सरदार पटेल की गर्जना थम नही रही थी। आगे गरजते हुए और संबंधित सदस्य की ओर मुखातिब होकर बोले-मैं उस छोटे भाई का प्यार गंवाने के लिए तैयार हूं (लेकिन राष्ट्रहितों से कोई समझौता अब नही होगा) यदि ऐसा नही किया गया तो बड़े भाई की मृत्यु हो सकती है। आपको अपनी प्रवृत्ति में परिवर्तन करना चाहिए। स्वयं को बदली हुई परिस्थितियों के अनुसार ढालना चाहिए। यह बहाना बनाने से काम नही चलेगा कि हमारा तो आप से घना प्यार है। हमने आपका प्यार देख लिया है अब इसकी चर्चा छोड़िए। आईए हम वास्तविकताओं का सामना करें। प्रश्न यह है कि आप वास्तव में हमसे सहयोग करना चाहते हैं या तोडफोड़ की चालें चलना चाहते हैं। मैं आपसे हृदय परिवर्तन का अनुरोध करता हूं। कोरी बातों से काम नही चलेगा, उससे कोई लाभ नही होगा। आप अपनी प्रवृत्ति पर फिर से विचार करें यदि आप सोचते हैं कि उससे आपको लाभ होगा तो आप भूल कर रहे हैं। मेरा आपसे अनुरोध है कि बीती को बिसार दें, आगे की सुध लें। आपको मनमानी वस्तु मिल गयी है और स्मरण रखिए आप ही लोग पाकिस्तान के लिए उत्तरदायी हैं, पाकिस्तान के वासी नही। आप लोग आंदोलन के अगुआ थे। अब आप क्या चाहते हैं? हम नही चाहते कि देश का पुन: विभाजन हो।
पाठक वृन्द, लम्बे उद्घरण के लिए क्षमा प्रार्थी हूं। परंतु देश की संसद में वंदेमातरम् गाये जाने के समय बसपा के सांसद डा. शफीकुर्रहमान ने जिस प्रकार संसद से बहिगर्मन किया उस शर्मनाक और राष्ट्रविरोधी कृत्य को देखकर अनायास ही भारत के शेर सरदार पटेल का स्मरण हो आया। इसलिए उनके वक्तव्य को आपके समक्ष ज्यों का त्यों रखा। मंतव्य यही था कि काश! आज भी हमारे पास कोई सरदार (सरदार मनमोहन जैसा काम चलाऊ सरदार नही) होता जो भरी संसद में इस प्रकार के आचरण की बखिया उधेड़ता और ऐसे राष्ट्रद्रोहियों को संसद से चलता करा देता। यद्यपि लोकसभाध्यक्ष मीरा कुमार ने बसपा सांसद को कड़ी फटकार लगायी है परंतु जो सजा मिलनी चाहिए थी वह नही मिली। मैं पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम और उनके विचारों में आस्था रखने वाले किसी भी राष्ट्रवादी मुस्लिम की भावनाओं का सम्मान करते हुए कहना चाहता हूं कि भाजपा में मुस्लिम साम्प्रदायिकता को देश के संविधान, देश के कानून और देश की संसद से भी बड़ा मानकर चलने वाले राष्ट्रद्रोहियों को कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति ने ही हवा दी है। वरना क्या हिम्मत थी एक सांसद की कि जब सारी संसद वंदनीय मातृभूमि के लिए शीश झुकाए खड़ी थी तो उस समय वह संसद से बहिगर्मन कर जाए? जिसे हम मातृभूमि कहते हैं उसे उर्दू के शायरों ने ‘मादरेवतन’ कहकर सम्मानित किया है। उस मादरेवतन के प्रति गद्दारी का यह भाव इसीलिए आता है कि उसे कुछ गद्दारों द्वारा मां माना ही नही जाता। जबकि भारत की परंपरा रही है कि हर बेटा मां की सेवा करेगा। हम कम्युनिस्टों की उस कफनखोस प्रवृत्ति के समर्थक नही हैं जिसमें हर कदम पर मां के सामने हठ करते हुए बैठा जाता है और कहा जाता है कि हमारी मांगें पूरी करो-हमारी मांगे पूरी करो। हम मां के दिल को जानते हैं और ये समझते हैं कि मां हमारे बिना कहे ही हमारी मांगें पूरी करती है। इसलिए हमें मां के प्रति कृतज्ञ बनना सिखाया जाता है। हम मां से बगावत नही करते, फिर चाहे वह जन्म देने वाली मां हो या मातृभूमि या गौमाता या गंगा मैया। जिसे मां कह दिया उसके प्रति श्रद्घानत हो जाते हैं। लेकिन मां कहते तभी हैं जब ये देख लेते हैं कि वह मां की तरह ही हमें कितना दे रही है और दिये जा रही है बिना इस बात का ध्यान किए दिये