पूजनीय प्रभो हमारे , अध्याय 3
किसी कवि ने कितना सुंदर कहा है :-
ओ३म् है जीवन हमारा, ओ३म् प्राणाधार है।
ओ३म् है कर्त्ता विधाता, ओ३म् पालनहार है।।
ओ३म् है दु:ख का विनाशक ओ३म् सर्वानंद है।
ओ३म् है बल तेजधारी, ओ३म् करूणाकंद है।।
ओ३म् सबका पूज्य है,हम ओ३म् का पूजन करें।
ओ३म् ही के ध्यान से हम शुद्घ अपना मन करें।।
ओ३म् के गुरूमंत्र जपने से रहेगा शुद्घ मन।
बुद्घि दिन प्रतिदिन बढ़ेगी, धर्म में होगी लगन।।
ओ३म् के जप से हमारा ज्ञान बढ़ता जाएगा।
अंत में यह ओ३म् हमको मुक्ति तक पहुंचाएगा।।
सारा वेद ज्ञान ओ३म् से नि:सृत है। ओ३म् से निकलकर सारा सृष्टिचक्र ओ३म् में ही समाहित हो रहा है। ‘ओ३म्’ ईश्वर का निजी नाम है। ईश्वर के शेष नाम उसके गुण-धर्म-स्वभाव के अनुसार हैं। वह परमतत्व परमात्मा तो एक ही है, पर विप्रजन उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते ओर उच्चारते हैं।
संसार में सर्वाधिक मूल्यवान वस्तुएं बहुत कम लोगों के पास होती हैं। बात सवारियों की करें तो दोपहिया वाहन तो अधिकांश लोगों के पास मिल जाते हैं, पर चार पहिया की गाड़ी कम लोगों के पास होती है और उनमें करोड़ों की कीमत वाली गाडिय़ां और भी कम लोगों के पास होती हैं। वैसे ही सत्य जो कि सुंदर है पर उसी अनुपात में बहुत मूल्यवान भी है, बहुत कम लोगों के पास उपलब्ध होता है। जैसे मिलावटी चीजें बाजार में बिकती रहती हैं, वैसे ही ‘सत्य’ भी मिलावटी करके बेचा जाता रहता है। लोगों ने धर्म जैसी सत्य, सुंदर और शिव अर्थात जीवनोपकारक कल्याणकारी वस्तु को भी मिलावटी बनाकर संप्रदाय (मजहब) के नाम पर बाजार में उतार दिया। लोग इस भेडिय़ा रूपी मजहब को ही धर्म मानकर खरीद रहे हैं और बीमार हो रहे हैं। संसार के अधिकांश लोगों को साम्प्रदायिक उन्माद ने रोगग्रस्त कर दिया है। यही कारण है कि सर्वत्र अशांति का वास है और मानव शांति को अब मृग मारीचिका ही मान बैठा है।
सत्य का उपासक देश भारत
हमारा देश भारतवर्ष तो प्राचीनकाल से ही सत्योपासक देश रहा है। उसकी जीवन चर्या का और दिनचर्या का शुभारंभ ही वेद=ज्ञान=सत्य अर्थात ईश भजन और ईश चर्चा से होता है। ऐसे ही परमवंदनीय भारतदेश के लिए कहा गया है:-
गायन्ति देवा: किलगीतकानि धन्यास्तुते
भारतभूमि भागे।
स्वर्गापवर्गापद हेतुभूते भवन्ति भूप: पुरूषा: सुख्वात्।।
अर्थात धन्य भारत ही सदा से सदगुणों की खान है।
धर्मरक्षा धर्मनिष्ठा ही यहां की बान है।।
दीन दुखियों पर दया करना यहां की शान है।
बस इसी से आज तक सर्वत्र इसका मान है।
जिस तरह वृक्षों में चंदन को बड़ा अधिकार है।
पर्वतों में हिमगिरि नदियों में गंगाधार है।
है कमल फूलों में और नागों में जैसे शेष है।
उस तरह देशों में सबसे श्रेष्ठ भारतदेश है।
यह पावन देश भारत विश्व के सभी देशों का सिरमौर केवल इसलिए है कि यह सत्यव्रती लोगों का देश है। सत्य की खोज करने वालों का देश है। केवल यही देश है जो डंके की चोट कहता है:-
ओ३म् अग्ने व्रतपते! व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्।
इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि।।
वेदमंत्र कह रहा है कि-‘हे सत्यस्वरूप अग्रणी व्रतपते परमात्मन! मैं आपसे सत्यभाषण अर्थात सदा सत्य बोलने और सत्य का ही अनुकरण करने का व्रत लेता हूं, किंतु साथ ही सत्यभाषी होने का सामर्थ्य भी चाहता हूं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप मेरी प्रार्थना को सुनेंगे और मुझ पर अपनी अपार कृपा की वर्षा करेंगे।’
भारत सत्योपासक इसलिए रहा कि उसने ही सर्वप्रथम इस तथ्य को समझा कि सत्य से ही न्याय निकलता है। पक्षपात रहित न्याय वही व्यक्ति कर सकता है जो सत्य को धारण करने वाला होगा, अथवा जो धर्मप्रेमी होगा। जो व्यक्ति मजहबी अर्थात साम्प्रदायिक होगा वह न्याय करने में भी पक्षपात कर जाएगा। आज विश्व की अधिकांश समस्याओं और कलह-क्लेशादि का कारण यही है कि न्याय करने वाले लोग भी पक्षपाती हो उठे हैं, वह धर्माचरण को पाप समझते हैं। जो असत्य है उसे सत्य और जो सत्य है उसे असत्य मानने की भूल करते हैं। इसी को अविद्या कहते हैं और इसी अविद्या ने हमारी न्यायप्रणाली और सत्ता प्रतिष्ठानों को भी जकड़ लिया है।
