कृतज्ञ बनो
जब हम अपने गंतव्यस्थल पर पहुंचे तो हमारा धर्म और हमारी मर्यादा हमसे कह उठे कि इस मार्ग में जिन-जिन लोगों ने जितनी देर तक और जितनी दूर तक साथ दिया उन सबका आभार व्यक्त कर। यह मत सोच कि यहां तक मैं अकेला ही आ गया हूं, तुझे अपने कदमों के साथ उठने वाले उन सभी कदमों को स्मरण करना चाहिए, जो यात्रा के पहले कदम से अंतिम कदम तक कहीं न कहीं तेरे साथ थे। उन्होंने हमें साहस दिया, आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा दी और ऊर्जा दी, यह क्या कम है?
यह भी स्मरण रखिये कि जब हम घर से चले थे तो हमारे माता-पिता का आशीर्वाद , भाई – बहन का स्नेह, बड़ों की शुभकामनाएं और इन सबसे बढक़र ईश्वरीय अनुकंपा हमारे साथ सूक्ष्म रूप में पहले दिन भी हमारे साथ थी और अंतिम दिन भी हमारे साथ थी। साथियों के स्थान पर नये साथी आते गये पर अपने साथ किसी के आशीर्वाद का, किसी के स्नेह का, किसी की शुभकामनाओं का और किसी की अनुकंपा का काफिला ज्यों का त्यों सजा रहा-बना रहा। वह ना तो लुटा और न घटा-हमारा धर्म और मर्यादा जब हमारे हृदय को सारे यात्रा मार्ग को इस प्रकार की सकारात्मकता से लेने के लिए हमें प्रेरित करेगा तो सारा वातावरण ही सकारात्मक ऊर्जा से भर उठेगा। ऐसी सकारात्मक ऊर्जा से ऊर्जान्वित जीवन ही धर्म और मर्यादा का पालन करने वाला होता है, जो दूसरों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन जाता है।
हमारी मर्यादाएं हमारे लिए बंधन नही हैं जैसा कि कुछ लोगों ने अज्ञानतावश प्रत्येक प्रकार की मर्यादा को हमारे लिए एक बंधन सिद्घ करने का प्रचार किया है। मर्यादाएं हमारे तपोबल का प्रतीक हैं, जिनके पालन से हम दूसरों के अधिकारों की रक्षा के लिए स्वयं को एक स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में यंत्रवत ढाल लेते हैं। प्रत्येक सामाजिक सर्वहितकारी नियम के पालन करने में हम अपने आपको परतंत्र जानकर भी परतंत्र नही मानते, अपितु हमें ऐसी परतंत्रता में आनंद आता है। यह आनंद की मर्यादा का रस है। इस रस को आप किसी प्रकार के बंधन में नही ढूंढ़ सकते।
यज्ञ में स्वस्तिवाचन के जितने भर भी मंत्र हैं वे सभी ‘कल्याण या मंगल’ की ओर संकेत करते हैं और कल्याण या मंगल भी हमारा अपना नही-विश्व का कल्याण और मंगल। विश्व के कल्याण और मंगल की यदि बात चली है तो हम इसका कल्याण और मंगल तभी कर सकते हैं जब विश्व के पदार्थों का सदुपयोग करना कराना सीख जाएंगे। ‘स्वस्तिवाचन’ का तीसरा मंत्र है :-
स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भग: स्वस्ति देव्यदितिरनर्वण:।
स्वस्ति पूषा असुरो दधातु न: स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतुना।।
अर्थात ‘‘हे परमेश्वर! आपकी कृपा से सूर्य और चंद्रमा हमारे लिए कल्याणकारी हों। समस्त धन ऐश्वर्य हमारे लिए कल्याण साधक होवें, दिव्य गुणों से भरपूर यह पृथ्वी और इस पर स्थित अचल पर्वत आदि कल्याणकारी हों, पुष्टिकारक अन्न और जीवनदायक जल या मेघ कल्याण प्रदान करें, ये समस्त द्युलोक और पृथ्वीलोक उत्तम ज्ञान से हमारे लिए कल्याणकारी बनें, अर्थात परमात्मा की कृपा से इन सबका उत्तम ज्ञान (धर्म) और सही उपयोग (मर्यादा) करके हम अपना और विश्व का कल्याण करें।’’
धर्म ही धारता है प्रजा को
हमारा धर्म हमें उत्तम ज्ञान-वान बनाना चाहता है। यहां पर धर्म का अभिप्राय हमारी प्रतिभा से भी है, जो स्वाभाविक रूप से हर मनुष्य के भीतर छिपी रहती है, और मनुष्य की परिस्थितियां चाहे जैसी हों पर उसकी प्रतिभा ही होती है जो उसे दूसरा बना डालती है। जैसे कोई व्यक्ति परिस्थितिवश ग्वाला बना हुआ है, परंतु उसकी प्रतिभा उसे वहां से उठाकर कहीं और ले जाती है, और वह विश्व का नामचीन व्यक्ति बन जाता है। जैसे हमारे देश में एक बच्चा परिस्थितिवश चाय बेचता है पर उसकी प्रतिभा उसे उठाकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बना देती है। इसी प्रकार बड़े सहज रूप में हमारा धर्म हमें भीतर से उठते रहने की सतत प्रेरणा देता रहता है। वह रूकने नही देता हमें, वह झुकने नही देता हमें। वह हमें उठने और आगे बढऩे के लिए बार-बार कहता रहता है। यही हमारी प्रतिभा होती है, यही हमारी चेतना होती है। यह हमारा धर्म ही होता है जो हमें किसी असहाय की अथवा किसी बेसहारा की सहायता करने के लिए कहता है, उसका आसरा बनने और सहारा बनने की प्रेरणा देता है और हम होते हैं कि उस प्रेरणा को प्राप्त कर नेक कार्य करते चले जाते हैं, जिनके फलस्वरूप हम एक दिन इतिहासनायक बन जाते हैं। यह हमारी धर्म की साधना का फल होता है, और धर्म होता है कि हमें साधकर या धारण करके चलता रहता है। इसीलिए कहा जाता है कि-
धर्मो धारयते प्रजा:=अर्थात धर्म प्रजा को धारता है, धारण करता है, वह उसे गलत कार्यों को करने से रोकता है।
जो लोग यह मानते हैं कि धर्म अनेक हैं, जैसे हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई-वे भूल करते हैं। वास्तव में ये धर्म नही-संप्रदाय हैं, मजहब हैं। इन मजहबों को स्वीकार किया जा सकता है या धारण किया जा सकता है। धर्म इनसे अलग है, और बड़ी चीज है। वह उल्टा हमें ही धारण किये रखती है। बड़े-बड़े शास्त्र पढ़ लेना, बड़ी-बड़ी ज्ञान की बातें कर लेना धर्म नही है। हां, इनमें धर्म की प्रेरणा अवश्य है। यह आवश्यक नही कि बड़े-बड़े शास्त्र पढऩे और बड़ी-बड़ी ज्ञान की बातें करने से ही धर्म का मर्म समझ में आता है। धर्म तो हमारे भीतर छुपा बैठा है, जिसे मां की ममता में आप अपने आप देख सकते हैं, मां चाहे गाय हो और चाहे हमारी जननी माता हो दोनों की ममता अपने बच्चों के प्रति समान होती है। इतना ही नही अन्य मादाएं भी अपने बच्चों से ऐसा ही प्रेम करती हैं। उनकी यह ममता किसी ने उन्हें किसी धर्मशास्त्र से नही पढ़ाई है, अपितु स्वाभाविक रूप से माता-बनते ही उनके भीतर अपने आप आ जाती है। हम ऐसे ही धर्म की बात करते हैं जो हमें ज्ञानवान बनना चाहता है-हमारे भीतर हमारी चेतना बनकर जो हमारी प्रतिभा के रूप में विराजमान है। पशु-पक्षियों की योनियों में यह धर्म सुप्त अवस्था में रहता है, परंतु मानव योनि में यह मुखर हो जाता है , क्योंकि मानव योनि भोग योनि और कर्मयोनि दोनों हैं। इसमें मनुष्य अपने धर्म को और भी अधिक गहराई से समझ सकता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
लेखक की आने वाली पुस्तक – “पूजनीय प्रभु हमारे – – -” से