हर्ष में हो मग्न सारे शोक सागर से तरें
पूजनीय प्रभु हमारे… अध्याय — 4
जीवन एक साधना है, इतनी ऊंची साधना कि जिसकी ऊंचाई को कोई नाप नही सकता। जितनी ऊंची जिसकी साधना होती है उतना ही महान उसका जीवन होता है। भारत में हमारे पूर्वजों ने दीर्घकाल तक महान जीवन की महान साधना की, जिसके परिणाम स्वरूप युग-युगों तक यह विश्व जीवन की महान साधना-धर्म से शासित होता रहा। हमारे धर्म ने हमें इस संसाररूपी शोक सागर में भी समभाव बरतने का व्यावहारिक और तर्कसंगत उपदेश दिया। शोक सागर को हर्ष में मग्न रहकर तर जाने की अनोखी और अनुपम शिक्षा दी। कवि ने इस प्रार्थना की इस पंक्ति में जीवन के इसी सत्य को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है और मानो हमारे महान पूर्वजों की जीवन-साधना की वीणा के एक-एक सुर को हमारे सामने लाकर उड़ेल दिया है।
महान गुणवती नारी
प्रो. रामप्रसाद वेदालंकार लिखते हैं कि-एक प्रसिद्घ नगर के एक मुहल्ले में एक बड़ी ही विदुषी बहन रहती थी। उसके उत्तम गुण, कर्म-स्वभावों का प्रभाव केवल उसके ननद-देवर, सास, श्वसुर पति आदि घर-परिवार के लोगों पर ही नही था, वरन सारे गली मौहल्ले और नगर के गणमान्य परिवार भी उससे अत्यंत प्रभावित थे। उसके कारण उसके घर परिवार ने भी एक बहुत बड़ा मोड़ लिया था। पति तो उससे अत्यंत प्रसन्न था। सास-श्वसुर उसको बहू के रूप में पाकर अपने कुल को सदा धन्य धन्य कहते थे। उसकी विनम्रता और सरलता उसकी महानता को और भी चार चांद लगा देती थी।
कई वर्षों के उपरांत घर में एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। सभी परिवार के सदस्यों ने खूब खुशियां मनायीं। मिठाईयां खाई और खिलायीं। बच्चा भी शनै:-शनै: चंद्रकला की तरह बढ़ता हुआ सबको अपनी किलकारियों के द्वारा हर्षित प्रहर्षित करने लगा। माता-पिता कुछ दिनों के लिए हरिद्वार आदि तीर्थों पर भ्रमण आदि के लिए चले गये। पीछे बच्चा कुछ रूग्ण सा हो गया। पति-पत्नी दोनों बड़े प्यार से उसकी चिकित्सा कराने लगे। बच्चे को कुछ आराम भी आया, पर सहसा एक दिन जब पतिदेव घर आये तो पत्नी ने उनको पानी आदि दिया और बैठने पर कहने लगी-
‘‘पतिदेव एक बात कहूूं ?’’ पति बोले – ‘ कहो। ‘ तब वह कहने लगी-‘‘5-6 माह हुए मैंने अपनी पड़ोसन से किसी काम के लिए कैंची ली थी। वह कैंची जापानी थी, अत: वह बहुत अच्छी थी। मेरे मन को भा गयी थी। वह मुझे इतनी अच्छी लगी कि उससे मुझे मोह हो गया। अत: काम करने के उपरांत मैंने उसे वह कैंची वापस नही दी। स्वयं अपने पास ही वह रख ली। आज जब उस पड़ोसन को उस अपनी कैंची की याद आयी तो उसने आकर वह कैंची मुझ से मांगी। पतिदेव ! उसके मांगने पर भी मैंने उसको आज वह कैंची नही दी। हां, उसको देने से टालने की कोशिश मैंने अवश्य की। इस पर उसने मुझे बहुत बुरा भला कहा, पर वह सब बुरा-भला सुनकर भी मुझ से वह कैंची दी ही नही गयी।’’
इस पर उसके पतिदेव बोले-‘‘देवी! तू तो इतनी महान है, तुझे तो ऐसा कभी नही करना चाहिए था। प्रथम तो जब उससे काम करने के लिए तूने कैंची ली थी तो तुम्हारा कर्त्तव्य था कि तुम काम करने के बाद तुरंत ही उसी को वह कैंची दे देतीं।
पर चलो अगर तू तब वह कैंची नही दे पायी तो अब तो जब वह कैंची मांगने स्वयं तुम्हारे पास आ गयी थी तो तुम्हें वह दे देनी चाहिए थी। देवि ! तेरा इतना यश है, अत: तेरे जैसी नारी में ऐसी बात शोभा नही देती। प्रिये! प्रभु की कृपा रही तो तेरे लिए वैसी ही कई और कैंची आ जाएंगी, पर अब तो तेरा कर्त्तव्य है कि उसका धन्यवाद करती हुई तू उसको वह कैंची दे आ।’’
इस पर वह देवी बोली-‘‘पति देव ! आपका कहना सिर माथे, मुझे ऐसा ही करना चाहिए था।’’ खैर फिर भी प्रभु कृपा रही तो मैं आपके आदेश का पालन करूंगी। परंतु किसी वस्तु से जब मनुष्य को मोह हो जाता है तो फिर ऐसा करना सरल नही होता।
‘‘पतिदेव ! आप तनिक मेरे साथ इधर आइए।’’
यह कहकर वह आगे चल पड़ी और पति उसके पीछे-पीछे चल दिया। आगे चलकर धीरे से उस देवी ने कमरे का कुण्डा खोला और अंदर चलकर अपने पति से कहा-‘‘पतिदेव ! जिस प्रभु ने यह बालक हमें दिया था, हमें ऐसा सौभाग्य नही मिल सका कि समय आने पर हम इसे स्वयं उसके भरोसे छोडक़र वानप्रस्थ या संन्यास की ओर आगे बढ़ जाते, और प्रभु से आनंद पाते। हां, प्रभु ने पहले ही उसे वापस मांग लिया है, अत: आपके कथानानुसार जब स्वामी स्वयं ही अपनी वस्तु मांग रहा हो तो फिर उसे वह वस्तु सहर्ष लौटा देनी चाहिए। तब हमें किसी प्रकार का मोह नही करना चाहिए, अपितु लौटा दें तो ही अच्छा है। ‘‘पतिदेव! मेरे पति होकर आंखों से एक भी आंसू बहाये बिना इस बालक को प्रभु को सौंप दो। अर्थात इसका अंतिम संस्कार कर दो।
‘‘यह है हर्ष में हो मग्न सारे शोक सागर से तरें’’-की वास्तविक भावना। कितनी ऊंची साधना का रहस्य छिपा है इसमें? इसके समक्ष मां की ममता भी विलीन हो गयी, झुक गयी और बड़ी नम्रता से कहने लगी :–
‘‘राजी है हम उसी में जिसमें तेरी रजा है
यहां यूं भी वाह वाह है यहां वो भी वाह वाह है।’’
दोनों परिस्थितियों (हर्ष और शोक) में वाह वाह कहना और प्रभु का धन्यवाद ज्ञापित करना हर किसी के वश की बात नही है। कोई वैदिक विद्वान या ऊंचा साधक ही इन दोनों परिस्थितियों में वाह वाह कहना जानता है।
आत्मस्थ बनो ,गिले-शिकवे त्याग दो
हर्ष में मग्न रहना ऐसे हृदय की पहचान होती है कि वह कभी किसी से कोई द्वेष भाव नही रखता है। उसे किसी से केाई शिकायत भी नही होती है। संसार के लोगों का वह सचेतक तो होता है पर यदि वे उसकी किसी बात पर या परामर्श पर ध्यान नही देते हैं तो इसे वह अन्यथा नही लेता है। पूर्णत: सकारात्मक ऊर्जा से भरे रहकर सकारात्मक सोच के साथ सदा आगे बढ़ता है। प्रभु का आश्रय उसे उपलब्ध रहता है और वह प्रभु का सहारा लेकर आगे बढ़ता रहता है। सच ही तो है :-
मंजिल पै जिन्हें जाना है वो शिकवा नही करते।
करते हैं जो शिकवा वो पहुंचा नही करते।।
ऐसे ही आत्मस्थ लोगों के लिए महर्षि दयानंद ‘सत्यार्थप्रकाश’ में लिखते हैं :-
‘‘जिस पुरूष के समाधि योग से अविद्यादि मल नष्ट हो गये हैं आत्मस्थ होकर परमात्मा में चित्त जिसने लगाया है, उसको जो परमात्माओं के योग का सुख होता है, वह वाणी से कहा नही जा सकता, क्योंकि आनंद को जीवात्मा अपने अंत:करण से ग्रहण करता है।’’
जिसने प्रभु का साक्षात्कार कर लिया वह चौबीसों घंटे उसकी मस्ती में मग्न रहता है। वह संसार से विरक्त होकर भी संसार के लोगों के प्रति कहीं अधिक सहिष्णु व संवेदनशील हो जाता है। क्या सुंदर बात है :-
नजर आता नही जग में प्रभु माया के बंदों को।
फकत वो दीख पड़ता है जहां में दर्दमंदों को।।
प्रभु के उपाासक की स्थिति पर महर्षि दयानंद लिखते हैं :-‘‘मैं परमात्मा के निकट और मेरे सन्निकट परमात्मा है, ऐसा समझना उपस्थान कहलाता है।’’
प्रभु के निकट होकर उपासना करता है,निकट बैठकर उससे ध्याता है-उसके भीतर ईश्वरीय गुणों का समावेश वैसे ही हो जाता है जैसे चुंबक के निकट लोहे को रखने पर उसमें चुंबकीय गुणों का समावेश होने लगता है।
जब आपके चलभाष की बैटरी डिस्चार्ज हो जाती है तो आप उसे चार्ज करते हैं और वह काम करने लगती है। वैसे ही संसार के मायामोह में फंसे रहकर हमारी जीवन बैटरी (ऊर्जा) डिस्चार्ज हो जाती है। तब हम उसे ‘ओ३म ‘ नाम के सिमरन से पुनः चार्ज करते हैं जिससे हम पुनः ऊर्जान्वित होकर कार्य करने लगते हैं। इसलिए संसार के विवेकशील और ज्ञानी लोग उस परमपिता-परमात्मा के सिमरन को हर पल हमारे लिए आवश्यक मानते हैं। जिससे हम हर्षित रहें और संसार के मायामोह के सुख सागर में फंसे ही नहीं। जिस भजन पर हम इस लेख बाला में चिंतन कर रहे हैं , उसकी — ” हर्षमय हों मग्न सारे शोकसागर से तरें ” — यह चौथी पंक्ति है । इस पंक्ति का अर्थ यही है कि ईश्वर को हर क्षण अपने समीप समझो और उसका सिमरन करते रहो, जिससे आप शोकसागर में फंसने से बच जाओगे।
ऐसा अनुभव करने वाला भक्त ही कहता है:-
हे प्रभु ! परमात्मन मुझको यही वरदान दो।
सिर्फ ‘मैं’ जीता रहूं और सबको मार दो॥
जब केवल ‘मैं’ ही रह जाता हूं तो उस अवस्था का और उसमें मिलने वाले आनंद का कोई वर्णन नहीं किया जा सकता। तब व्यक्ति के हाथों ‘पारसमणि’ लग जाता है और वह अपना ही सोना बनाने पर लग जाता है। इसे एक दृष्टांत से समझा जा सकता है।
सोना बनाने का हुनर
किसी देश का एक राजा था। ठंड के दिन थे । एक दिन उस राजा के मन में प्रातः काल 4 बजे उठते ही घूमने का विचार आया। राजा ने अपने सेवकों से अपने मन की बात कही। तुरंत राजा के लिए उसका सारथि एक अच्छा रथ लेकर उपस्थित हो गया। राजा सारथी के साथ भ्रमण पर निकल चुका था। नगर से दूर जंगल के एकांत में राजा का रथ बढ़ा जा रहा था । राजा ने अचानक अपने सारथी से रथ रोकने का संकेत किया। सारथी ने रथ रोका दिया।
राजा की दृष्टि यहां पर साधना में लीन एक साधु पर पड़ चुकी थी। साधु एक लंगोट बांधे पद्मासन लगाए योगमुद्रा में लीन था।राजा ने सोचा कि साधु अत्यंत निर्धन है और उसके पास तन ढांपने के लिए भी कुछ नहीं है। राजा के पीछे-पीछे ही उसका सारथी भी आ चुका था।तब राजा ने साधु पर दया करते हुए अपना शाल उसके कंधे पर डाल दिया।पर साधु था कि पहले की ही भांति उसी मुद्रा में लीन रहा उसने शाल देखा तक भी नहीं, ना ही उसे स्पर्श किया।इसलिए शाल कंधे से नीचे गिर गया।
तब सारथी ने अपने राजा को बताया कि आप ऐसी कोई चेष्टा ना करें- जिससे साधनारत साधु की तपस्या भंग हो,अपितु इसके सामने मौन होकर बैठ जायें,जब साधु अपनी आंखें खोलें तभी उससे कोई बात पूछना।
राजा विवेकशील था उसने अपने सारथी की बात को मान लिया और शांत होकर साधु के सामने बैठ गया। कुछ कालोपरांत साधु ने आंखें खोलीं तो साधु ने पूछ लिया कि आप कौन हो ?