भारत ने स्वतंत्रता के पश्चात ‘सत्यमेव जयते’ को अपना आदर्श बनाया। देश के संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति जहां बैठते हैं, वहां उनके सिर के ऊपर लिखा गया है :-
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्घा:
वृद्घा न ते ये न वदन्ति धर्मम्।।
नासौ धर्मो पत्र न सत्यमस्ति,
न तत्सत्यं मच्छलेनाभ्युपेतम्।।
यह विदुर जैसे महाज्ञानी के वचन हैं। जिन्हें वह महाभारत में धृतराष्ट्र को समझाते हुए कह रहे हैं। उनका कहना है कि-‘‘हे महाराज धृतराष्ट्र! वह सभा सभा नही जिसमें वृद्घ पुरूष ना हों। वे वृद्घ नही जो धर्म ही की बात नही बोलते।
वह धर्म ही क्या जिसमें सत्य ही नही और वह सत्य ही क्या जिसमें छल का समावेश हो, अर्थात वह सत्य ही नही जो छल से युक्त हो।’’
इस श्लोक को देश के राजा (राष्ट्रपति) की पीठिका (गद्दी) के पीछे लिखने का उद्देश्य है कि यह देश आज भी सत्य का अनुसंधान करने वाला और सत्योपासक देश है। यह देश सत्य को छल-छदमों में लपेटकर कहने की साधना करने वाला देश नही है यह तो सत्य को जैसा है वैसा ही परोसने वाला देश है। सत्य से कोई समझौता यह देश नही करेगा। इसके विपरीत सत्य को धारण करेगा और ‘सत्यमेव जयते’ की परंपरा को विश्व परंपरा बनाकर आगे बढ़ेगा।
यहां पर हम यह नही कहेंगे कि देश में आदर्श चाहे जो हों, पर व्यवहार में इनके विपरीत हो रहा है या ऐसा हो रहा है-वैसा हो रहा है। नकारात्मक चिंतन पर अपने आपको केन्द्रित करने से बचने की आवश्यकता है। इसलिए यहां केवल यह देखना है कि हमारा मौलिक चिंतन क्या है ? हमारा मौलिक आदर्श क्या है ? हमारे गणतंत्र का वास्तविक उद्देश्य क्या है ? ये सारी चीजें तो एक बात से ही स्पष्ट हो जाती हैं कि हम सत्योपासक थे सत्योपासक हैं।
क्या कहता है ईशोपनिषद का ऋषि
ईशोपनिषद के ऋषि ने सत्य के विषय में बड़ा सुंदर कहा है :–
हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं ।
तत्वं पूषन्न पावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ।।
सत्य का मुख सुवर्णमय पात्र से ढंका हुआ है , हे पूषन ! उस सत्य धर्म के दिखाई देने के हेतु तू उस आवरण को हटा दे , अर्थात चमक दमक वाली वस्तुएं , धन, सुख-सुविधाएं आदि प्रलोभन मनुष्य को सत्य से अवगत होने नहीं देते एवं उसे सत्य के कर्तव्य पथ से विमुख कर देते हैं और विविधि अकर्मों व दुष्कर्मों में धकेल देते हैं |
अतः हे ईश्वर ! इस प्रलोभन का आवरण सत्यता के ऊपर से हट जाय ताकि हम सत्य पर चल सकें ।
वेद की ऋचाएं हमको सत्य से अवगत कराती हैं । सत्य मार्ग जब मिल जाता है तो जीवन का उद्धार होने लगता है । मनुष्य के रोम-रोम में पवित्रता का वास हो जाता है और वह गूढ़तम ज्ञान को भी समझने व सीखने में समर्थ हो जाता है।
अब यह प्रश्न आता है कि यह सत्य वास्तव में है क्या ? इसके बारे में विद्वानों का मत है कि सत्य का ही दूसरा नाम धर्म है , मूल कर्त्तव्य है । हमारी मौलिक चेतना को जगाने वाला और हमें ज्ञान गंगा में स्नान कराकर शुद्ध और पवित्र बना देने वाला सत्य ही तो है। ……स: ति य: ….. अर्थात जिसमें स: अर्थात अनश्वर जीव् एवं ति अर्थात तिरोहितकारी विनाशशील संसार …य:…दोनों का समन्वय है जिसमें ..वह सत्य है। इस सत्य को समझ जाने से पता चल जाएगा कि शरीर और आत्मा का क्या संबंध है ? शरीर क्या है और आत्मा क्या है ? हम शरीर के पोषण में ही यदि लगे हुए हैं तो हम कितनी बड़ी भूल कर रहे हैं ? तब हमें यह भी ज्ञान हो जाएगा कि आत्मा अनश्वर में रहकर भी शाश्वत , सनातन , अजर और अमर है । हम उसी के शासन , अनुशासन में अपने आप को चलाने का प्रयास करें । तभी इस जीवन की सार्थकता सिद्ध हो सकती है।
