सत्ता स्वार्थों को साधने के लिए हो रहा बेजा विरोध
— शिवदेव आर्य
आज देश की स्थिति को देखकर अत्यन्त आश्चर्य होता है कि देश किस दिशा में गति कर रहा है, यह अत्यन्त चिन्तनीय है। जिस सरकार को पूर्ण बहुमत के साथ हम अपने लिए ही चुनते हैं और आज हम ही उसके निर्णयों पर प्रश्न करने लग जाते है? यह कैसी विडंबना है? निर्णयों पर प्रश्न उठाना कोई अनुचित बात नहीं, किन्तु विचारने की आवश्यकता है कि हम किन निर्णयों पर प्रश्न उठा रहे हैं? और प्रश्न उठाने का तरीका क्या है? आखिर हम विरोध किसका कर रहे हैं?
प्रथम तो आवश्यकता है कि हम जाने कि नागरिकता संशोधन विधेयक है क्या? नागरिकता संशोधन अधिनियम (Citizenship (Amendment) Act, 2019) भारत की संसद द्वारा पारित एक अधिनियम है, जिसके द्वारा सन् 1955 का नागरिकता कानून को संशोधित करके यह व्यवस्था की गयी है कि 31 दिसम्बर सन् 2014 के पहले पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए हिन्दू, बौद्ध, सिख, जैन, पारसी एवं ईसाई को भारत की नागरिकता प्रदान की जा सकेगी। इस नये विधेयक के आधार पर पड़ोसी देशों के अल्संख्यक यदि 5 वर्षों से भारत में निवास कर रहे हैं तो वे अब भारत की नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं। पहले भारत की नागरिकता प्राप्त करने के लिए 11 वर्ष भारत में रहना अनिवार्य था।
नागरिकता संशोधन बिल को लोकसभा ने 10 दिसम्बर 2019 को तथा राज्यसभा ने 11 दिसम्बर 2019 को पारित कर दिया था। 12 दिसम्बर को भारत के राष्ट्रपति ने इसे अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी और यह विधेयक एक अधिनियम बन गया। 10 जनवरी 2020 से यह अधिनियम प्रभावी भी हो गया। लोकसभा में इस नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 के पक्ष में 311 मत तथा विरोध में 80 मत पड़े।
इस अधिनियम में मुसलमान शरणार्थियों को नागरिकता नहीं प्रदान की जा सकेगी। इसका कारण यह दिया गया कि उक्त देश मुस्लिम बहुल हैं तथा वे देश स्वयं इस्लामी देश हैं।
अब समझते हैं कि इसका विरोध क्यों शुरु हुआ। विरोध की शुरुआत मुसलमानों को नागरिकता न देने से आरम्भ हुई। विपक्षी पार्टियों तथा मुसलमानों का मानना है कि यह विधेय मुसलमानों के खिलाफ है और भारतीय संविधान के अनुच्छेद – 14 का उल्लंघन करता है। अनुच्छेद – 14 से तात्पर्य है समानता का अधिकार। क्योंकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, फिर यह विधेयक इस्लाम धर्म के साथ कैसे भेद-भाव कर रहा है? भारत के पूर्वोत्तर राज्यों असम, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश में भी इस विधेयक का विरोध आरम्भ हुआ क्योंकि ये राज्य बांग्लादेश की सीमा के अत्यन्त समीपस्थ हैं। इन राज्यों में बांग्लादेश के मुसलमान और हिन्दू दोनों ही बड़ी संख्या में आकर रहते हैं। विपक्षी पार्टियों ने अपनी वोटबैंक की रोटी सेकने के लिए इस नियम को मुस्लमानों की नागरिकता छिनने की बाते कहकर आग में घी डालने का काम किया। असदुद्दीन ओवैसी ने इस विधेयक को देश को तोड़ने वाला बताकर विरोध को जन्म दिया। कांग्रेस ने मुस्लमानों को यह कहकर विरोधी बनाया कि सरकार यह नियम लागू करके भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहती है। सपा तथा बसपा ने भी भारत की मुस्लिम जनता को विरोध के लिए प्रेरित किया।
