बिखरे मोती-भाग 2
राजा रक्षक राज का,
पशु का रक्षक मेघ।
पत्नी का रक्षक हो पति,
ब्राह्मण रक्षक वेद ।। 19।।
रूप की रक्षा मसाज से,
सत्य से रक्षित धर्म।
विद्या रक्षित धर्म।
विद्या रक्षित अभ्यास से,
कुल रक्षित सत्कर्म ।। 20।।
देख पराए सुख को,
जलता जो इंसान।
सूखा जैसा रोग है,
मिलता नही निदान ।। 21।।
धन विद्या और मित्रजन,
सबको दे भगवान।
सत्पुरूषों की शक्ति ये,
दुष्ट करे अभियान ।। 22।।
सत्पुरूषों को चाहिए,
दुष्ट से करें बचाव।
दुष्ट की संगत जो करे,
एक दिन डूबै नाव ।। 23।।
शील गया तो सब गया,
शील रहयो सब आय।
शील बिना जीवन नहीं,
सुकून भी शील समाय ।। 24।।
मध्यम मृत्यु से डरै,
आम डरै धन जाए।
अपयश से उत्तम डरै,
मान चलयो नही जाए ।। 25।।
मदिरा का जो मद चढ़ै,
उतर जाए प्रभात,
उतरै मद ऐश्वर्य का,
जब गहरे गर्त में जात।। 26।।
सुई के सुराख से,
गुजर सके हैं ऊंट।
धनी न सीढ़ी चढ़ सके,
बंद स्वर्ग की खूंट ।। 27।।
धन के स्वामी बहुत हैं,
मन का स्वामी न कोय।
जो मन को स्वामी बनै,
इंद्रियां चेरी होय।। 28।।
प्राणियों की गति जो करै,
वो सत्पुरूष कहाय।
गति में जो बाधा बनै,
दुष्ट की संज्ञा पाप।। 29।।
मोटी मछली जाल को,
जैसे नष्ट कर देत।
तैसई काम क्रोध भी,
बुद्घि करें अचेत ।। 30।।
पापी को त्यागै नही,
तो सहना पड़ै, आघात।
सूखी लकड़ी के साथ में,
गीली भी जल जात ।। 31।।
जिसकी पांच ज्ञानेन्द्रियां,
वश में रहती न होय।
दुख भागै है एक दिन,
शीश पकड़ कै रोय ।। 32।।
दुष्टो में सदा होत है,
आर्जवता का अभाव।
वाणी में संयम नही,
बोलें तो करें घाव ।। 33।।
क्षमाशील और पराक्रमी,
दिन दिन बढ़ता जाए।
प्रतिशोध में जो जलै,
मानो दीमक पेड़ को खाय।। 34।।
दुष्ट का बल हिंसा कहें,
गुणियों का क्षमादान।
नारी का बल शील है,
राजा का दण्ड विधान ।। 35।।
वाणी का संयम कठिन,
ज्यों खांडे की धार।
पगड़ी की बुनियाद है,
और जीवन की पतवार।। 36।।
अच्छी वाणी मनुज का,
करै बहुत कल्याण।
बुरी वाणी का बोलना,
नियरे आफत जान ।। 37।।