उगता भारत’ का साप्ताहिक संपादकीय
दिल्ली विधानसभा के चुनाव संपन्न हो गए हैं । केजरीवाल फिर प्रचंड बहुमत के साथ दिल्ली की सत्ता पर काबिज हो गए हैं । प्रश्न यह है कि केजरीवाल ने दिल्ली जीती है या केजरीवाल को दिल्ली जीतने दी गई है ?
इस प्रश्न पर यदि विचार किया जाए तो कांग्रेस ने जिस प्रकार अपनी भूमिका इन चुनावों के दौरान निर्धारित की , उससे यह स्पष्ट होता है कि वह स्वयं जीतने के लिए चुनाव नहीं लड़ रही थी । वह केवल प्रधानमंत्री मोदी को नीचा दिखाने के लिए चुनाव लड़ रही थी । फिर चाहे सत्ता उस आप के पास ही क्यों न चली जाए जो कभी कांग्रेस को ही गरियाकर सत्ता में आई थी ? कांग्रेस के नेता राहुल गांधी की समस्या यह है कि वह समस्याओं को समझते नहीं हैं , और वर्तमान में खड़ी चुनौतियों का ऊँटपटांग ढंग से सामना करते हैं । वह समस्याओं का कोई ‘समाधान’ नहीं हैं ,बल्कि समस्या स्वयं एक समस्या हैं । सामने खड़ी चुनौती को वह किसी दूसरी चुनौती से भिड़ाकर ही संतोष कर लेते हैं । यदि उनके सामने खड़ी चुनौती ( भाजपा ) दूसरी चुनौती (आप ) से परास्त हो जाए तो भी वह ताली पीटते हैं और यदि दूसरी चुनौती ( आप ) पहली चुनौती ( भाजपा ) से परास्त हो जाए तो भी वह ताली पीटते हैं । दोनों ही परिस्थितियों में वे यह नहीं देखते कि तेरे स्वयं के खाते में क्या आया ? पुलवामा हमले में किसको लाभ हुआ ?- वह यह तो प्रश्न पूछ रहे हैं पर स्वयं से यह नहीं पूछते कि उनकी अपनी नीतियों से किसको लाभ हुआ ?
राहुल गांधी स्वयं ही कांग्रेसविहीन भारत बनाने पर तुले हैं । कांग्रेस को आत्महत्या के लिए विवश करने वाले इस नेता के चलते भविष्य में इस पार्टी को कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी ? – कुछ नहीं कह सकते । अतः यह कहना सही होगा कि कांग्रेस की इस आत्मघाती नीति के कारण केजरीवाल को जीतने दिया गया है ।
अब दूसरी ओर आइए । ‘आप’ की जीत का एक दूसरा पहलू भी है और वह भाजपा व आरएसएस का अहंकार है । इन दोनों दलों या संगठनों में नेताओं या जनप्रतिनिधियों का अहंकार इस समय सिर चढ़कर बोल रहा है। कहीं सत्ता का मद है तो कहीं पद का मद है । इस अहंकार की प्रवृत्ति ने जनता के साथ सामंजस्य बनाने की राजनीतिक दलों की अनिवार्यता को भाजपा से दूर कर दिया है । आरएसएस के लोगों को देखिए , वह इस समय अपने आप को ‘किंगमेकर’ से भी आगे ‘नेशनमेकर’ के रूप में देख रहे हैं। वह भूल गए हैं कि जनता का सहयोग और जन समस्याओं का निदान सफलता के लिए बहुत आवश्यक होता है। उनके मन मस्तिष्क में यह भ्रांति पैदा हो गई है कि जो तुम बोल दोगे वही ‘ब्रह्म वाक्य’ मान लिया जाएगा। भाजपा के बड़े-बड़े नेताओं का साहस नहीं कि वह अमितशाह से बात कर लें , फिर गली मोहल्ले के कार्यकर्ताओं की स्थिति को तो स्वयं ही समझा जा सकता है। भाजपा स्वयं को संसार की सबसे बड़ी पार्टी कहती है , परंतु सच यह है कि जितने भी कार्यकर्ता उसने ‘मिस्डकॉल’ देकर बनाए हैं इनमें बड़ी संख्या फर्जी कार्यकर्ताओं की है। दूसरी बात यह भी है कि केंद्रीय मंत्रियों तक के फोन से लोगों के काम नहीं हो रहे हैं ।