…….ब्रह्म का नाम ‘सत्यम’ कहा गया है …स+ति+यम …अर्थात स: = जीव …ति = तिरोहित ..विनाशयोग्य संसार …यम = अनुशासन ….अर्थात जो जीव व ब्रह्माण्ड दोनों को अनुशासन में रखने वाला है….धर्म है., कर्त्तव्य है ..वही ईश्वर है…ब्रह्म है वही परम सत्य है । उस परम सत्य को समझ लेने पर शरीर में बैठे हुए सत्य अर्थात आत्मा का विवेक हो जाता है या कहिए की आत्मा का विवेक हो जाने से उस परम सत्य की ओर जीव स्वभाविक रूप से चलने लगता है और यह समझ जाता है कि उसी परम सत्य को प्राप्त करना इस जीवन का परम उद्देश्य है । ऐसी महत्वपूर्ण वस्तु आवरण रहित ही रहनी चाहिए । अतः मानव जीवन का उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है कि हमें सत्य के ऊपर से प्रलोभन का आवरण हटाकर कर्तव्य पथ पर चलने का संकल्प लेना चाहिए । इससे सारे मनोरथ और उद्देश्य सफल व पूर्ण होते चले जाते हैं ।
ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त है
ईशोपनिषद का ऋषि इससे अगले मंत्र में और भी पते की बात कह रहा है। वह कहता है कि :—
पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन समूह
तेजो यत्ते रूपंकल्याणतम तत्ते पश्यामि,
योs सावसौ पुरुष: सो sहमस्मि ।।
भावार्थ :- हे सब के पालक, अद्वितीय ,अनुशासक -न्यायकारी , प्रकाश स्वरुप ( ज्ञान दायक ) प्रजापति ( ईश्वर ) … आप हमारे लिए दुख प्रताप ओं को हमसे दूर कीजिए और अपने उस सुखप्रद तेज को मेरे भीतर भरो , जिनसे हमारा कल्याण हो सकता है , उद्धार हो सकता है , उत्थान हो सकता है । दुखप्रद ताप किरणों ( रश्मीन) के दूर
हो जाने से मैं संपूर्ण दुर्गुण , दुर्व्यसन और दुखों से दूर हो जाऊंगा एवं सुखप्रद तेज समूह( तेज ) को प्राप्त हो जाने से मेरे भीतर असीम सकारात्मक ऊर्जा का संचार होगा । जिससे मेरे जीवन को उन्नति पथ प्राप्त हो जाएगा । आपका जो कल्याणकारी , मंगलमय रूप है , मैं उसे देख रहा हूँ अर्थात अपने रोम रोम में अनुभव कर रहा हूं उसकी अनुभूति मेरे भीतर दिव्यता उत्पन्न कर रही है और मैं भव्यता में ढलता हुआ जा रहा हूं । अतः जो वह पुरुष (ईश्वर ) है , वही मैं हूँ ।
विद्वानों की मान्यता है कि वास्तव में जब मनुष्य ईश्वर के उन गुणों—— पूषन ……सबका पोषक बिना भेद-भाव के कर्तव्य कारक, —एकर्षि…..अपने विशेष गुणों के कारण अद्वितीय सब में समानरूप से प्रसिद्ध व सब को उपलब्ध , — यम…. अटल न्यायकारी ,—सूर्य.. अन्तःकरण से अज्ञान का अन्धकार हटाकर हृदय में ज्ञान का प्रकाश देने वाला,—- प्रजापति ….अपने प्रजा, परिवार, देश, समाज ,राष्ट्र व मानवता का रक्षक आदि को आत्मसात कर लेता है तो उसका सरल-सहज ,भक्त-प्रेमी हृदय अपने प्रभु का दर्शन कर लेता है एवं स्वयं ईश्वर रूपमय होजाता है ।
इस प्रकार सत्य से आवरण हटने पर जब सत्य सम्मुख होता है तो ज्ञात होता है कि जो ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त है , वही मैं हूँ । इस अवस्था में आकर ऐसा लगने लगता है कि जैसे मेरे और उसके बीच अब कोई दूरी नहीं रही । इसे कुछ इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि जब हम किसी मंदिर में होते हैं तो हमारे भीतर मंदिर जैसे पवित्र भाव विराजमान हो जाते हैं और जब हम किसी मदिरालय में होते हैं तो वहां जाते ही हमारे भाव मदिरालय जैसे हो जाते हैं । मंदिर और मदिरा दोनों में इतना ही अंतर है कि एक अध्यात्म की ऊंचाई में हमें सराबोर कर देता है तो एक विनाशकारी भौतिकवाद के भूत से हमें परेशान करती हैं।
सत्य को धारण करना हमारा राजनीतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक लक्ष्य है। हम उसी के आधार पर ‘विश्वगुरू’ बनने की अपनी साधना में लगे हैं। हमारा सैकड़ों वर्ष का स्वाधीनता संग्राम इसी सत्य की साधना के लिए था। क्योंकि यह सत्य ही न्यायपरक ढंग से हर व्यक्ति को जीने का अधिकार और स्वाधीनता प्रदान करता है। इसलिए सैकड़ों वर्ष का हमारा स्वाधीनता संग्राम मानव मात्र की स्वतंत्रता का संघर्ष था। हमने उस काल में भी सत्य को धारण किये रखा और उसी के लिए लड़ते रहे। जब देश स्वाधीन हुआ तो देश के राष्ट्रपति की गद्दी के पीछे अपने आदर्श को लिखकर मानो सारे देश ने अपने संकल्प को दोहराकर इस संकल्प के लिए बलिदान हुए अपने लाखों वीर योद्घाओं को भी अपनी भावपूर्ण श्रद्घांजलि अर्पित की। सारे देश ने उन सत्योपासक बलिदानियों के सामने नतमस्तक होकर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की। सत्य की साधना कृतज्ञता को सिखाती है। वह बार-बार हमसे कहलाती है-
‘‘मेरा मुझमें कुछ नही जो कुछ है सो तोय।
तेरा तुझको सौंपते क्या लागे है मोय।।’’
वेद, धर्म और सत्य
भारत में वेद, धर्म और सत्य का अन्योन्याश्रित संबंध है। जब हम वेद की ऋचाओं को बोलने और सत्य को धारण करने की प्रार्थना, संकल्प करते हैं, तो मानो वेद, धर्म और सत्य इन तीनों को हृदयंगम करते हैं। धर्म सत्य पर आधारित होता है और वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। अत: जहां धर्म है-वहीं सत्य है और जहां सत्य है वहीं वेद है। एक के बिना शेष दो का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा।
भारत के ऋषियों ने इस सत्य को बड़ी गहराई से समझा था। इसलिए उन्होंने वेदानुयायी होकर सत्य और धर्म की रक्षा का संकल्प लिया। वेद ने भारत में जिस राजधर्म की घोषणा की, वह भी शत-प्रतिशत धर्माधारित रहा। वेद ने विश्व को सर्वप्रथम गणतंत्र का राजनीतिक दर्शन दिया। उस गणतंत्र की नींव भी भारत के ऋषियों द्वारा सत्य पर रखी गयी। गणतंत्र में राजधर्म पर संक्षिप्त प्रकाश डालने के लिए हम यहां केवल वेद के एक मंत्र का उल्लेख करना चाहेंगे, जिसमें राजा या राष्ट्रपति अपने लिए उन मौलिक सिद्घांतों (सत्य, धर्म) की चर्चा कर रहा है, जिनको वास्तव में उसकी योग्यता का मापक कहा जा सकता है। राजा अपने पुरोहित को राज्याभिषेक के समय यह वचन देता है-
‘‘सवित्रा प्रसवित्रा सरस्वत्या वाचा त्वष्ट्रा रूपै: पूष्णा पशुभिरिन्दे्रणास्मे। बृहस्पतिना ब्रह्मणा वरूणेनौजसा अग्नि तेजसा सोमेन राज्ञा विष्णुना दशभ्या देवतया प्रसूत: प्रसर्पामि।। (यजु. 10-30)
राजा कहता है कि मैं अपने शासनकाल में सविता, सरस्वती, त्वष्टा, पूषा, इंद्र, बृहस्पति, वरूण, अग्नि, सोम, विष्णु इन दस देवताओं से प्रेरणा प्राप्त करता हुआ राज्य का संचालन करूंगा अर्थात राजा अपने भीतर उन दिव्य गुणों की अनुभूति कर रहा है जिनके द्वारा जनकल्याण करना राज्य और राजनीति का मुख्य आधार हो सकता है, और होना भी चाहिए। यदि राजनीति से जनकल्याण को निकाल दिया गया तो वह बिना जनकल्याण के अर्थात अपने पावनधर्म के निर्वाह न करने के कारण जनता के लिए विनाशकारी भी हो सकती है। इसलिए मंत्र में राजनीति और धर्म का अद्भुत समन्वय स्थापित किया गया।
वेद की ऋचाओं में सत्य-धर्म का रस यूं तो सर्वत्र ही भरा पड़ा है, पर इस वेदमंत्र के ऋषि ने जितनी सुंदरता से सत्यधर्म का रस निचोडक़र हमें पिलाने का प्रयास किया है, वह अनुपम है। मैं समझता हूं कि विश्व में प्रत्येक संविधान को वेद के इस मंत्र को अपने राष्ट्रपति या शासन प्रमुख की योग्यता का पैमाना घोषित करना चाहिए। क्योंकि विश्व के सारे संविधानों का और उनके निर्माताओं का परिश्रम-पुरूषार्थ एक ओर है और वेद के इस मंत्र के ऋषि का चिंतन एक ओर है, और इसके उपरांत भी चमत्कार देखिए कि ऋषि का चिंतन सब पर भारी है।
राजा वचन दे रहा है और उसकी प्रजा उन वचनों को सुन रही है। सत्य-धर्म पर आधारित इन वचनों को आप ‘चुनावी वायदे’ नही कह सकते जिनके पीछे कोई शास्ति नही-होती। इसके विपरीत ये आप्त वचन हैं, जिनके पीछे सत्य-धर्म की शास्ति हैं, अर्थात राजा सत्यधर्म की रक्षा के लिए अपने दिये गये वचनों का पालन करने के लिए बाध्य है। सनातन धर्म की यही अनूठी विशेषता है कि यह कहे गये को करने के लिए प्रेरित करता रहता है, अन्यथा ‘पाप’ के भागी बनने के भय से हमें प्रताडि़त करता है। कहे गये को करने की प्रेरणा हमारे भीतर जहां से उठती है, कहीं-वहीं धर्म और सत्य का वास है।
उत्पत्ति का प्रतीक :सविता देव
इस मंत्र में ‘सविता’ उत्पत्ति का प्रतीक है, सविता से प्रेरणा लेकर राजा राष्ट्र में सब प्रकार के आवश्यक उत्पादनों की ओर ध्यान दे। सरस्वती वाणी का प्रतीक है। राष्ट्र की वाणी को (भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अर्थात ऐसी स्वतंत्रता जो नये-नये वैज्ञानिक अनुसंधानों को और नये-नये आविष्कारों को जन्म देने वाली हो और जिससे लोगों के मध्य किसी प्रकार की कटुता के बढऩे की तनिक भी संभावना ना हो, एक दूसरे को नीचा दिखाने वाली और एक दूसरे के विरूद्घ अपशब्दों का प्रयोग करने वाली साम्प्रदायिक भाषा न हो) राजा न रोके। मंत्र का अगला शब्द ‘त्वष्टा’ है। ‘त्वष्टा’ रूप का प्रतीक है।
राजा को चाहिए कि वह राष्ट्र में रूपरंग भर दे। कहने का अभिप्राय है कि राजा अपने सभी प्रजाजनों को प्रसन्नवदन रखने का हरसंभव प्रयास करे। सभी की त्वचा पर चमक हो और यह चमक जो कि रूप रंग का प्रतीक है, तभी चमकीली रह सकती है जबकि व्यक्ति समृद्घ और प्रसन्नवदन हो। मंत्र में आये ‘पूषा’ शब्द का भी विशेष अर्थ है। पूषा का अभिप्राय है कि पशुओं की रक्षा करना, पशुओं का रक्षक होकर राज्य करना। राजा के लिए यह आवश्यक है कि वह पशुओं का भक्षक न होकर रक्षक बनकर राज्य करेगा। अभिप्राय स्पष्ट है कि राजा राज्य में पशुवधशालाओं का निर्माण नही कराएगा। ना ही मांसाहारी होगा और ना ही मांसाहार को बढ़ावा देना उचित मानेगा। राजा सृष्टि के जीवन चक्र को समझने वाला हो, जिसके अनुसार प्रत्येक प्राणी का जीवित रहना दूसरे अन्य प्राणियों के लिए आवश्यक है। हर प्राणी के प्राणों की रक्षा का दायित्व राजा के ऊपर इसीलिए है कि वह सभी प्राणियों का संरक्षक है। जो लोग किसी पूर्वाग्रह के कारण या किसी साम्प्रदायिक मान्यता के कारण किन्हीं पशुओं की हत्या करते हैं उन्हें पूषा रूप राजा दण्ड दे। ऐसे राजा को राष्ट्र को कृषि और पशुपालन की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए।
मंत्र का अगला शब्द है-‘इंद्र’। इंद्र को हमारे वीरता और ऐश्वर्य का अर्थात समृद्घि का प्रतीक माना गया है। राजा का कर्त्तव्य है कि वह देश की प्रजा को वीर तथा ऐश्वर्यशाली बनाये। वीर्य रक्षा से वीर संतति का निर्माण होता है। राष्ट्र रक्षा के लिए बलवान, सभ्य और योद्घा पुत्रों की आवश्यकता अनुभव की जाती है। वह तभी संभव है, जब देश का राजा इंद्र, जैसा वीर तथा पराक्रमी हो क्योंकि देश की प्रजा अपने राजा का ही अनुकरण किया करती है। इसलिए विद्यालयों के पाठ्यक्रम में ब्रह्मचर्य रक्षा के सूत्रों को पढ़ाने की व्यवस्था राजा को करनी चाहिए। ‘ऊर्ध्वरेता’ ब्रह्मचारियों का निर्माण जब तक हमारे विद्यालय करना आरंभ नही करेंगे, तब तक राष्ट्र में नारी का सम्मान हो पाना असंभव है। फिल्मों के माध्यम से अश्लीलता के प्रस्तुतीकरण से और फिल्मी हीरो-हीरोइनों के अश्लील प्रदर्शनों को प्रोत्साहित करने से देश में वीर संतति अर्थात बलवान सभ्य और योद्घा यजमान पुत्रों का निर्माण होना बाधित हो गया है। कारण कि हमने सत्य से मुंह फेर लिया है-वेदधर्म से, वेद ऋचाओं द्वारा प्रतिपादित धर्म व्यवस्था से हमने अपने आपको दूर कर लिया है।
राजा के लिए बृह्स्पति के समान होने की बात भी वेद मंत्र कहता है। बृहस्पति का आभामंडल एक अद्भुत प्रकाश के आवरण से आच्छादित होता है। यह प्रकाश बृहस्पति का ज्ञान प्रकाश है। जो उसे सबसे अलग और सर्वोत्तम बनाता है। इस प्रकार बृहस्पति का अभिप्राय है-ज्ञान में सर्वोत्तम होना महामेधा -संपन्न होना। राजा को या राष्ट्रपति को हमारे सम्मुख अपने ज्ञान का प्रकाश करते रहना चाहिए। वह किसी के लिखे हुए भाषण को पढऩे वाली कठपुतली ना हो, अपितु हर क्षेत्र का और हर विषय का वह गंभीर ज्ञान रखने वाला हो, उसके ज्ञान की गहराई उसकी योग्यता हो। इस योग्यता के कारण देश के लोग उसका स्वभावत: अनुकरण करने वाले हों। ऐसा शासन प्रमुख ही देश को सही मार्ग दिखा सकता है। राजा को चाहिए कि वह राष्ट्र में सत्यधर्म की वृद्घि के लिए और न्याय की रक्षा के लिए लोगों में ज्ञानवृद्घि करता रहे। बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों का निर्माण कराये, कौशल-विकास के लिए विभिन्न शोध संस्थान स्थापित करे, और विद्वत्मंडल का निर्माण करे-जिससे कि विद्वानों को गंभीर विषयों पर शास्त्रार्थ करते रहने का अवसर मिले और देश के ज्ञान-विज्ञान की सुरक्षा किया जाना संभव हो सके। राजा स्वयं किसी प्रकार के पाखण्ड या अंधविश्वास में आस्था रखने वाला न हो।
अब आते हैं ‘वरूण’ पर। वरूण दण्डशक्ति का प्रतीक है। राजा को राज्य में प्रजाजनों के शांतिपूर्ण जीवन व्यवहार में किसी भी आतंकी या उग्रवादी के प्रति न्याय करते समय किसी प्रकार का साम्प्रदायिक भेदभाव नही करना चाहिए। उसे आतंकवाद की एक निश्चित परिभाषा स्थापित करनी चाहिए। उस निश्चित की गयी परिभाषा के अनुसार अपने कठोर दण्डविधान का निर्माण करे और उस विधान का उल्लंघन करने वाले को कठोर दण्ड प्रदान करे। राजा को राज्य की मुख्यधारा में विघ्न डालने वाले हर व्यक्ति या व्यक्ति समूहों (उग्रवादी संगठनों) के प्रति कठोरता का व्यवहार करना चाहिए। उसे अपराधियों को यथायोग्य दण्ड देने में किसी प्रकार का संकोच या भय प्रदर्शित नही करना चाहिए।
क्यों मिला है शरीर रूपी रथ
अभिप्राय स्पष्ट है कि मानव को यह शरीर रथ भवसागर को पार करने के लिए मिला है। इसे पार कर जाना-उन्नति है और इसमें फंसकर खड़े रह जाना अवन्नति है, जबकि इसमें डूब कर मर जाना नरक में जाने के समान है। ऐसी वेद ऋचाएं हमें बता रही हैं कि ऐसे ‘साधन बनाओ और ऐसी साधना बढ़ाओ’ कि हर स्थिति में भवसागर के पार लग जाएं। कहने का अभिप्राय है कि हम हर स्थिति में उन्नति पथ के पथिक हों। प्रगति जीवन की धारा है। अत: प्रगति को हम कभी भी छोड़ें नही।
वेद की ऋचाओं के शब्द-शब्द में एक आह्वान छिपा है। कहीं यह आह्वान व्यक्ति की सामाजिक उन्नति से जुड़ा है तो कहीं यह उसके आध्यात्मिक, आत्मिक उत्थान से जुड़ा है। हर ऋचा में एक संदेश है-कि आगे बढ़ो या जीवन पथ पर प्रगति करते चलो और अंत में जीवन के वास्तविक ध्येय मुक्ति को प्राप्त कर लो। कहा गया है :-
यो जागार तमृृच: कामयन्ते यो जागार तमु सामानि यन्ति।
यो जागार तमयं सोम आह तवाह मस्मि सख्योनोका:।। (ऋ. 5-44-14)
अर्थात जो जागता है, जो सावधानमनसा अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित है वेद की ऋचाएं उसी से प्यार करती हैं, उसी का वर्ण करती हैं और उसी को नमन करती हैं। कहने का अभिप्राय है कि ऐसे व्यक्ति को ही वैदिक ऋचाएं उन्नति पथ पर धकेलती हैं जो अपने लक्ष्य को जानता है और उसे प्राप्त करने के लिए सचेष्ट हो जाना चाहता है। जो जागता है उसी से साम प्यार करते हैं। जो जागता है उसी का सोमप्रभु सखा बनता है।’’
अथर्व (12-1-45) में कहा गया है कि देश में विभिन्न भाषा-भूषा के लोग रह सकते हैं, पर उन सबको परस्पर भ्रातृभाव से ही रहना चाहिए। किसी प्रकार का द्वेष वह परस्पर न पालें। यह व्यवस्था अथवा वेद का आदेश वर्तमान विश्व की और देशों की बिगड़ती उस सामाजिक व्यवस्था को सुधारने के लिए पर्याप्त है, जिसमें अलग-अलग भाषाओं और अलग-अलग मतों के लोगों का परस्पर मिल कर रहना सर्वथा कठिन से कठिन होता जा रहा है। लोगों में असहिष्णुता का भाव बढ़ रहा है और विपरीत मतावलम्बी के प्रति लोगों में घृणा के भाव में वृद्घि होती जा रही है।
वेद की ऋचाओं का लाभ उठाने वाले जनों में सहिष्णुता, धैर्य और गंभीरता का भाव कूट कूटकर भर जाता है। वेद की शिक्षाओं का ही प्रभाव है कि भारतवर्ष आज तक भी विश्व में सर्वाधिक गंभीर, धैर्यवान विवेकशील और शांत प्रकृति के लोगों का देश माना जाता है। जबकि वेद की ऋचाओं का पाठ हमसे बहुत समय पूर्व छूट गया है। परंतु हमारे पूर्वजों के द्वारा वेद की ऋचाओं का दीर्घकाल तक पाठ किया जाता रहा है, उनकी उस युगयुगों की साधना का ही परिणाम है कि हमारे देश की हवाओं में अभी तक शांति का वास है, जो हमें अब तक उच्छ्रंखल नही बनने दे रही है। किसी ने कितना सत्य कहा है :-
गौतम ने आबरू दी इस माब दे कुहन को।
सरमद ने इस जमीं पर सदके किया वतन को।।
अकबर ने जाय उलफत बख्शा इस अंजुमन को।
सींचा लहू से अपने राणा ने इस चमन को।।
सब शूरवीर अपने इस खाक में निहां हैं।
छूटे हुए हैं खण्डहर और उनकी हड्डियां हैं।
वेदों की ऋचाओं का पावन गान हम करते रहें और सोते हुए विश्व को जगाते रहें कि जागो अन्यथा अनर्थ हो जाएगा।
विष्णु शब्द के अर्थ
मंत्र में आया शब्द ‘अग्नि’ तेज का प्रतीक है। अग्रणी शब्द से अग्नि बना है। नायक का अग्रणी या अग्नि समान तेजस्वी होना भी आवश्यक है, क्योंकि एक तेजस्वी नायक ही अपनी प्रजा के भीतर तेज का संचार कर सकता है। नेता को या राजा को सदा इस अग्निव्रत (आगे-आगे चलना) का पालन करना चाहिए। अग्नि का अर्थ तेज है, इसलिए ‘अग्नि’ से राष्ट्र निर्माण का संकल्प लेने की बात इस वेदमंत्र में कही गयी है। कहने का अभिप्राय है कि हमारा राष्ट्रधर्म अग्नि से प्राण ऊर्जा प्राप्त करता है।
‘सोम’ सौम्यता का आहलाद का, तथा ‘भेषज’ का प्रतीक है। राजा राष्ट्र में सौम्यता तथा आहलाद लाये तथा स्वास्थ्य विभाग को सदा सतर्क रखे सोम औषधियों का भी ‘प्रतीक’ है। इसलिए पूरा समाज नीरोग और स्वस्थ रहे यह भी राजा का दायित्व है। इसलिए राजा अपने राज्याभिषेक के समय अपनी सौम्यता का भी वचन अपने प्रजाजनों को दे रहा है कि वह जनहित में इसका भी सदा सदुपयोग करता रहेगा।
अब आते हैं, विष्णु शब्द पर। विष्णु का अभिप्राय है-पालक-पिता। विष्णु का अर्थ व्यापकता से भी है। जैसे परमपिता परमेश्वर सर्व व्यापक है, वैसे ही राजा को भी अपने प्रशासनिक और गुप्तचर तंत्र के माध्यम से ‘व्यापक’ होना पड़ेगा साथ ही उसे पिता की भांति अपनी प्रजा का पालक भी बनना पड़ेगा। वह प्रजाहित चिंतक हो, प्रजा उत्पीडक़ ना हो। इसलिए उसे यह वचन देना पड़ रहा है कि वह सदा प्रजाहित चिंतक ही रहेगा। जैसे ईश्वर सर्वत्र व्यापक है वैसे ही राजा अपने प्रभाव से अपनी योग्यता से और अपने गुणों से सर्वत्र व्यापक रहे। वेद के देवों से ऐसी प्रेरणा लेकर जो राजा राज्य करता है, वही राजा सत्य को धारण करता है उसे ही धर्म धारण करता है, और उसे ही वेद की ऋचाएं सही मार्गदर्शन करती हैं। जब एक वेद की ऋचा विश्व के सभी संविधानों पर भारी हो जाती हैं और सारे विश्व की विकृतावस्था को सुधारने के लिए केवल एक ही वैदिक ऋचा पर्याप्त है तो वेदों का विस्तृत अध्ययन करने से हमारा कितना लाभ हो सकता है-यह वर्णनातीत है शब्दातीत है। बोलो-वैदिक धर्म की जय।
राजधर्म-राष्ट्रनीति या राजनीति को सबसे बड़ा धर्म कहा गया है। कारण कि राजधर्म अन्य गृहास्थादि धर्मों का नायक है। तभी तो यथा राजा तथा प्रजा: कहा जाता है। राजा का अनुकरण देश के अन्य लोग करते हैं।
वेदधर्म राजधर्म की सुंदर व्यवस्था प्रतिस्थापित करके ही नही रूक गया, उसने मानव जीवन को हर क्षेत्र में सुव्यवस्थित और मर्यादित करने रखने का हरसंभव प्रयास किया है। इसके लिए वेद ने जीवन को एक यज्ञ के रूप में परिभाषित किया एक ऐसा जीवन जो केवल पारमार्थिक उद्देश्य के लिए ही जिया जाता हो। वेद मनुष्य के लिए उन्नति का हर अवसर उपलब्ध कराता है। उसकी हर शिक्षा पंथनिरपेक्ष है वह जो कुछ भी कहता है या करता है वह मनुष्य मात्र और प्राणीमात्र के लिए कहता या करता है। उसमें साम्प्रदायिकता का एक शब्द भी नही खोजा जा सकता। अथर्ववेद 8-1.6 में वेद मनुष्य को उद्बोधन करते हुए कहता है-‘‘हे पुरूष! ध्यान रख, तेरी उन्नति हो, अवन्नति नही। तुझे मैं जीवन और बल दे रहा हूं। तू इस अमृतमय, सुखगामी शरीर रथ पर आरूढ़ हो और दीर्घजीवी होता हुआ ज्ञानचर्चा कर।’’
सत्य को मीठा करके बोलो
हमारा यह देश विश्व के अन्य देशों का सिरमौर है, क्योंकि यह किसी को आलस्य या प्रमादवश सोने नही देता है। यह जागता भी है और जगाता भी है। जयशंकर प्रसाद जी लिखते हैं :-
हिमालय के आंगन में उसे प्रथम
किरणों का दे उपहार।
उषा ने हंस अभिनंदन किया
और पहनाया हीरक हार।।
जगे हम लगे जगाने विश्व
लोक में फैला फिर आलोक
व्योम तमपुंज हुआ सब नष्ट
अखिल संस्कृति हो उठी अशोक।।
विश्व में अपनी यह गौरवपूर्ण स्थिति हमने बड़े त्याग तप के उपरांत प्राप्त की थी। हमने अपनी वैदिक संस्कृति का निर्माण नैतिकता की ईंटों को बड़े अच्छे ढंग से कांट छांटकर किया, उसने धर्म का गारा लगाया और सत्य से उसे लेपित किया, सजाया। मनु महाराज ‘मनुस्मृति’ में कहते हैं कि ‘‘जिस सभा में अधर्म से धर्म घायल होवे और उस घायल धर्म के घाव को सभासद पूरा न कर सके तो निश्चय जानो कि उस सभा में सभी सभासद घायल पड़े हैं। इसलिए सभासदों के लिए यह उचित है कि इन अधर्म रूपी कांटों को निकालकर बाहर करें, नही तो सभी सभासद भी अधर्म रूपी कांटे से बिंधे अर्थात घायल समझे जाएंगे।’’
जो लोग वाणी से कर्कश सत्य का, (जिसे लोग बिना लाग लपेट के दूसरे को चुभती भाषा में बोलते हैं) प्रयोग करते हैं, वे सत्य तो बोलते हैं परंतु अप्रिय बोलते हैं।
सत्य को मीठा करके बोलो, सहज होकर सरलता के साथ बोलो-चमत्कार देखोगे कि वह दूसरे के हृदय में उतर जाएगा है, इसलिए विद्या व्यक्ति को विनय सिखाती है, विनम्र बनाती है। विद्यावान सत्यव्रती सदा विनम्र भाषा में सत्य वचनों का प्रयोग करता है जिन्हें संसार के लोग सहज रूप में स्वीकार कर लेते हैं। वस्तुत:
तद् विष्णो: परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरय:।
दिवीव चक्षुराततम्।।
वह परमपिता परमात्मा ‘सूरय:’ सत्यवेत्ता विद्वानों का ज्ञान का विषय है। मनुष्य को चाहिए कि वह अपने भाषण में माधुर्य सत्यता और सरलता उत्पन्न करे।
कुदरत को नापसंद है सख्ती जुबान में।
उसने नही लगायी है हड्डी जुबान में।
जहां वेद की ऋचाएं बोली जाती हैं, वहां से संसार के सभी दुर्गुण, दुरित और दुखादि स्वयं ही मिट जाते हैं। उन परिवारों की स्थिति को वेद इस प्रकार स्पष्ट करता है :–
‘‘अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु संमना:।
जाया पत्ये मधुमती वाचं वदतु शान्तिवाम्।।
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा।
समयंच: सव्रता भूत्वावाचं वदत भद्रया।।
(अथर्व. 3-30-2,3)
वेद का उपदेश है कि-जहां ‘‘पुत्र पिता का आज्ञाकारी होता है, वह माता के प्रति आदर और प्रेम रखने वाला है। पत्नी पति से मिठास भरी और शांतवाणी से वार्त्तालाप करती है, वहां परिवार में शांति का सर्वत्र वास रहता है, सबके मुखों से मीठा मधु टपकता है, भाई-भाई से द्वेष नही करता, बहन बहन से द्वेष नही करती। भाई बहन भी परस्पर प्रीति पूर्वक स्नेहभाव के बंधन में बंधकर रहते हैं। सारा परिवार परस्पर प्रेम के सूत्रों से बंधा रहता है। सबको अपने-अपने कर्त्तव्यों को करते रहने की चिंता रहती है, कोई अपने अधिकारों के लिए संघर्ष नही करता। क्योंकि कत्र्तव्य का निर्वाह करने से दूसरे के अधिकार की रक्षा स्वयं ही हो जाती है। जहां कर्तव्य के प्रति प्रमाद है, आलस्य है या उपेक्षावृत्ति है वहीं अधिकारों के लिए संघर्ष होता पाया जाता है। देश में यवन और अंग्रेज शासकों ने अपने भारतीय प्रजाजनों के प्रति अपने कत्र्तव्यों का निर्वाह करना छोड़ दिया तो भारत के लोगों ने अपने अधिकारों (स्वतंत्रता) की प्राप्ति के लिए संघर्ष छेड़ दिया। अधिकारों की मांग उन्ही क्रूर सत्ताओं या सत्ताधीशों के विरूद्घ उठा करती हैं जो स्वयं अन्यायी-पक्षपाती या कर्त्तव्य के प्रति पूर्णत: असावधान हो उठते हैं। वेद की ऋचाएं बोलोगे, उनके दिव्य विचारों पर जाओगे तो कर्त्तव्य निर्वाह के सत्य को अपने आप धारण कर लोगे-जिससे परिवार से लेकर राष्ट्र तक के और राष्ट्र से लेकर संपूर्ण भूमंडल के सभी प्रकार के वैर विरोध स्वयं ही समाप्त हो जाएंगे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत