एक राजा का मंत्री अपने हर कार्य को ईश्वरीय इच्छा से संपन्न हुआ मानने का अभ्यासी था। वह हर कार्य पर यही कहता था कि ईश्वर जो करते हैं अच्छा ही करते हैं। एक बार वह मंत्री अपने राजा के साथ जंगल में शिकार खेलने गया था, शिकार खेलते-खेलते किसी कारणवश राजा की अपनी तलवार से ही अपने हाथ की एक अंगुली कट गयी। राजा के मंत्री ने बिना देर किये तब भी यही कह दिया कि ईश्वर जो करता कराता है-अच्छा ही करता है। इस पर राजा को बड़ा क्रोध आया। उसने सोचा कि तेरा यह मंत्री तो मूर्ख है, तेरा अंग-भंग हो गया और यह है कि उस पर भी प्रसन्नता व्यक्त कर रहा है। इस राजा ने उस मंत्री को तुरंत अपने राज्य से निकाल दिया। मंत्री ने इस पर भी वही शब्द दोहरा दिये कि ईश्वर जो कुछ भी करता है-वह अच्छा ही करता है।

समय बीतता गया। एक दिन राजा पुन: जंगल में शिकार खेलने गया। इस बार राजा अकेला था। शिकार खेलते-खेलते राजा बहुत दूर निकल गया था। उस दिन जंगलों में रहने वाले किन्हीं लोगों का कोई विशेष पर्व था। जिस पर वह अपनी देवी की प्रसन्नता के लिए कोई नरबली चढ़ाते थे। ये लोग किसी पुरूष की खोज में थे। अचानक इनकी दृष्टि राजा पर पड़ी और उसे इन्होंने घेरकर गिरफ्तार कर लिया।

राजा को नरबली के लिए देवी के मंदिर में ले आया गया। उसे नहलाया गया। तब उसकी बलि की तैयारी की जाने लगी। परंतु तभी उन लोगों के किसी अनुभवी वृद्घ की दृष्टि राजा की कटी अंगुली पर पड़ी। उसने राजा की कटी हुई अंगुली को देखकर तुरंत नरबली की सारी प्रक्रिया रूकवाने की आज्ञा दी। प्रक्रिया रोक दी गयी। तब उस वृद्घ व्यक्ति ने खड़े होकर अपने साथियों से कहा कि- ‘‘ मित्रो! इस व्यक्ति की एक अंगुली नहीं है और अंग-भंग व्यक्ति की बलि से देवी प्रसन्न न होकर अप्रसन्न हो जाएंगी। इसलिए इस व्यक्ति को छोड़ दिया जाए।’’

उस वृद्घ की व्यवस्था का पालन करते हुए राजा को छोड़ दिया गया। राजा को उस मंत्री की बात का स्मरण हो आया कि ईश्वर जो कुछ करता है वह अच्छा ही करता है, यदि उस समय मेरी अंगुली नहीं कटी होती तो आज मेरा जीवन ही समाप्त हो जाना था। राजा ने अगले दिन अपने मंत्री को खोजकर लाने की आज्ञा अपने सैनिकों को दी। मंत्री को ढूंढक़र सैनिक ले आते हैं। तब राजा ने मंत्री से क्षमायाचना करते हुए कहा कि मेरे साथ जो कुछ हुआ वह अच्छा हुआ था यह तो समझ में आ गया, परंतु मंत्री जी आपके साथ (देश निकाला देने पर) जो कुछ हुआ वह कैसे अच्छा हुआ था? यह भी बतायें।

तब उस मंत्री ने कहा – ‘राजन! यह बड़ी सरल सी बात है कि यदि आपको शिकार खेलने जाना था तो आपके साथ मैं भी होता, और जब वे लोग आपको और मुझको एक साथ पकडक़र ले जाते तो आपको तो अंगभंग के कारण छोड़े देते-पर मुझे अवश्य ही अपनी देवी की भेंट चढ़ा देते। इसलिए आपने उस समय मुझे देशनिकाला देकर भी अच्छा ही किया था।’’ हम ईश्वर इच्छा को समझ नही पाते हैं और उसके विधिविधान में अनावश्यक ही हस्तक्षेप करते हैं।

इस दृष्टांत की अपनी सीमाएं हैं। हम यदि किसी की हत्या करते हैं या कोई अन्य कार्य करते हैं तो उसे कराने वाला ईश्वर नहीं है। ईश्वर शुभ कर्मों की प्रेरणा करता है, और उसके ऐसे कर्मों की प्रेरणा से हमारा ओज-तेज एवं बल बढ़ता है। सभी कुछ ईश्वर की इच्छा से ही संपन्न होता नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने से संसार के जितने भी पाप कार्य हैं वे सब भी ‘वैध’ मान लिये जाएंगे तब समस्त भूमंडल पर अराजकता फैल जाएगी। जिसे किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं माना जा सकता।

इस दृष्टांत का केवल एक ही अर्थ है कि हमारे कर्मों का जैसा भी फल हमें मिले उसे हम ईश्वरीय प्रसाद मानकर स्वीकार करें। इससे हमारा हृदय अहंकार शून्य रहेगा और हम आनंद के अनंत स्रोत से अपने आपको सदा जोडक़र देखते रहेंगे। हमारे भीतर आनंद का वह स्रोत कभी सूख नही पाएगा और हम वास्तविक अर्थों में श्रद्घावान बने रहकर अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित होकर आगे बढ़ते रहेंगे।

यज्ञ में कौन कहां बैठे

यज्ञ में बैठने का स्थान भी हमारे ऋषियों ने बहुत सोच समझकर पहले से ही निर्धारित कर दिया है। बताया गया है कि-‘यजमान दम्पती, संस्कार्य व्यक्ति, उपस्थित जनों का स्थान यज्ञ कुण्ड के पश्चिम पूर्वाभिमुख है, होता का भी पश्चिम में है। उद्गाता का पूर्व में पश्चिम की ओर मुख करके है। अध्वर्यु का उत्तर में दक्षिण की ओर मुख करके है और ब्रह्मा का दक्षिण में उत्तराभिमुख है। पारिवारिक यज्ञ में परिवार के इन्हीं यज्ञ के कार्यों के अनुसार अपना स्थान निर्धारित करें। यज्ञ का मुखिया दक्षिण में, मुख्य आहुति देने वाला पश्चिम में, संविधा लगाने वाला उत्तर में, और मुख मंत्रोच्चरण करने वाला पूर्व में अपना आसन रखे। यज्ञ में पत्नी प्राय: करके पति के दक्षिण में बैठती है। इस प्रकार नियमों का पालन करते हुए प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन यज्ञ करके पुण्य का भागी बनना चाहिए, अपना और परिवार का कल्याण करना चाहिए।’

यज्ञ के विषय में बड़ा सुन्दर कहा गया है-

यज्ञ हवन के करने से मिटें सकल दुख द्वंद्व।

मेघ वृष्टि हो सृष्टि पर आवे अति आनंद।।

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

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