देश में अराजकता बढ़ती जा रही है। चारों ओर से अशांति और उपद्रव के ऊंचे होते स्वर सुनाई दे रहे हैं। कितने ही आतंकी संगठन देश में सक्रिय हैं जो आम आदमी की रोजमर्रा की जिंदगी को अपनी आतंकी गतिविधियों से किसी न किसी रूप में प्रभावित कर रहे हैं। जिन संगठनों को आतंकी मान लिया गया है उनकी बात अलग है, पर ऐसे आतंकी संगठन भी हैं जो देश की आम जनता के बीच आतंकी तो नही हैं, पर आतंक फेेलाने का या अशांति और उपद्रव फैलाकर अपनी रोटी सेंकने का काम कर रहे हैं। इनमें देश के कितने ही राजनीतिक दल भी सम्मिलित हैं। नेताओं को भीड़ चाहिए भीड़ के सामने भड़ास (भाषण नही) निकालने का अवसर चाहिए और अपने स्वार्थ पूरे करने का कोई सस्ता ढंग चाहिए। ऐसा सस्ता ढंग नेताजी को लाशों की राजनीति से मिलता है, उपद्रव और अशांति फैलाने से मिलता है।
ऐसे कितने ही मामले होते हैं, जिनमें अपराध और अपराधी को बचाने में नेता लोग सक्रिय रहते हैं, पुलिस जांच को प्रभावित करते हैं, या पुलिस से कोई कार्यवाही न करने का दबाब बनाते हैं। लूट, हत्या, डकैती, बलात्कार, फिरौती जैसे अधिकांश जघन्य अपराधों में कहीं न कहीं पीछे खड़ा कोई नेता मिल जाएगा। अधिकांश अपराधी अपराध करके किसी न किसी अपने ‘आका’ की शरण में चले जाते हैं। ऐसे ‘आका’ केा अपने लिए कोई अपराधी चाहिए और ऐसे अपराधी को अपने लिए कोई ‘आका’ चाहिए। इस प्रकार ‘आका’ और अपराधी दोनों का चोली दामन का साथ बन गया है। पुलिस परेशान रहती है कि अपराधी को कैसे पकड़ा जाए वह जानती है कि सच क्या है लेकिन स्वयं को कई मामलों में असहाय समझकर उल्टे जनता को या पीड़ित पक्ष को ही लताड़ने फटकारने लगती है। तब पीड़ित पक्ष कई बार स्वयं हथियार उठा लेता है और अपराधी का या उसके पक्ष के किसी आदमी का या उसके पक्ष के किसी आदमी काा स्वयं ही सफाया कर देता है। इससे समाज के लोगों में और भी अधिक बेचैनी बढ़ती है, अशांति बढ़ती है।
क्योंकि ऐसी मानसिकता से गैंगवार बनते हैं, और किसकी मौत कब कहां और कैसे आ जाए कुछ पता नही होता। फूलन देवी ऐसी ही मानसिकता से ‘डाकू’ बनी और उस जैसे अन्य कितने ही लोग इस रास्ते पर चले जाते हैं। लड़ाई वास्तव में आकाओं की होती है और मोहरें कई बार अपराधी होते हैं, उन मौहरों को ये आका अपने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए लड़ाते रहते हैं और हम देखते हैं कि एक अपराधी खत्म होता है तो दूसरा उसका स्थान फटाफट ले लेता है। दूसरे के राजतिलक में भी पीछे बैठे ‘आका’ का ही हाथ होता है।
अपराध और अपराधी को समाप्त कर आम जनता को सुख की जिंदगी जीने देना राजनीति का उद्देश्य है, लेकिन जब राजनीति ही अपराध और अपराधी को संरक्षण देने लगे तो क्या होगा? कितने ही नेता, कितने ही पुलिस अधिकारी और दूसरे अधिकारी विवादित संपत्तियों को कौड़ियों के भाव खरीदकर उस पर अवैध कब्जा कर रहे हैं और वास्तविक हकदार व्यक्ति को उसकी संपत्ति से बेदखल कर न्यायालयों में तैनात भ्रष्टï अधिकारियों और जजों को खरीदकर दिन रात से तिजोरियां भरते जा रहे हैं। देश में अपनी संपत्ति से इस प्रकार बेदखल होने वालों की संख्या बढ़ रही है, उनकी बद दुआएं इस व्यवस्था को ग्रस रही हैं, अवैध कामों को व्यवस्था के सिपहसालार ही अंजाम दे रहे हैं और व्यवस्था को पंगु बना रहे हैं। देश को वास्तव में ऐसे सिपहसालारों से ही अधिक खतरा है, ये ‘सफेदपोश या वर्दीधारी’ आतंकी है और इनकी काली करतूतों से ही देश का आम आदमी अधिक त्रस्त है। हर ओर बगावत के स्वर हैं, आदमी जीने से करना बेहतर मान रहा है। हर वर्ष 15 अगस्त को लालकिले की प्राचीर से देश का प्रधानमंत्री भाषण देता है, पर उसे सुनने केवल स्कूलों के बच्चों के सिवाय कोई नही जाता। क्योंकि उस भाषण में कोई रस नही रहा। बगावत के इस स्वर को पहचानने की आवश्यकता है। नेताओं अधिकारियों और अपराधियों के गठबंधन को जोड़ने की आवश्यकता है। क्योंकि बुद्घिजीवी लोग विचारने लगे हैं कि देश को बढ़ती बगावत किस तरफ ले जाएगी।
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