लुप्त नवचण्डी ताल
हरिशंकर शर्मा
नवचण्डी से सम्बद्घ नवचण्डी ताल एवं नौचंदी के विषय में सोचते ही मेरठ के प्रसिद्घ कवि स्वग्रीय रघुवीर शरण मित्र की निम्न पंक्तियां अनायास ही याद आ जाती हैं-
जब से धरा जब से गगन, तब से बने फल फूल हैं,
सब मेल मेले रात दिन, हर जिंदगी के मूल हैं।
हम हर्ष से उत्कर्ष से, पूजा सभी की कर रहे,
मां चण्डी के बाले मियां, हम दीप चुन चुन धर रहे।।
कितना दुखद है कि मेरठ में रहते हुए भी मेरठवासी इस नवचण्डी ताल से एकदम अनभिज्ञ हैं, और हों भी क्यों न, यह शासन प्रशासन आदि सभी की उपेक्षा का शिकार रहा है। मेरठ की पहचान यदि नौचंदी से है तो नौचंदी के मूल में यही तालाब एवं नवचण्डी (नौ देवियों) का मंदिर है। इसका इतिहास भी मंदोदरी से ही प्रारंभ होता है। मंदोदरी मयदंत की अतीव सुंदर, सुशील, उच्च शिक्षित एवं विदुषी पुत्री थी। वह अति तपस्विनी, राजनीतिज्ञ एवं युद्घकौशल में निपुण थी। शतरंज का आविष्कार मंदोदरी ने ही किया था। वह भगवान शिव एवं माता पार्वती (दुर्गा अथवा शक्ति) की अनन्य उपासक थीं। मंदोदरी शिव की पूजा करने बिल्वेश्वर महादेव मंदिर जाती थी तो शक्ति की उपासना करने नवचण्डी आती थी। नवचण्डी की स्थापना भी मंदोदरी ने ही कराई थी। भगवान बोले नाथ की पूजा हेतु उसने बिल्व का वन लगा रखा था तो शक्ति की पूजा हेतु यहां स्थित तालाब में कमल खिलते थे। 1017 ईस्वी में महमूत गजनवी के मेरठ आक्रमण में उसके सिपहसलार सैय्यद सालार मसूद गाजी खून खराबे से विरक्त होकर फकीर बन गये थे। 1194 ई में कुतुबुद्दीन ऐबक ने उनका मकबरा बनवाया जिसे बाजे मियां की दरगाह कहते हैं। लेकिन उसने चंडी मंदिर को ध्वस्त कर दिया। इसका निर्माण बाद में महारानी अहिल्यबाई ने कराया। नौचंदी के प्रारंभ काल का निश्चित समय तो किसी को ज्ञात नही लेकिन इतना जरूर है कि एकदम सुनसान जंगल में लगने वाला यह मेला अपने प्रारंभिक काल में एक दिन के लिए ही केवल दिन दिन में लगता होगा जिसमें देवी मां की पूजा से संबंधित सामान एवं प्रसाद आदि ही बिकता हेागा। धीरे धीरे यह दो दिन का लगने लगा। दूर दूर से आने वाले भक्तों और लोकप्रियता को देखकर 1884 में अंग्रेज कलेक्टर एफ एफ राइट ने इसकी अवधि सात दिन कर दी जो अब एक माह हो गयी है। राइट ने यहां पशु मेला भी प्रारंभ कराया था पर अब यह समाप्त हो गया है। पहले यहां दूर दूर तक जंगल होने के कारण व्यापारी अपनी गाड़ियां मेले के चारों ओर लगाकर एक प्रहार से सुरक्षा कवच बना देते थे। नौचंदी स्मारिका 2003 के अनुसार नौचंदी का प्रारंभ 2007 से 813 वर्ष पूर्व अर्थात 1194 ईस्वी में हुआ। यह मेला साम्प्रदायिक सौहार्द का प्रतीक है। नौचंदी में गुप्त रूप से स्वतंत्रता का प्रचार भी किया जाता था। इसी कारण 1858 में नौचंदी का मेला नही लगा। इसी वर्ष अंग्रेज सरकार ने महान स्वतंत्रता सेनानी धुंधपंथ को पकड़ने के लिए उनका चित्र एवं इश्तकार चिपकाये थे। नौचंदी के प्रसिद्घ हलवा परांठा का प्रारंभ लाहौर से आए एक सज्जन ने किया था। सन 1945 ई में उन्होंने घंटाघर में क्षेत्र में हलवा परांठा की दुकान भी खोली थी। बच्चों को हलवा परांठा मुफ्त बांटते थे। कुछ समय पश्चात वे लाहौर चले गये। लोग उन्हें तो भूल गये लेकिन हलवा परांठा नौचंदी की शान बन गया।
ऐसे ही एक मेले का प्रारंभ 1954 में मौहल्ला देवपुरी से सटे बड़े कब्रिस्तान में शाहगंज ए इल्म के शानदार मकबरे पर यहां के मुतवल्ली और नगरपालिका के पूर्व अध्यक्ष श्री एलएच जुबैरी ने नौचंदी से ठीक एक सप्ताह पहले लगाना शुरू किया था। कुछ वर्ष लगने के बाद यह उर्स बंद हो गया। उक्त पीर शाह-ए-गंज ने 1378 ई में मक्का से आकर मेरठ को अपनी कर्म भूमि बनाया था। देश बंटा तो दिल भी बंट गये। सन 1947 ई के पश्चात हलवे वाले पुन: नही आए।
इस प्रकार यह छोटा सा नवचण्डी ताल स्वयं में युगों युगों का इतिहास समेटे है। प्रारंभ में कच्चे ताल को बाद में किसने पक्का कराया इस विषय में किसी को कोई जानकारी नही है।
सालार मसउद अथवा बाले मियां के विषय में आपने ऊपर पढ़ा लेकिन यहां हम अपने सुधी पाठकों एवं इतिहासविदों के लिए एक गुत्थी लिख रहे हैं। जिनके पास इसका स्पष्टीकरण हो कृपया लेखक को भेजने एवं पत्र-पत्रिकाओं में उद्घृत करने की कृपा करें। उपरोक्त कहानी में सालार मसउद का फकीर साहू का लड़का था जो गजनी चला गया था। उसने मुल्तान, अजमेर, सिंध, दिल्ली, मेरठ कन्नौज आदि को लूट कर सतरख जिला बाराबंकी को अपनी राजधानी बनाया। श्रावस्ती के राजा सुहलदेव की सहायता से हिंदू राजाओं से युद्घ में दिनांक 14 जून 1033 ईं को सालार मसउद मारा गया। मसउद के सिकंदर नामक गुलाम एवं अन्य नौकरों ने समीप के बाल सूर्य मंदिर एवं तालाब बालार्क कुण्ड पर उसकी एक छोटी सी कब्र बना दी।
बालार्क कुण्ड का मेला पूर्व की भांति लगता रहा। सन 1335 में तुगलक बहराइच आया और मौलवियों के कहने पर बालार्क कुण्ड मंदिर को नेस्तानाबूद करके मकबरा एवं दरगाह बना दिया। उसे बाले मियां का मजार एवं मेले को बाले मियां का उर्स कहने लगे। धीरे धीरे लोग बालार्क कुण्ड को भूल गये और याद रह गया बाले मियां। सही कौन और क्या है-मेरठ के बाले मियां या बहराइच के बाले मियां?