तब राजा के अपना परिचय दिया कि में इस देश का राजा हूं। राजा ने आगे कहा-महाराज मैं यहां निकला जा रहा था, अचानक आप पर मेरी दृष्टि पड़ी तो मैंने देखा कि आपके पास केवल एक लंगोट है,आप की झोपड़ी में भी मेने देखा तो वहां भी आपका एक अन्य लंगोट ही दिखाई दिया। उस से अलग अन्य कोई सामान या वस्त्र आदि नहीं है। मैंने सोचा कि आप बहुत निर्धन है। मेरे पास इस हाड़ कंपाने वाली ठंड से बचने के लिए अनेक कपड़े हैं,पर फिर भी मुझे ठंड लग रही है। इसलिए मैंने आपकी ओर अपना शाल फेंका पर वह आपके कंधे पर कुछ देर तो पढ़ा रहा,पर उसके उपरांत नीचे खिसक गया। मैं चाहता हूँ कि आप इस शाल को स्वीकार करें। मेरी प्रजा में कोई भी निर्धन नहीं है,इसलिए मैं नहीं चाहता कि आप भी इस प्रकार रहें । इसलिए आप मेरी यह भेंट स्वीकार करें।
साधु ने राजा से कहा कि — ” राजन ! आप इस शॉल को किसी निर्धन व्यक्ति को दे दें तो अच्छा रहेगा। तब राजा ने बड़े आश्चर्यचकित शब्दों में कहा कि :- “महाराज आप से अधिक निर्धन कौन होगा ? ”
साधु ने फिर मस्ती भरे भाव से अपनी ओर से अपना वही पुराना वाक्य दोहरा दिया कि – ” राजन ! आप इसे किसी निर्धन व्यक्ति को दे दें । ” इस पर साधु ने बड़ी विनम्रता से कहा कि राजन ! मैं सोना बनाना जानता हूं । इसलिए आपके इस शॉल का मुझे क्या करना है ? ”
साधु के मुंह से सोना बनाने की बात सुनकर राजा की स्थिति देखने योग्य हो गई । वह अपने आपको भूल गया और उस पर लोभ सवार हो गया । अब जो व्यक्ति साधु को कुछ देने की डींगे मार रहा था , वही अब साधु से कुछ लेने की आस जगा बैठा ।अपनी इसी स्थिति में राजा ने साधु से कहा :– ” महाराज ! आप यदि सोना बनाना जानते हैं तो कृपया यह विद्या मुझे प्रदान कर दें । जिससे कि मैं अपने राज्य का और अपनी प्रजा का कुछ कल्याण कर सकूं। ”
साधु राजा की स्थिति पर अब मंद मंद मुस्कुरा रहे थे । वह समझ गए थे कि राजा कितना हल्का है । उन्होंने यह भी समझ लिया कि राजा भोला और नादान है । कुछ समय पूर्व तो यह मुझ पर दया कर रहा था और अब यह स्वयं ही याचक की स्थिति में आ गया है । अब यह लालच के वशीभूत होकर अपने राजपथ को भी भूल गया है । तब साधु ने सोचा कि यदि राजा इस प्रकार याचक की स्थिति में आ ही गया है तो इसका कल्याण करना ही चाहिए। साधु ने राजा से कहा – ” तुम्हें यदि सोना बनाना सीखना है तो नित्य प्रति प्रातः काल मेरे पास 4 बजे आना होगा । राजा ने साधु की इस बात पर अपनी सहमति सहर्ष प्रदान कर दी ।
अगले दिन से राजा प्रातः काल 4 बजे ही आने लगा । उसे ठंड लगती , पर सोना बनाना सीखने का चाव था जो उसे सोने नहीं देता था । यही कारण था कि वह प्रातः काल में उठकर साधु के पास सही समय पर उपस्थित हो जाता था । जैसे साधु कहता वैसे ही राजा करता जाता था । साधु ने राजा को यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान और समाधि के अष्टांगयोग का मार्ग समझाना आरंभ कर दिया था । जिस पर राजा धीरे-धीरे आगे बढ़ता जा रहा था । राजा को आगे बढ़ते – बढ़ते महीने दो महीने छह महीने से एक वर्ष बीत गया । पर अभी सोना बनाना नहीं आ पा रहा था । यही कारण था कि उसे कई बार लगता था कि किसी पाखंडी साधु से मिलन हो गया है। इसलिए साधना को छोड़ दिया जाए । पर साधु उसका उत्साहवर्धन कर देता और कह देता कि राजन अब तो भोर होने ही वाली है। ध्यान से अपना काम करते रहो ।
साधु की संगति में रहकर राजा बड़े अच्छे – अच्छे भजन सीख गया था । उसका मन उनमें लगता और वह उन्हें गाता – गाता योग साधना में जाने लगा।
अब उस पर वेद की ऋचाएं अपना प्रभाव दिखाने लगी थीं । साधु भी वेद मंत्रों की ऐसी सुंदर – सुंदर व्याख्या उसके सामने करता कि राजा उसकी व्याख्या में डूब जाता । वह आनंद की अनुभूति करने लगा था और अब संसार के विषय भोगों से हटने में ही उसे मजा आने लगा था ।
एक दिन राजा ध्यान में मगन हो गया । उसे भीतर के संसार की शांति अब भीतर ही रुकने के लिए कहने लगी थी । भीतर का अंधेरा जो उसे कभी काटने को दौड़ा करता था , अब धीरे-धीरे छंटने लगा था । वह जितना ही छंटता जाता था , राजा को उतना ही भीतर रुकना अच्छा लगता था । अब उसे आनंद में प्रकाश की अनुभूति हो रही थी और वह प्रकाश भी इतना अद्भुत , अलौकिक और मनोहारी था कि उसमें से निकलने के लिए अब राजा का मन नहीं करता था।
भीतर का प्रकाश अब राजा का मार्गदर्शन करने लगा था । आज तो वह इस भीतर के प्रकाश में कुछ अधिक ही आनंदित हो चुका था। साधु को राजा की इस स्थिति को देखकर बड़ी ही प्रसन्नता हो रही थी कि उसका एक शिष्य सोना बनाना सीखने वाला है। राजा समाधिस्थ हो चुका था । साधु ने उसे पकड़कर हिलाया पर राजा हिला ही नहीं ।
तब साधु ने आज उसके सामने वैसे ही शांत होकर बैठ जाना उचित समझा जैसे कभी जब राजा अपने सारथि के साथ आया था तो वह भी शांत होकर इस प्रतीक्षा में साधु के सामने बैठ गया था कि जब साधु आंखें खोलेगा तो उस समय उससे बातें की जाएंगी। आज का साधु राजा था । राजा ने समाधिस्थ हो जाने के कुछ कालोपरान्त आंखें खोलीं तो अपने सामने बैठे साधु को देखकर राजा की आंखों से गंगा यमुना बह चली । उसका कल्याण हो चुका था । आज उसे ज्ञात हो चुका था कि सोना कैसे बनाया जाता है ? जिन श्वांसों को वह मिट्टी के मोल बेच रहा था , आज राजा उनका महत्व और मूल्य समझ चुका था।
कृतज्ञता के आंसुओं से राजा की आंखें पूरी तरह से धुल चुकी थीं। अब किसी प्रकार का कोई दोष उनके भीतर नहीं रह गया था। रोम-रोम में आनंद की अनुभूति हो रही थी।अब उसे संसार के सारे धनैश्वर्य तुच्छ और हेय लगने लगे थे। संसार के प्रति उसका मन विरक्ति से भर चुका था।वह कहने लगा था-
“प्रभु को विसार किसकी आराधना करूं मैं।
मोती मुझे मिला जब मानस के मानसर में,
कंकर बटोरने की क्यों कामना करूं मैं ? ”
मानस के मानसरोवर के मोतियों को जब राजा ने अपने भीतर ही बड़ी संख्या में देखा तो पता चल गया कि साधु के पास कितना बड़ा खजाना था और वह क्यों नहीं अपने आप को एक व्यक्ति कहलाना पसंद कर रहा था ?
वास्तव में संसार में जो लोग उस परमपिता- परमात्मा के आश्रय को पा लेते हैं- वह सोना बनाना सीख लेते हैं और हर्षमय मग्न रहकर सारे शोक सागर से तर जाते हैं। उन्हें स्वयं ही यह पता नहीं चलता कि वह कब शोक सागर में थे और कब उससे बाहर निकल आए। उनकी जीवन यात्रा बड़ी ही आनंददायिनी हो जाती है और जो कोई भी उनके संपर्क में आता है वह भी आनंदनुभूति से ओत-प्रोत हो उठता है। वह स्वयं पारसमणि हो जाते हैं और दूसरे लोगों के लोहे रूपी जीवन को भी सोना बनाने लग जाते हैं । उनका सामीप्य , उनका सान्निध्य उनका आश्रय और उनकी शरण सब लोगों के लिए जीवन उद्धारक बन जाते हैं। ऐसे लोग संसार में बड़े कम होते हैं।
महात्मा विदुर का उपदेश
महात्मा विदुर कहते हैं कि शोक से रूप नष्ट हो जाता है (इसी शोक को आजकल की भाषा में चिकित्सक लोग तनाव या टेंशन कहते हैं) शोक से बल, ज्ञान नष्ट हो जाता है और शोक से रोग प्राप्त होता है। प्राप्त न होने योग्य वस्तु शोक से तो प्राप्त हो नहीं सकती। हां,शरीर तपता है- और शत्रु हँसते हैं।अतः शोक में मन मत लगा।
मनुष्य बार-बार मरता- जन्मता है,बार-बार घटता बढ़ता है ।वह बार-बार दूसरों से माँगता है और दूसरे उससे बार-बार माँगते हैं। बार-बार गुरु मनुष्य शोक करता है-और उसके लिए अन्य शोक करते हैं। सुख-दुख,उत्पत्ति,मृत्यु ,लाभ-हानि, जीना – मरना – यह सब बारी-बारी से स्पर्श करते हैं। इसलिए बुद्धिमान हर्ष शोक दोनों न करें । यह छह इंद्रियां सचमुच चंचल है,इनकी जिस-जिस दिशा में वृद्धि होती है , वहां-वहां से मनुष्य की बुद्धि नित्य चूने लगती है,जैसे छिद्र वाले घट से जल चूने लगता है।
इस लेख में हम विचार कर रहे हैं कि (हम)-‘ हर्षमय हों मग्न सारे शोक सागर से तरें। ‘ यदि प्रसंगवश हर्ष का अर्थ आनंद से लगाए तो ही कवि की कविता का या इस भजन का वैदिक और वैज्ञानिक,तार्किक और मार्मिक अर्थ समझ में आता है। विदुर अपने उपरोक्त कथन में कह रहे हैं कि हम हर्ष और शोक दोनों से दूर रहे,तो यहां हर्ष का अर्थ सुख और शोक का अर्थ दुख से है।कहने का अभीप्रय है कि हम विषमताओं में सम रहने के अभ्यासी बने। सुख और दुख दोनों ही इंद्रियों के विषय हैं। इसलिए इन दोनों में ही विषमता है।
हमारी स्थिति कितनी ही बार धृतराष्ट्र के समान हो जाती है।हम भय और शोक के कारण कांपने लगते हैं।जब हमारी ऐसी स्थिति होती है तब हम अपने अस्तित्व तक को भूल जाते हैं। तनिक देखो धृतराष्ट्र महात्मा विदुर से क्या कहते हैं ?
वह कहते हैं कि काष्ठ रूपी शरीर में रुकी हुई अग्नि के समान युधिष्ठिर के साथ मैंने मिथ्या व्यवहार किया है,वह युद्ध में मेरे मूर्ख पुत्रों का अवश्य नाश करेगा। इससे मैं बड़ा भयभीत हूँ। हे महामते! तुम मुझे उस पद का ज्ञान कराओ, जिससे मैं भय(शोक) रहित हो जाऊँ I
अब विदुर ने अपना गंभीर प्रवचन करना आरम्भ किया-
” हे राजन ! न तो विद्या,तप के बिना और न ही इंद्रिय निग्रह के बिना,न ही लोभ त्यागे बिना,तेरे लिए शाति का मार्ग है।मनुष्य बुद्धि द्वारा भय दूर करता है, तप से महानता प्राप्त करता है, गुरु सेवा से ज्ञान तथा योग से शांति प्राप्त करता है। मुमुक्षु दान पुण्य के फल की भी आकांक्षा न करते हुए रागद्वेष से विमुक्त हो इस संसार में विचरते हैं।
उत्तम अध्ययन ,धर्म युद्ध,उत्तम कार्य,उत्तम तप, इन की समाप्ति पर मनुष्य का सुख बढ़ता है। उत्तम रीति से बिछाये हुए बिछौने पर भी पड़े भेद बुद्धि वाले पुरुष कभी भी निंद्रा प्राप्त नहीं कर पाते। भिन्न परस्पर फूटे हुए मनुष्य कभी भी धर्म का आचरण नहीं कर पाते न ही वे इस संसार में सुख प्राप्त कर पाते हैं। ऐसे पुरुष गौरव अथवा उत्कृष्ट शांति को प्राप्त नहीं कर सकते। उन्हें हितकारी वचन अच्छा नहीं लगता, उनका योगक्षेम भी सफल नहीं होता।
हे राजन ! ऐसी फूट में पड़े मनुष्य की अंतिम गति विनाश के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं होती। सारे छोटे-छोटे समान तंतु आपस में मिल पुष्ट होकर प्रबल होने के कारण अनेकों क्लेशोंं का सामना करते हैं। यह सज्जनों की उपमा हैं- एकता में बड़ा बल है।अकेले स्थान पर उगा बलवान दृढ़ मूल वाला महान वृक्ष वायु द्वारा बलात तने समेत उखाड़कर क्षणभर में भूमि पर गिरा दिया जाता है पर जो वृक्ष इकट्ठे और पंक्ति बनाकर दृढ़ मूल किए गए हैं वे एक दूसरे के सहारे से अत्यंत वेगवान वायु को भी सह लेते हैं। इसी प्रकार गुण युक्त होते हुए भी अकेले मनुष्य को विरोधी उखाड़ देते हैं जैसे वायु अकेले वृक्ष को । एक दूसरे को पुष्ट करने तथा एक दूसरे के सहारे से संबंधी ऐसे बढ़ते हैं जैसे तालाब में कमल।
आज संसार में कष्ट और क्लेश इसीलिए बढ़ रहे हैं कि लोग पारिवारिक एकता को भंग करते जा रहे हैं । अपनों के साथ उठना – बैठना , बातचीत करना लोगों ने बंद कर दिया है । दूसरों की बातों में उन्हें सुख मिलता हुआ अनुभव होता है । जबकि अपनों से उन्हें कष्ट की अनुभूति होती है । इस प्रकार के विकृत चिंतन ने लोगों की जीवन शैली को परिवर्तित कर दिया है । जिससे सर्वत्र अविश्वास की भावना विकसित हो रही है और लोग अपनों पर ही भरोसा नहीं कर पा रहे हैं।
विदुर के सारे कथोपकथन का सार यही है कि एकता में हर्ष और आनंद में वृद्धि होती है।हमारी जीवन यात्रा सुगम होती है। संसार में निस्वार्थ भाव से एक दूसरे को सहारा देने वाले जितने संबंधी बनते जाते हैं उतने ही हम आगे बढ़ते जाते हैं। कई लोग अज्ञानतावश ऐसा कह दिया करते हैं कि मैंने अपने बलबूते इतनी उन्नति की है जबकि ऐसा नहीं होता । जीवन यात्रा मार्ग में हमें कितने ही नि:स्वार्थ संबंधी मिलते हैं, मित्र और साथी मिलते हैं जो हमारा हाथ और साथ पकड़ के चलते हैं। उन सब के साथ से जो आनंद मिला और उनके हाथ से हमें जो बल मिला वह वर्णनातीत है।उस वर्णनातीत से हम शोक सागर को तरने का बल प्राप्त करते हैं,साहस प्राप्त करते हैं। इसलिए विदुर ने धृतराष्ट्र से कहा कि अपने परिवार में अपने पुत्रों में भ्राता पांडु के पुत्रों में परस्पर प्रीति कराओ एकता स्थापित कराओ तुम शोक सागर से तर जाओगे और आनंद को प्राप्त करोगे।
संसार में रहकर जो व्यक्ति कर्मशील रहता है उसे किसी प्रकार के कष्ट क्लेश नहीं घेरते वह सारे झंझटों से पार हो जाता है। सारे विघ्नों से मुक्त हो जाता है। उसके हृदय में वास्तविक शांति का निवास हो जाता है। इसलिए वेद ने मनुष्य से 100 वर्ष तक कर्मशील बने रहकर जीवन जीने की अपेक्षा की है। किसी कवि ने भी इन्हीं विचारों को अपने एक भजन के माध्यम से इस प्रकार वर्णन किया है :-
तर्ज- तुम अगर साथ देने का वादा – – –
टेक :– आप सौ वर्ष जीने की इच्छा करो
पर सदा नेक शुभ कर्म करते हुए।
पाप में लिप्त होने से बच जाओगे
इस चराचर जगत में विचरते हुए।
आप सौ वर्ष जीने की इच्छा…
कर्म करते हुए जो जिएगा यहां
जिंदगी में हमेशा रहेगा सुखी।
दुष्ट कर्मों से नाता जुड़ेगा नहीं ,
इनके फल से भी होगा कभी न दुखीI।
इसी तरह पाप से पाप के ताप से
छूट जाओगे सजते संवरते हुए।
आप सौ वर्ष जीने की इच्छा…
धर्म को धारकर चलते रहो
कर्मबंधन से पड़े न कभी वास्ता।
कर्म निष्काम करते रहो उम्र भर
इसके अतिरिक्त कोई नही रास्ता ।।
कर्म आराधना की ही साधना
होवे रणक्षेत्र में भी उतरते हुए..
आप सौ वर्ष जीने की इच्छा..
उम्र सौ साल से भी बड़ी हो अगर
आलसी बनकर जीवन बिताना नहीं।
कुछ ना कुछ कर्म उत्तम करो हर घड़ी
फिर यह अवसर कभी हाथ आना नहीं॥
उच्च हो आपकी भावनाएं सदा
यूं विचारों को रखना उभरते हुए।
आप सौ वर्ष जीने की इच्छा..
तेरा जीवन विधाता का वरदान है
बहुत मुश्किल से दुनिया में मिलता यह।
अनगिनत योनियों में भटकता रहे
तब कहीं फूल नर तन खिलता है यह॥
फिर नहीं पाप में लिप्त होना कभी,
ताकि देखो न सपने बिखरते हुए।
आप सौ वर्ष जीने की इच्छा..
सौ वर्ष की उमर से अधिक जीयें
यह इरादा अगर मन में कर पाए हम।
उस प्रभु की कृपा से कुशलता रहे
कर्म करते हुए ही चले जाएं हम।।
न बिसारे कभी कर्म के मर्म को
धर्म के रास्ते से गुजरते हुए।
आप सौ वर्ष जीने की इच्छा..
संसार एक समर है और व्यक्ति इस समर का एक योद्धा है। जैसे समर क्षेत्र में हमारे आसपास लड़ते योद्धा गिरते जाते हैं और हम उन्हें केवल दृष्टाभाव से ही देखते हैं , उनके लिए वहां बैठकर किसी प्रकार का शोक-संताप प्रलाप-विलाप नहीं करते हैं, उसी प्रकार हमें संसार के सफर में हाथ छोड़कर बिछुड़ते हुए संगी- साथियों को लेकर शोक सागर में न डूबकर उनके वियोग को भी केवल दृष्टा भाव से ही देखना चाहिए।
यहां से आगे तो अकेले ही चले जाएंगे
ध्यान रहे हर जाने वाला कुछ संदेश देकर जाता है।मानो कह रहा हो कि मैं आगे चलकर आपके लिए जगह बनाता हूँ , क्योंकि आपको भी वही आना है जहां मैं जा रहा हूं। तुम इस भूल में रहकर मुझे छोड़े जा रहे हो कि संभवतः वहां केवल मुझे ही जाना है। जबकि ऐसा नहीं है – तुम भी वहीं जाओगे- इसे याद रखते हुए किसी प्रमाद में या भूल में मत रहो।
मैं एक श्मशान में एक अंत्येष्टि संस्कार में सम्मिलित होने के लिए पहुंचा।उस श्मशान घाट के द्वार पर लिखा था- “दुनिया वालों ! यहां तक पहुंचाने के लिए आपका शुक्रिया,अब यहां से आगे तो हम अकेले ही चले जाएंगे।” ये शब्द बड़े मार्मिक थे- जो कुछ सोचने के लिए प्रेरित कर रहे थे। इनका एक निहित संदेश यह भी था कि दुनिया वालो तुम सचमुच कितने नादान हो,एक – एक करके भेजने के किसी खेल में लगे हो-और सारे निपटते चले जा रहे हो। रहना कोई नहीं है,जाना सभी को है। तनिक कल्पना करें कि हम यमराज के द्वार पर खड़े संसार की ओर देख रहे हैं,तो पता चलेगा कि सारा संसार यमराज की ओर भागा जा रहा है। इस दृश्य को अनुभव करने से हमारी बुद्धि शुद्ध होती है और हम सोचने पर विवश होते हैं कि समय रहते कुछ ऐसा प्रबंध कर लिया जाए जो ‘सफर’ में काम आये।
राजा दशरथ की अंत्येष्टि के पश्चात जब भरत और शत्रुघ्न निरंतर रोते ही जा रहे थे तो उस समय वशिष्ठ ऋषि ने सत्योपदेश करते हुए कहा था कि- ” सभी मनुष्यों के साथ तीन द्वंद्ध भूख- प्यास, दुख-सुख,जन्म-मरण सामान्य रूप से लगे हुए हैं,इन्हें दूर करना संभव नहीं। अतःतुम्हें इसी प्रकार दुखी नहीं होना चाहिए।”
ऋषि के कहने का भी अभिप्राय था कि मृत्यु एक अटल सत्य है जिसे इसी रूप में स्वीकार करना चाहिए,जाने वालों को लेकर शोक सागर में ही नहीं डूब जाना चाहिए।
ऋषि भारद्वाज ने भरत को समझाते हुए कहा था कि वृद्वों की सेवा,इंद्रियों का दमन और साधु जनों का अनुयायी होना,ये तीन गुण तुम्हारे भीतर होने चाहिए। ऋषि भारद्वाज ने ऐसा कहकर स्पष्ट किया है कि यदि ये तीन गुण तुम्हारे भीतर होंगे तो शोक सागर में डूबने की कभी स्थिति नहीं आएगी- दुख आएगा और वैसे ही चला जाएगा जैसे हवा दीवार को और पानी चट्टान को स्पर्श कर लौटकर चला जाता है।
महाभारत में कहा गया है कि जो मरे हुए पुरुष या खोई हुई वस्तु के लिए शोक करता है,वह केवल संताप का भागी होता है। उसका वह दुख मिटता नहीं है। मनुष्य योनि में उत्पन्न हुए मानव के पास गर्भावस्था से ही नाना प्रकार के दुख और सुख आते ही रहते हैं।
किसी भी द्रव्य के नष्ट हो जाने पर जो उसके शुभ गुण हैं , उनकी चिंता में न घुले।उन गुणों का आदर न करने वाले,नष्ट वस्तु से मोह तोड़ लेने वाले पुरुष के शोक का बंधन कट जाता है।
धन नष्ट हो जाए अथवा स्त्री,पुत्र या पिता की मृत्यु हो जाए तो अहो!मुझ पर बड़ा भारी दुख आ गया ऐसा सोचता हुआ मनुष्य शोक के आश्रय में आ जाता है।
सारे संग्रहों का अंत विनाश है, सारी उन्नतियों का अंत पतन है, संयोग का अंत वियोग है,और जीवन का अंत मरण है। उत्थान और पतन को स्वयं ही प्रत्यक्ष देखकर यह निश्चय करें कि यहां का सब कुछ अनित्य और दुख रूप है।
भागों में कोई लाभ न देखकर विद्वान पुरुष उनके लिए शोक, मोह,त्याग देता है। आयास रूपी वृक्ष पर तीव्र वेग से प्रज्ज्वलित और आकर्षण रूपी अग्नि से प्रकट हुई कामना रूप अग्नि मूर्ख मनुष्य को उसकी विषयों द्वारा मोहित करके जलाती है।धर्मयुक्त प्राणी ही पुनर्जन्म उत्तम सुख पाता है और अधर्म परायण जीव पुनर्जन्म में दुख पाता है। इसलिए विद्वान पुरुष को चाहिए कि न्याय से प्राप्त धन के द्वारा धर्म का अनुष्ठान करें।एकमात्र धर्म ही परलोक में मनुष्य का सहायक है।
धर्म,अर्थ और काम-ये तीन जीवन के फल है,अतः मनुष्य को अधर्म के त्यागपूर्वक इन तीनों को उपलब्ध करना चाहिए ।
इन तीनों की उपलब्धियों से मनुष्य शोक सागर से तरने की स्थिति में आ जाता है। इस प्रकार यह सिद्ध है कि शोक सागर से तरह मनुष्य जीवन का लक्ष्य है, शोक सागर में डूब मरना मनुष्य जीवन का पतन है ।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत