ओ३म्
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ईश्वरीय ज्ञान वेद में मनुष्यों को अग्निहोत्र यज्ञ करने की आज्ञा है। अग्निहोत्र यज्ञ में गोघृत व चार प्रकार के पदार्थों की आहुतियां यज्ञ में दी जाती हैं। यह चार पदार्थ गोघृत के अतिरिक्त सोमलता, गिलोय, गुग्गल, सूखे फल नारीयल, बादाम, काजू, छुआरे आदि ओषधियां, मिष्ट पदार्थ शक्कर तथा सुगन्धित द्रव्य केसर, कस्तूरी आदि होते हैं। इन पदार्थों से निर्मित हवन सामग्री को अग्निहोत्र करते हुए वेद मन्त्रों को बोल कर आम्र आदि उत्तम समिधाओं की प्रचण्ड अग्नि में दी जाती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि हुत द्रव्य जलकर अत्यन्त सूक्ष्म हो जाता है और वह अत्यन्त हल्का होने के कारण समस्त वायुमण्डल में सभी दिशाओं में फैल जाता है। यज्ञ में जो पदार्थ डाले जाते हैं वह सब मनुष्य के स्वास्थ्य के लिये उत्तम होते हैं। इनका यज्ञाग्नि में सूक्ष्म रूप हो जाने पर इनका प्रभाव अत्यन्त बढ़ जाता है। एक सूखी मिर्च और उसे अग्नि में डालने पर जिस प्रकार मिर्च के गुणों व प्रभाव में वृद्धि़ होती है जिसे हम नासिका से प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं, उसी प्रकार से यज्ञ में आहुत द्रव्यों से भी मनुष्य के शरीर पर बाहरी व आन्तरिक सामान्य से कई गुणा अधिक प्रभाव होता है।
अग्निहोत्र देवयज्ञ में गोघृत व केसर एवं कस्तूरी आदि सुगन्धित पदार्थों की गन्ध का ग्रहण तो नासिका से भली भांति होता है परन्तु अन्य पदार्थों के लाभों का ज्ञान व अनुभव अध्ययन, चिन्तन एवं अनुसंधानों से पता चलता है। अभी तक जितने भी याज्ञिक परिवारों से हमारा सम्पर्क हुआ है उन सबका स्वास्थ्य उत्तम होता है। वह साध्य एवं असाध्य रोगों से बचे रहते हैं। स्वस्थ रहने में यज्ञ तो सहायक होता ही है, परन्तु इसके साथ हमें अपने भोजन, व्यायाम एवं मन व आत्मा को भी शुद्ध विचारों एवं वेद आदि के स्वाध्याय एवं चिन्तन से पवित्र रखना होता है। यदि ऐसा करते हैं तो निश्चय ही हमारा यज्ञ हमें आध्यात्मिक लाभ प्रदान करने सहित स्वस्थ रखेगा, रोगों से हमारी रक्षा होगी तथा हमारा लोक व परलोक भी इस पुण्य कार्य से प्रभावित होगा व निश्चय ही सुधरेगा भी। सन्ध्या व यज्ञ की प्रेरणा व आज्ञा हमें वेद एवं हमारे ऋषियों के ग्रन्थों में प्राप्त होती है। यह आज्ञायें व निर्देश मनुष्यों की भलाई के लिये हैं। हमारे ऋषि मुनि स्वयं भी सन्ध्या, यज्ञ एवं तपस्या व पुरुषार्थ से पूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। इसका परिणाम ईश्वर का साक्षात्कार होता था। हमें भी अपने पूर्वज ऋषियों, उनकी आज्ञाओं सहित वेदाज्ञा का पालन पूर्ण श्रद्धा के साथ करना चाहिये। इससे हमारा मनुष्य जीवन धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कर सफल होगा। यह बात तर्क व चिन्तन में सत्य पाई जाती है। हमें अपने अनुभवी पूर्वज ऋषियों व विद्वानों के मार्गदर्शन से अवश्य ही लाभ उठाना चाहिये। उन्होंने हमारे हित के लिये ही हमारा मार्गदर्शन किया है। हम जिस दिशा में जायेंगे उस ओर जो अच्छा व बुरा लक्ष्य होगा, वहीं पहुंचेंगे। यदि हमें जीवन को श्रेष्ठ व लाभकारी बनाना है तो हमें अपने विद्वान ऋषियों यथा स्वामी दयानन्द सरस्वती आदि द्वारा बताये गये मार्ग का अनुसरण करना ही होगा।
हमारे देश में सृष्टि के आरम्भ से ही अग्निहोत्र यज्ञ करने की परम्परा विद्यमान है। महाभारत काल तक अनेक प्रकार के यज्ञ देश भर में हुआ करते थे जिसमें राजसूययज्ञ जैसे महायज्ञ भी सम्मिलित थे। इतिहास में अश्वमेध आदि अनेक यज्ञों का उल्लेख भी सुनने को मिलता है। इसका अर्थ देश व समाज की उन्नति के लिये किये जाने वाले सभी कार्य होते थे। हम जो भी सत्य व ज्ञान से युक्त कार्य करते हैं वह यज्ञ ही होता है। यदि हम किसी दृष्टिहीन को सड़क पार करा देते हैं या किसी भूखे को भोजन करा देते हैं तो यह भी यज्ञ ही होता है। हर शुभकर्म यज्ञ होता है और प्रत्येक अशुभ-कर्म पाप व दुःख का हेतु होता है। यज्ञ का शास्त्रीय मुख्य अर्थ देवपूजा, संगतिकरण एवं दान है। देवपूजा में विद्वानों का सम्मान करना तथा उनसे ज्ञान प्राप्ति उद्देश्य होता है। संगतिकरण में हमें लोगों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर उनको अपने भ्रमरहित ज्ञान व अनुभवों को बताना व सिखाना तथा दूसरों से उन्हें सीखना भी होता है। यज्ञ का तीसरा अंग दान है। दान का अर्थ केवल भिखारियों व दीनों की सहायता करना या कुछ धार्मिक व सामाजिक संस्थाओं को धन व द्रव्यों का दान करना ही नहीं होता अपितु दान के अनेक अर्थ हो सकते हैं। दान का अर्थ अपने स्वामित्व के पदार्थों का दूसरों के उपयोग के लिये अपने स्वामित्व का त्याग कर उसे उन्हें देना होता है।
निर्लोभी शिक्षक विद्या का दान करता है। युवक व युवतियों में बल होता है। वह समाज व देश के कल्याण के लिये जो सकारात्मक सहयोग व समय आदि के द्वारा उत्तम कार्यों को करते हैं वह उनका दान कहा जा सकता है। हमारे श्रमिक व कृषक भी अपने समय एवं पुरुषार्थ का दान करते हैं। उनके श्रम व तप के कारण ही सारा देश अपनी क्षुधा को दूर करता तथा अपने निवासों में सुख व चैन की नींद सोता है। यह हमारे कृषकों व श्रमिकों का दान ही है। परमात्मा के बनाये सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, अग्नि, वायु, जल, अन्न आदि पदार्थ अपने-अपने स्वत्व का हमारे लिये दान ही तो कर रहे हैं। जब आत्मा रहित जड़ पदार्थ दान कर सकते हैं तो हम मननशील ज्ञान व कर्म की शक्ति से युक्त सत्य व चेतन आत्मा वाले मनुष्य अपने दुर्बल व ज्ञानहीन बन्धुओं को उनकी आवश्यकता की वस्तुयें क्यों प्रदान नहीं कर सकते? आर्यसमाज के पास ज्ञान का बल है। वह उसका वितरण ठीक प्रकार से नहीं कर पाया। देश के लोग जो ज्ञान व विद्या से वंचित हैं, वह भी आर्यसमाज से सद्ज्ञान व विद्या की प्राप्ति करने में संकोच व भीतर से आर्यसमाज का विरोध करते हैं। उनके आचार्यगण उनको आर्यसमाज से वेदज्ञान प्राप्ति के लिये प्रेरित न कर सद्ज्ञान से दूर रहने की प्रेरणा करते हैं। एक प्रकार से उन्हें आर्यसमाज का गलत चित्र प्रस्तुत कर उन्हें दूर रहने के लिये कहा जाता है। हमारे अपने पौराणिक