐसी अलौकिक और दिव्य भावना को इस सृष्टि का सबसे अमूल्य तत्व अर्थात प्रेम का नाम दिया है। प्रेम ही वह अदृश्य सूक्ष्म तंतु है , जो संपूर्ण मानवता को एकात्मता के साथ एकाकार करता है। प्रेमरस को यदि संसार के पूरे तंत्र से या तामझाम से निकाल दिया जाए तो मानवता का पूरा भवन ही गिर जाएगा।

महान दार्शनिक प्लेटो के शिष्य व सिकंदर के गुरु अरस्तु ने कहा था – “विषमता का सबसे बुरा रूप है विषम चीजों को एक सामान बनाना।” एकात्म मानववाद दिव्य समतावाद या समानता में विश्वास रखने वाली अवधारणा है । इसमें किसी भी प्रकार की विषमता के लिए कोई स्थान नहीं है। एकात्म मानववाद में विश्वास रखने वाले व्यक्ति को नागरिक के रूप में नहीं अपितु विश्व मानव के रूप में मान्यता प्रदान की जाती है । प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको किसी देश व जाति की संकीर्णताओं में बंधा हुआ अनुभव नहीं करता । वह अपने आप को संपूर्ण भूमंडल के प्रति सचेत , जागरूक और सचेष्ट मानव के रूप में देखता है। इस प्रकार एकात्म मानववाद व्यक्ति को विशाल दृष्टिकोण , विशाल सोच और विस्तृत दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित करता है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का चिंतन

आधुनिक काल में एकात्म मानववाद की इस अनूठी भारतीय परंपरा को नए शब्द , नई भाषा , नई परिभाषा पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के द्वारा दी गई। उन्होंने एकात्म मानववाद की दिव्य भावना को व्यक्ति की आस्था के साथ जोड़कर देखा। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि उन्होंने एकात्म मानववाद को किसी धार्मिक पाखंड का एक अंग बना दिया। इसके विपरीत पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने व्यक्ति की चेतना को इतना पवित्र और उत्कृष्ट बना डालने की संभावना को खोजने और अपनाने के लिए कार्य किया कि प्रत्येक व्यक्ति एकात्म मानववाद के प्रति अपने आप को पूर्णतया समर्पित कर दे। जैसे मंदिर में रखी किसी मूर्ति के प्रति व्यक्ति आस्थावान हो जाता है या एक सदविवेक रखने वाला व्यक्ति अपने धर्म के प्रति आस्थावान होता है , वैसे ही प्रत्येक व्यक्ति एकात्म मानववाद की इस मूल भावना के प्रति आस्थावान हो उठे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने एकात्म मानववाद के इस अलौकिक और दिव्य सिद्धांत को हार्दिक भाव के रूप में अपनाया । उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति को हृदय की गहराइयों से इस प्रकार के फल को अपनाकर चलने के लिए प्रेरित किया । जिससे मानववाद मानवता में परिवर्तित होकर संपूर्ण वसुधा एक ही धर्म और एक ही आस्था से संचालित होने लगे।

वास्तव में मानव के चिंतन की इस उच्चतम पराकाष्ठा को भारत के सनातन धर्म की ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की पवित्र और उत्कृष्ट भावना के साथ समन्वित करके देखा जाना चाहिए । जिसमें व्यक्ति राष्ट्र को एक परिवार के रूप में समझता है । जैसे परिवार में एक व्यक्ति के दूसरे के प्रति कुछ कर्तव्य हैं और उन्हें निभाने का प्रत्येक व्यक्ति प्रयास करता पाया जाता है। इस प्रकार के समन्वयात्मक परिवेश में परिवार में जो व्यक्ति कमाता है , वही सबको खिलाता भी है। भारत के एकात्म मानववाद का इससे उत्कृष्ट कोई उदाहरण मिल नहीं सकता । जहाँ पर कमाने वाला स्वयं को सबके सेवक के रूप में प्रस्तुत करता है और अपने इस धर्म का आजीवन निर्वाह भी करता है। संसार के किसी अन्य देश में ऐसी सुव्यवस्था नहीं पाई जाती।

राष्ट्र में प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे की उन्नति में सहायक होने के लिए उसके प्रति अपने कर्तव्यों को पहचाने और उनका निर्वाह करे । विश्वात्मा परमात्मा की चेतना से चेतनित व्यक्ति जब प्रत्येक व्यक्ति में उसी विश्वात्मा का निवास अनुभव करने लगे तो उसकी इस एकात्मता की भावना को एकात्म मानववाद का सरस प्रवाह कहा जा सकता है।

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

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