इस नियम की अत्यन्त आवश्यकता थी क्योंकि किसी भी देश की सरकार का ये कर्त्तव्य होता है कि वह अपनी सीमाओं की रक्षा करे, घुसपैठियों को रोके, शरणार्थियों में छिपे देश के लिए घातक लोगों को पहचाने। हमारे देश में रह रहे शरणार्थियों का कोई तो स्थान होगा। आखिर उनकी भी तो कोई इच्छा होगी कि हम किसी देश के नागरिक कहलायें, जहाँ वे सुख-शान्ति से दो समय का भोजन कर सकें। हमारे निकटवर्ती देशों में निरन्तर अल्पसंख्यकों की संख्या निम्नतम होती जा रही है। उन पर नित कष्टों का पहाड़ गिरता जा रहा है। कहीं तो उन्हें स्थान मिले। क्योंकि इस दुःख दर्द को कोई मानवाधिकार के ठेकेदार तो देखने आते नहीं। इसलिए भारत सरकार ने पूर्ण प्रतिबद्धता के साथ इस नियम को लागू किया। हम भारतवासियों को इस नियम का पूर्ण रुप से स्वागत करना चाहिए। किन्तु दुर्भाग्य है भारतवर्ष की जनता का, जो दूसरों की असत्य बातों को अपने हित के लिए समझकर आग में कूद जाते हैं।
इस आग का उदय हुआ था पूर्वोत्तर राज्यों से। असम में लोग इस कानून का सर्वाधिक विरोध कर रहे थे। धीरे-धीरे यह विरोध की आग देश के अनेक राज्यों में फैलने लगी। कुछ राज्यों में राष्ट्र हित को सोच समझ कर सरकार ने विरोध की अग्नि को प्रज्ज्वलित ही नहीं होने दिया किन्तु कुछ राज्य ऐसे थे जो इस विरोध रुपी अग्नि का पूर्णरूप से सहयोग कर रहे थे।
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली तथा जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय आदि शिक्षण संस्थानों से नागरिकता संशोधन अधिनियम का विरोध हिंसात्मक रुप से शुरु हुआ।
इस विरोध में विश्वविद्यालय के प्रबन्धकों का अप्रत्यक्ष रुप से पूर्ण समर्थन प्राप्त होता है, क्योंकि यदि समर्थन न होता तो परिसर में रहकर ऐसा विरोध कदापि सम्भव ही नहीं है।
इस विरोध ने निश्चय कर लिया था कि हम हिंसा करके सरकारी सम्पत्ति का नाश करेंगे और इस अधिनियम को वापस करायेंगे। बड़े-बड़े राजनेता तथा अभिनेता इनके समर्थन में उतर आये। सभी ने अपनी-अपनी राजनीति की रोटियां पकाने के लिए लोगों को हिंसा के मार्ग से बचाने के स्थान पर हिंसा करने के लिए प्रेरित किया।
विश्वविद्यालयों में हिंसा न हो इसके लिए प्रशासन ने कमर कस ली। अब विरोधियों को कोई तो स्थान चाहिए था जिससे वह अपना विरोध उजागर कर सकें। ऐसे में विरोधियों ने शाहीन बाग को अपना मुख्य केन्द्र बनाया। शाहीन बाग भारत की राजधानी दिल्ली के दक्षिण में स्थित एक आवासीय क्षेत्र है। यमुना के किनारे स्थित यह दिल्ली को नोएडा से जोड़ने वाली सड़क पर स्थित है।
शाहीन बाग में पिछले ढाई मास से सीएए और एनआरसी के विरोध में धरना प्रदर्शन चल रहा है। प्रदर्शनकारियों ने यहाँ अवैध रूप से सड़क पर टैंट लगाया तथा टैंटों में लाउड स्पीकर और बड़ी-बड़ी हैलोजन लाइटें, हीटर आदि लगाये गये। ऐसे में सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। और ध्यान तो प्रदर्शनकारियों के समर्थन में था। कोई गरीब अपने घर में चोरी से बिजली के तार डाल ले तो उससे जुर्माना लेकर प्रताड़ित किया जाता है, पर यहाँ तो सब फ्री था। शाहीन बाग में प्रदर्शन करने वालों से जब पूछा गया कि खाने की व्यवस्था कहाँ से होती है तब कहते थे कि ‘सब अल्लाह ताला की रहम है, सुबह अपने आप ही सारी व्यवस्था कर देता है।’ अब विचार करो कि अल्लाह खुद तो बनाता नहीं होगा। तो आखिर कहीं-न-कहीं इनके समर्थक इनके लिए व्यवस्था करते होंगे। जब लोगों को फ्री में बिरयानी मिलेगी और साथ में रुपये मिलेंगे तो कौन नहीं जाना चाहेगा शाहीन बाग?
इसी बीच दिल्ली के चुनाव होने थे, जिसका पूर्ण लाभ विरोध कराने वाले प्रत्याशियों को हुआ। चुनाव के प्रत्याशियों ने अपने पोस्टरों पर इस विरोध का पूर्ण समर्थन किया। आर्थिक सहयोग भी पहुँचाया। तथा आगे भी सहयोग का आश्वासन दिया गया। इसके बाद 11 फरवरी 2019 को चुनाव का परिणाम आया और आम आदमी पार्टी की सरकार बनी।
शाहीन बाग के लोगों को दिल्ली सरकार का पूर्ण समर्थन प्राप्त था ही। प्रदर्शनकारियों ने योजनाबद्ध तरीके से सड़कों पर उतरकर हिंसा करने का निश्चय किया। 24 फरवरी 2020 से प्रदर्शनकारियों द्वारा हिंसा का तांडव उग्र रुप से आरम्भ हुआ। लोगों के घर जलाये गये, सरकारी सम्पत्ति को क्षतिग्रस्त किया गया, लोगों को चाकुओं से मृत्यु के घाट उतारा गया, सुरक्षाकर्मियों पर खुलेआम गोली तान दी जाती है, आम आदमी का तो घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया है। यहाँ तक कि घर में घुसकर भी तोड़-फोड़ कर रहे हैं। पैट्रोल बम व पत्थर फेंके जा रहे हैं। एक कश्मीर खत्म हुआ तो दूसरा कश्मीर तैयार कर रहें हैं। प्रत्येक जगह को शाहीन बाग बनाना चाहते हैं, जिससे इनके परिवार के लोग फ्री में सब कुछ पा सकें। इनको तो बस हिन्दुत्व के नाम से आजादी चाहिए। इनका बस चले तो रातो-रात हिन्दुस्तान को पाकिस्तान बना दें।
इस हिंसा की ज्वाला ने बहुत से घरों से अपने परिवार के सदस्यों को खोया है। चारों ओर भय का वातावरण तैयार कर दिया है।
इस हिंसा की ज्वाला को भड़काने वाला कपिल मिश्रा को बताया जा रहा है। हम जानना चाहते हैं कि किस आधार पर कपिल मिश्रा दोषी हैं। कपिल मिश्रा ने तो बस इतना ही कहा था कि हम हर जगह शाहीन बाग नहीं बनने देंगे। क्या इनते कह देने मात्र से हिंसा हो सकती है? यदि इतने कह देने से हो सकती है तो कि किस-किस ने क्या-क्या नहीं कहा? आप के विधायक अमानतुल्ला खान ने क्या कुछ नहीं बोला? आम आदमी पार्टी के नेता मनीष सिसोदिया कहते हैं कि हम शाहीनबाग के साथ हैं। असुदुद्दीन ओवैसी कहते हैं कि 15 मिनट के लिए पुलिस हटा दो बता देंगे किसमें कितना दम है। हमने 800 साल तक राज किया है। वारिस पठान कहते हैं कि हम 15 करोड़ 100 करोड़ पर भारी हैं।
और इस हिंसा की भट्टी तो आम आदमी पार्टी के नगरनिगम पार्षद ताहिर हुसैन के घर से चल रही थी। हिंसा की सम्पूर्ण सामग्री ताहिर के घर से प्राप्त होती है तो फिर आज ताहिर हुसैन पर कोई कार्यवाही करने को तैयार क्यों नहीं? दिल्ली सरकार क्यों चुप्पी साधे हुये है? कपिल मिश्रा पर कार्यवाही के लिए संजय सिंह चिल्ला रहे हैं, पर ताहिर हुसैन पर चुप्पी क्यों? मुख्यमन्त्री केजरीवाल जी तो कहते हैं कि यदि आम आदमी पार्टी का कोई दोषी है तो उस पर दोगुनी कार्यवाही की जाये। पर हम जानना यह चाहते हैं कि कार्यवाही करेगा कौन?
आज देश जल रहा है। सब ओर बस हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर राजनीति कर लोगों को लड़ाया जा रहा है। कोई किसी से कम नहीं रहना चाहता। लड़ाई का परिणाम सदैव दुःख ही होता है। इस हिंसा से बचने के लिए यथाशीघ्र उपाय खोजना चाहिए। अपने आप को सुरक्षित रखते हुए सर्वत्र शान्ति को स्थापित करने के लिए प्रयास करना चाहिए।
मुख्य संपादक, उगता भारत