हिन्दू संगठन भी आर्यसमाज की मानवतावादी विचारधारा को अपनाने के स्थान पर अज्ञान व स्वार्थवश आर्यसमाज द्वारा प्रचारित ईश्वर के ज्ञान वेद के विचारों से दूर रहते हैं और आर्यसमाज के पुण्य व शुभ कार्य में सहयोग नहीं करते। अतः यज्ञ को एक धार्मिक कृत्य ही न मानकर इसके विविध पक्षों को सम्यक रूप से जानना चाहिये और उसका उपयोग वायु, जल, पर्यावरण की शुद्धि सहित स्वस्थ एव निरोग समाज के निर्माण में करना चाहिये।
यज्ञ व अग्निहोत्र देवयज्ञ से आध्यात्मिक लाभ भी होते हैं। यज्ञ में स्तुति-प्रार्थना-उपासना सहित स्वस्तिवाचन एवं शान्तिकरण के मन्त्रों का विधान है। इनका उच्चारण यज्ञकर्ता को करना होता है। इनके उच्चारण व अर्थज्ञान से मनुष्य की आत्मिक वा आध्यात्मिक उन्नति होती है। वेद के किसी मन्त्र में मूर्तिपूजा तथा फलित ज्योतिष का उल्लेख, संकेत व विधान नहीं है। वेद ज्ञान व कर्म को प्रधान मानते हैं। वेद ज्ञान का पर्याय हैं। वेदज्ञान को प्राप्त कर उसके अनुरूप उपासना, सामाजिक, पारिवारिक व देशोत्थान के कर्म करने से मनुष्य को आध्यात्मिक लाभ भी प्राप्त होता है और जीवन में सुख व शान्ति भी मिलती है। हम ईश्वर से जो भी प्रार्थना करते हैं, उन्हें सर्वशक्तिमान ईश्वर हमारी पात्रता के अनुरूप पूरा करता है। हम ईश्वर से ज्ञानयुक्त बुद्धि मांगते हैं तो वह हमें मिलती है और नाना प्रकार के ऐश्वर्य भी मिलते हैं। वेद पुरुषार्थ की प्रेरणा करते हैं। वेद सत्यासत्य के विवेचन एवं सत्य के ग्रहण तथा असत्य के त्याग करने की प्रेरणा करते हैं। इसी से आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों प्रकार की उन्नति होती है। अतः हमें प्रतिदिन अग्निहोत्र देवयज्ञ, परोपकार एवं परहित सहित देश व समाज की उन्नति के सभी कार्य करने चाहियें।
सामाजिक कार्यों में ऋषि दयानन्द ने आर्यों को अग्रणीय रहने को कहा है तभी तो मनुष्य मात्र की शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति कर पायेंगे। इसी कारण हम यह भी विचार करते हैं कि आर्यसमाज के सक्रिय सदस्यों को वेद की शिक्षाओं के अनुरूप कार्य करते हुए अपनी विचारधारा के निकटतम किसी भी राजनीतिक दल के साथ मिलकर देश व समाज की रक्षा व उन्नति में अग्रणीय भूमिका निभानी चाहिये। राजनीति से दूर रहकर हम वेद के सन्देश को अधिक प्रभावशाली रूप में प्रचारित व प्रसारित नहीं कर सकते। आज भी गोवध होता है। आर्यसमाज कुछ नहीं कर पा रहा है। हिन्दी की रक्षा करने में भी वह विफल है। हिन्दी समाचार-पत्रों तथा टीवी चैनलों पर उर्दू मिश्रित खिचड़ी भाषा का अधिक प्रयोग देखने को मिलता है। सरकारी स्तर पर संस्कृत का संवर्धन होकर अंग्रेजी व उर्दू आदि भाषाओं का संवर्धन देखा जाता है। यह ईश्वरीय तथा प्राचीनतम भाषा देववाणी संस्कृत के साथ अन्याय है। इतिहास के नाम पर हमें अपने पूर्वजों के उज्जवल चरित्र न बताकर देश-देशान्तर के साधारण कोटि के मनुष्यों के विषय में जनाया जाता है। देश में अंग्रेजी व विदेशी अपसंस्कृति का प्रचार हो रहा है। आर्यसमाजी परिवारों के बच्चे व युवा भी इससे प्रभावित हैं। कितने बच्चे सन्ध्या व यज्ञ से जुड़े हुए हैं इसके लिये सर्वे कराया जा सकता है। बहुत कम परिवार ही ऐसे मिलेंगे जिनके परिवारों में मुख्यतः युवा पीढ़ी में वेद व आर्यसमाज के संस्कार देखने को मिलें। हमने कल रात्रि एक मित्र परिवार के विवाह आयोजन में सम्मिलित हुए। उसमें पौराणिक संस्कार के अतिरिक्त सब कुछ विदेशी अपसंस्कृति से प्रभावित देखने को मिला जिसे देखकर अत्यन्त पीड़ा हुई। अतः इन सबके सुधार के लिये हमें राजनीतिक दलों व सामाजिक संगठनों में अपनी सहभागिता व उसके प्रभाव से ही कुछ परिवर्तन कराने होंगे। इसके लिये हमें यज्ञ के एक अंग ‘संगठन’ पर भी ध्यान देना होगा। असंगठित मनुष्य व समाज को यज्ञ से दूर ही कहा जा सकता है। जहां यज्ञ होता है वहां लोग संगठित होते हैं व होने चाहियें। यज्ञ में सब ब्रह्मा का अनुशासन मानते हैं। देश में भी प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति महोदयों व संविधान का अनुशासन सबको मानना चाहिये लेकिन लोग इसके विपरीत चलते हुए दिखाई देते हैं। आर्यसमाज में उच्च-स्तर पर ऐसे तत्व हैं जिन्होंने अपनी आर्यसमाज विरोधी विचारधारा व कार्यों से समाज को कमजोर किया है। सभी लोग उनको जानते हैं परन्तु कोई उनके विषय में कहता कुछ नहीं है। ऐसे लोगों से सावधान रहने व उन्हें आर्यसमाज से अलग-थलग रखने की आवश्यकता है। वैसे वह अधिकांशतः पृथक ही हैं।
मनुष्य एवं प्राणीमात्र के अस्तित्व को प्रदुषण से बचाना एवं वायु, जल, पर्यावरण की शुद्धि आदि कार्यों के लिये देवयज्ञ अग्निहोत्र किये जाने की नितान्त आवश्यकता है। यज्ञ करने से मनुष्य को शुद्ध वायु, आरोग्य, ज्ञान व बल आदि की प्राप्ति होती है। ईश्वर से भी मित्रता होकर उसका सहाय मिलता है। मनुष्य का मन व बुद्धि शुद्ध व पवित्र होती है। वह देश व समाज विरोधी कार्यों में संलग्न नहीं रहता अपितु समाज के संवर्धन में योगदान करता है। यज्ञ अनेकानेक लाभों को देता है। हमारा लोक व परलोक यज्ञ करने से बनता है। महात्मा प्रभु आश्रित जी ने यज्ञों को अत्यन्त लोकप्रिय किया था। आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार जी की यज्ञ मीमांसा पुस्तक भी पढ़ने योग्य है। सभी यज्ञकर्ताओं को यज्ञ के सभी मन्त्रों के अर्थों पर दृष्टि डालते रहना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं वेदभाष्य का नियमित स्वाध्याय कर इस ज्ञान यज्ञ को अवश्य करना चाहिये। इसमें अनियमितता नहीं होनी चाहिये। ऋषि दयानन्दकृत वेदभाष्य व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय मनुष्य की आत्मा को पवित्र करता, ईश्वर से जोड़ता व ईश्वर साक्षात्कार कराने में उपयोगी प्रमुख साधन है। स्वाध्याय एवं अभ्यास से मनुष्य ईश्वर को जानता व प्राप्त करता है। उसका जीवन सफल होता है। अतः हमें यज्ञ के महत्व को जानकर प्रतिदिन अग्निहोत्र देवयज्ञ अवश्य करना चाहिये और अपने जीवन को वेदमय और सत्यार्थप्रकाशमय बनाना चाहिये। हमने यज्ञ की चर्चा की है। शायद हमारे मित्रों व पाठकों को कुछ उपयोगी लगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत