बिखरे मोती-भाग 1
ऐसे जनों की नाव की, हरि बनै पतवार
(प्रस्तुत काव्यमाला साहित्य जगत के स्वनामधन्य हस्ताक्षर प्रो. विजेन्द्र सिंह आर्य के स्वरचित दोहों के रूप में है, जिन्हें हम यहां सुबुद्घ पाठकों की सेवा में सादर प्रस्तुत कर रहे हैं।
श्री आर्य जी की काव्य रूप में इससे पूर्व ‘मेरे हृदय के उदगार’ नामक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। इसमें आपने जीवन और जगत की विभिन्न गुत्थियों पर अपने गुंथे हुए विचारों को प्रस्तुत कर पाठकों का असीम प्रेम बंटोरा था, आशा है कि इन दोहों के माध्यम से भी जहां हमारे पाठकों को भारतीय संस्कृति के प्रति उनकी श्रद्घाभक्ति के दर्शन होंगे, वहीं पाठक वृंद भी इन विचार मोतियों को अपने हृदय मंदिर में अवश्य ही सहेज कर रखेंगे। जीवन के सार को जिस प्रकार इन विचार मोतियों में हमारे आगे परोसा गया है, उससे ये हमारे लिए निश्चित ही जीवनोपयोगी बन पड़े हैं।
लेखक का कोटि-कोटि धन्यवाद।
साहित्य संपादक)
भूषित हो सामर्थ्य से,
देय क्षमा का दान।
निर्धन होके भी दान दे,
मिलै स्वर्ग में मान।। 1।।
गृहस्थी होकै आलसी,
हार जाए जो जंग।
ते नर तरसत मान को,
कोउ लगावै न संग।। 2।।
योगयुक्त परिव्राट हो,
रण में जो प्राण गंवाय,
ऐसे जन इहि लोक में,
सदा कीर्ति पाय।। 3।।
काम क्रोध और लोभ तो,
तीनों नरक के द्वार।
यही सुजान की सीख है,
इन तीनों को बिसार।। 4।।
देवों का संकल्प हो,
और सुजानों की सीख।
विद्वानों की नम्रता
ये ही स्वर्ग की लीक।। 5।।
पंचायतन पूजा करे,
वाणी बोलि विचार।
आय देख खर्चा करे,
सुखी रहे परिवार।। 6।।
हाथी हिरन पतंग सब,
मधुकर पांचवीं मीन।
प्राणों तै भी ये गये,
हो इंद्रियों में लवलीन।। 7।।
जो नर होवै ऋण रहित,
सेहत देवै साथ।
सत्पुरूषों का संग हो,
बिगड़ी बनजा बात।। 8।।
होठों पै मुस्कान हो,
दिल में होय द्वेष।
यह छल चालै कुछ दिनों,
निभती नही हमेश।। 9।।
शांत हुए जो वैर को,
फिर से नही जगाय।
रक्षा करै वजूद की,
वो नर श्रेष्ठ कहाय।। 10।।
देवकर्म करै दान दे,
मधुर लोक व्यवहार।
ऐसे जनों की नाव की,
हरि बनै पतवार।। 11।।
जो हक मारै और का,
पापों में महापाप।
एक दिन हरि का न्याय हो,
खाली न जावै शाप।। 12।।
भूल खुदा का खौफ जब,
करै अनीति भूप।
ऐसे नष्ट हो जाएगा,
जैसे गहै बुढ़ापा रूप।। 13।।
आटे में छिपे कंट को,
जैसे निगलै मीन।
ऐसा लालच एक दिन,
प्राण लेयगा छीन।। 14।।
जैसे भौंरा फूल तै,
लेवे शहद निकाल।
राजा अपने कोष की,
ऐसे करै संभाल।। 15।।
दुष्टों से करै मित्रता,
प्रबल तै करै बैर।
करें किनारो मीत सब,
कौन मनावै खैर।। 16।।
वाणी के उद्वेग को,
देखकै बचै सुजान।
मूरख समझै देर में,
जब चल्यो जाय सम्मान।। 17।।
विनय से विद्या शोभती,
धन की शोभा दान।
नारी की शोभा शील है,
भक्त की शोभा ज्ञान।। 18।।
नारायण का अर्थ: जो नर के हृदय में शांति, प्रेम, प्रसन्नता और पवित्रता और आनंद बनकर बैठा है वही तो नारायण है।