जा रही है कि बेटा को जितना चाहिए था उससे कहीं अधिक मिल गया है-फिर भी दे रही है। मातृभूमि जब अन्न देती है, औषधि देती है, गंगा जब पानी देती है, हरियाली देती है, गाय जब दूध देती है, घी देती है तो ये नही देखती कि शफीकुर्रहमान जैसा नालायक बेटा भी उससे लाभ ले रहा है, वह देती जाती है, बस ये सोचकर कि नालायक भी है तो है तो मेरा बेटा ही। लेकिन क्या नालायक की नालायकी की कोई सीमा नही है? अवश्य है और उस सीमा को समझाने के लिए ही आज देश की राजनीति को सरदार पटेल जैसे नेतृत्व की आवश्यकता है। कांग्रेस ने तुष्टिकरण की राजनीति से देश का अहित किया है, इसीलिए वह पटेल के बाद दूसरा पटेल पैदा नही कर पायी। तुष्टिकरण और वोट की राजनीति के गंदे खेल ने यहां पटेल को मार दिया और इसीलिए एम.सी. छागला को लिखना पड़ा-‘कांग्रेस ने मुसलमानों को प्रसन्न रखने की चिंता में बहुत से ऐसे मुसलमानों को भोली भाली जनता के सामने राष्ट्रीय मुस्लिम नेताओं के रूप में पेश किया जो वास्तव में हृदय से घोर कट्टरवादी थे।’
ऐसे ही चेहरे कांग्रेस की राजनीति की नकल करने वाले अन्य दलों को मिले। उन्हीं में से एक बसपा के शफीकुर्रहमान हैं। वरना दूसरी ओर भाजपा के शाहनेबाज भी देखे जा सकते हैं जिन पर अच्छे विचारों का प्रभाव है और उन्होंने बसपा सांसद की ‘करतूत’ की निंदा की है।
भारत में पंथनिरपेक्षता की स्थापना की गयी है तो इसका अभिप्राय ये नही है कि आप अपनी निजी मान्यताओं और निजी कानूनों को देश के कानूनों और देश की परंपराओं के आड़े लाओगे। इसका अभिप्राय है कि आप को अपने मजहब के पालने की छूट होगी लेकिन वह घर की चारदीवारी में होगी देश और समाज को आप अपनी मजहबी मान्यताओं से ताक पर नही रख सकते। देश के मुसलमानों ने देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप का निजी हित में दोहन किया है। उनकी सोच ये होती है कि मानवतावादी हिंदू का जितना अधिक शोषण कर लिया जाए उतना ही कम है। इसीलिए एम.आर.ए बेग साहब ने ‘मुस्लिम डिलेमा इन इंडिया’ नामक पुस्तक में लिखा है ‘कि वास्तव में कभी कभी ऐसा लगता है कि मुसलमान सभी हिंदुओं से तो मानवतावादी होने की आशा करते हैं किंतु स्वयं वह साम्प्रदायिक बने रहना चाहते हैं’। इसीलिए डा. मुशीरूल हक अपनी पुस्तक ‘इस्लाम इन सैकुलर इंडिया’ में लिखते हैं ‘ऐसा लगता है कि अधिकांश मुसलमान यह चाहते हैं कि शासन तो पंथ निरपेक्ष बना रहे किंतु मुसलमानों की पंथ निरपेक्षता से रक्षा होती रहे। देश की संविधान सभा में धार्मिक स्वतंत्रता पर बहस में भाग लेते हुए सम्मानित सदस्य तजम्मुल हुसैन ने कहा था कि संविधान की धारा 25 में लिखा जाए कि कोई भी व्यक्ति इस प्रकार का कोई निशान नाम अथवा परिधान धारण नही करेगा जिससे उसके पंथ की पहचान हो सके। उन्होंने कहा था कि हमारे देश में भी एक सा परिधान नाम और निशान लागू किया जाए तभी धर्मनिरपेक्षता की रक्षा हो सकती है। हम किसी विशेष पंथ के अनुयायी के रूप में पहचाने ही नही जाने चाहिए। कांग्रेस ने यदि तजम्मुल साहब के विचारों को अपना लिया होता तो आज शफीकुर्रहमान पैदा नही होता। सचमुच शफीकुर्रहमान की हरकत पर तजम्मुल साहब की रूह भारत के नेतृत्व से यही कह रही होगी कि हमने तो पहले ही कहा था। क्या हम अब भी राष्ट्रधर्म के नियामक तत्वों का निरूपण और रेखांकन नही कर सकते। समय तो कह रहा है कि सावधान हो जाओ…अब मनमोहन न सुनें तो इसमें समय का कोई दोष नही है। परंतु शफीकुर्रहमान के खिलाफ कठोर कार्रवाही होनी चाहिए। हमारा मानना है कि ऐसे सांसदों को संसद की सदस्यता से ही वंचित कर दिया जाना चाहिए।