अस्पताल में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री की कोई नहीं सुन रहा तो दूसरे विभागों में भी यही स्थिति है । किसी भी विधायक या सांसद के कहने से पुलिस का एक दरोगा भी जनता की समस्याओं का समाधान करने में तत्परता नहीं दिखाता , ऐसे में लोग भाजपा से दूर जा रहे हैं।
दिल्ली को जीतने के लिए भाजपा ने अपने सैकड़ों विधायक और सैकड़ों सांसद लगाए । पूरी सरकार और कई सारे मुख्यमंत्री दिल्ली की गलियों में घूमते देखे गए । सत्ता के मद में चूर हाथी को गलियों में निकाल दिया गया और यह सोच कर निकाला गया कि संभवत: इन सारे चेहरों को देखकर दिल्ली की जनता का मन बदल जाएगा । ‘मन की बात’ करने वाले पीएम दिल्ली के लोगों के ‘ मन की बात ‘ को नहीं समझ पाए। वह यह भूल गए कि जब 2014 के चुनाव में उन्हें दिल्ली सहित पूरे देश की जनता ने अपना नेता चुना था तो उस समय उनके पास न तो इतने विधायक थे और न ही इतने सांसद या कोई सरकार थी ।तब जनता ने सीधे उनकी बात पर विश्वास किया और उन्हें अपना नेता मान लिया । सत्ता अहंकार में मदमस्त हाथी की भांति व्यवहार करने वाले जननायकों को जनता दुत्कार देती है और जो सीधी सरल सी और सच्ची सी बात करने वाले लोग होते हैं उन्हें जनता चुन लेती है। मोदी स्वयं इस बात का उदाहरण हैं । यह माना जा सकता है कि मोदी जी इस समय भी देश की जनता के नायक हैं , परंतु शेष भाजपा या आरएसएस क्या कर रहा है ? – यह सब भी बहुत महत्वपूर्ण है।
भाजपा और आरएसएस के व्यवहार और दृष्टिकोण पर यदि इस समय चिंतन किया जाए तो उनकी सोच केवल यह बनकर रह गई है कि ‘मोदी है तो मुमकिन है ‘ या ‘शाह है तो संभव है’ । यह वही मूर्खतापूर्ण धारणा है जो कभी महमूद गजनवी के द्वारा सोमनाथ के मंदिर को लूटे जाने के समय हमारे भीतर देखी गई थी कि मंदिर में ‘मूर्ति है तो मुमकिन है।’ हम उस समय यह भूल गए थे कि पत्थर की मूर्ति कुछ नहीं करने वाली । मूर्तिपूजकों के भीतर इसी प्रकार की अकर्मण्यता राष्ट्र के लिए घातक रही है , घातक है और घातक रहेगी। इसी मूर्खता को आरएसएस और भाजपा ने दोहराया है। वह किसी की ‘कृपा ‘ पर निर्भर होकर वैसे ही रह गए हैं , जैसे कभी सोमनाथ के समय हम किसी की कृपा पर निर्भर होकर रह गए थे । उसी का परिणाम है कि आज दिल्ली का ‘सोमनाथ’ हम सबके हाथ से निकल गया है।
हम ‘देवकृपा’ पर निर्भर रहने वाले लोग हैं । हम यह नहीं समझ पाए कि ‘देवकृपा’ केवल एक ‘भूत’ है। जिसका कभी अस्तित्व नहीं होता । ‘मूर्ति है तो मुमकिन है’ या ‘मोदी है तो मुमकिन है’ – इस विचार ने भाजपा को निकम्मा बनाया । इसके नेताओं को अहंकारी बनाया । इतना ही नहीं , उनका वाचिक तप भी भंग हुआ । जिसे अब भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और वर्तमान केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने स्वीकार भी किया है कि हमें नफरत की भाषा नहीं बोलनी चाहिए थी। भाजपा अपने अहंकार के चलते ही दिल्ली में अपने मुख्यमंत्री का चेहरा भी स्पष्ट नहीं कर पाई , क्योंकि उसे भरोसा था कि जनता उसके साथ हैं।
अब आते हैं केजरीवाल पर। केजरीवाल एक नौटंकीबाज नेता के रूप में भारतीय राजनीति में अपना स्थान बना चुके हैं । इन चुनावों में उन्होंने भाजपा को अपनी नौटंकी में फंसा लिया । उनकी यह मुफ्त की रेवड़ियां भाजपा के गले की फांस बन गई। यदि भाजपा यह घोषणा करे कि वह सत्ता में आने पर वह भी इन रेवड़ियों को जारी रखेगी तो भी गलत था और यदि यह कहे कि वह ऐसा नहीं करेगी तो भी गलत था । केजरीवाल के लिए यह बहुत लाभप्रद सौदा था कि वह जो कुछ भी करते जा रहे थे, कुल मिलाकर केंद्र सरकार को ही उसका सारा खर्चा वहन करना था । केजरीवाल के घर से कुछ नहीं जाने वाला था। उन्हें सत्ता चाहिए थी और वह सत्ता पाने में सफल हो गए। अतः यह कहना भी सही है कि इन मुफ्त की रेवड़ियों ने भी केजरीवाल को सत्ता में फिर लौटा दिया।
अब आते हैं जनता पर । जनता ने अपनी मुफ्तखोरी की प्रवृत्ति का खुला परिचय विधानसभा के इन चुनावों में दिया । दिल्ली की जनता कितनी अधिक सुविधाभोगी और मुफ्त की रेवड़ियों को खाने की अभ्यस्त हो चुकी है – यह इस बात से पता चलता है कि दिल्ली के लोगों ने केजरीवाल को प्रचंड बहुमत के साथ दोबारा सत्ता सौंप दी है। इस संदर्भ में हमको यह ध्यान रखना चाहिए कि रोमन साम्राज्य का पतन तब हुआ था जब वहां के नागरिक निकम्मे व आलसी हो गए थे । विकास के कार्यों के लिए सरकारें कर के माध्यम से धन संचय करती हैं , लेकिन जब शासक वर्ग सत्ता में लौटने के लिए कर के माध्यम से संचय किए गए इस धन को एक घूस के रूप में प्रयोग करने लगे और जनता उसे स्वीकार करने लगे तो समझना चाहिए कि अब धनहित जनहित से प्राथमिकता पर आ गया है। दिल्ली के लोग भी यदि घूस लेकर वोट देना चाहिए चाहते हैं तो देश के अन्य राज्यों के मतदाताओं पर उसका क्या प्रभाव होगा ? – यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि कांग्रेस को अपना कर्मशील नेता शीघ्र से शीघ्र चुन लेना चाहिए। भाजपा व आरएसएस को अपने अहंकार की अंधकारमयी गलियों से बाहर निकलना चाहिए । साथ ही केजरीवाल को नौटंकियों से निकलकर यथार्थ के धरातल पर कुछ करके दिखाने के लिए अपनी छवि बदलनी चाहिए । अन्त में यह भी कि देश में इस समय चुनाव सुधारों की बहुत आवश्यकता है। सरकारों को कठोर कानून बनाकर यह व्यवस्था करनी चाहिए कि कोई भी राजनीतिक दल यदि करों के माध्यम से एकत्र किए गए धन को वोट प्राप्त करने में प्रयोग करता है तो इसे उस राजनीतिक दल के द्वारा मतदाताओं को दी जा रही घूस के रूप में देखा जाएगा । माननीय सर्वोच्च न्यायालय को भी इस दिशा में अपनी टिप्पणी करनी चाहिए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत