कुटिलता युक्त पाप रूप कर्म
स्पष्ट है कि ऐसा उत्तम प्रशंसनीय और अनुकरणीय जीवन यज्ञमयी परोपकारी भावना को आत्मसात करने से ही बनेगा। जिसके जीवन में यज्ञोमयी भावना नही, वह तो निरा लोहा होता है। लोहा लाल होकर भी भट्टी से निकलते ही जैसे ही ठण्डा होता है तो फिर काला पड़ जाता है। इसी प्रकार संसार में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें संयोगावशात यदि सत्संगति मिल भी जाए तो भी वह उसका लाभ नही उठा पाते। क्योंकि उन पर लोहे की भांति अपने अहंकार की ऐसी परत चढ़ी रहती है जिसके प्रभाव से सत्संगति उन पर अधिक प्रभाव नही डाल पाती।
महर्षि दयानंद जी महाराज ने ‘स्तुतिप्रार्थनोपासना’ के जिन आठ मंत्रों को चुना है, उनमें आठवां मंत्र है :-
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान विश्वानि
देव वयुनानिविद्वान
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते
नम उक्तिं विधेम्।। (यजु. अ. 40/मंत्र 16)
अर्थात-‘हे ज्ञानप्रकाश स्वरूप, सन्मार्ग प्रदर्शक दिव्यसामथ्र्ययुक्त परमात्मन! हमको ज्ञान-विज्ञान ऐश्वर्यादि की प्राप्ति कराने के लिए धर्मयुक्त कल्याणकारी मार्ग से ले चल। आप समस्त ज्ञानों और कर्मों को जानने वाले हैं। हम से कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कीजिए। इस हेतु से हम आपकी विविध प्रकार की और अधिकाधिक स्तुति-प्रार्थना उपासना सत्कार व नम्रता पूर्व करते हैं।’
इस मंत्र में ऋषि ‘‘कुटिलता युक्त पापरूप कर्म को दूर कराने की प्रार्थना कर रहा है। बात स्पष्ट है कि कुटिलता युक्त पापरूप कर्म ही है जो हमारा संबंध यज्ञ और परोपकार से नही होने देता है। कहा गया है :- —
‘‘मेरे पापकर्म ही तुझसे प्रीति न करने देते हैं।
कभी जो चाहूं मिलंू आपसे रोक मुझे ये लेते हैं।।’’
जहां पापरूप कर्मों का पहरा होता है वहां पुण्य कर्मों की फसल पर तुषारापात हो जाता है, वहां परोपकार की भूमि बांझ हो जाती है और सदाचार विनष्ट हो जाता है। इसलिए ऋषि ने बड़ी विनम्रता से इस प्रार्थना मंत्र में स्पष्ट किया है कि-‘‘युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो’’-हे दयानिधे! हमें उन्नति पथ पर ले चलने वाले पिता, और हम पर सदा अपने उपकारों की वर्षा करने वाली माता तू हमें कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म से बचा। क्योंकि ऐसे कर्म ही हमारे पुनर्जन्म का कारण बनते हैं, और हमें भोगयोनियों में ले जाकर पटक देते हैं। अब जब हम कर्मयोनि और भोगयोनि अर्थात मानवयोनि में हैं तो हमें ऐसा विमल-निर्मल धवल और सबल बना कि हम अपने इस मानव जीवन को सफल बना लें। हमारा जीवन यज्ञमय हो जाए और परोपकारी हो जाए-आपसे यही प्रार्थना है :–
‘‘ना है चाह कोई ना कोई इच्छा
अपनी दया की मुझे दो भिच्छा।।’’
मेरी इच्छा है-मेरा जीवन यज्ञमय हो-मेरी भिच्छा है-मेरा जीवन परोपकारी हो। ऐसी पवित्र प्रार्थना वैदिक संस्कृति में ही संभव है। अन्य संस्कृतियों में (जो संस्कृति तो हैं ही नही) तो ‘राम नाम जपना-पराया माल अपना’ वाली कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म की ही माला जपी जाती है और जब से इस माला को हमारे भारतीय समाज ने जपने की परंपरा पर आस्था बढ़ायी है-तभी से देश में सामाजिक परिस्थितियां कलहपूर्ण होती जा रही हैं। हमें चिंतन करना होगा कि संस्कृति अपनी अपनायें या किसी विदेशी संस्कृति को अपनायें ?
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत