हमारे देश के एक महान हिंदू सम्राट के रूप में मान्यता प्राप्त हेमचंद्र विक्रमादित्य ने 1553 से 1556 के बीच भारत के बड़े भूभाग पर लगभग 4 वर्ष तक शासन किया । इस महायोद्धा ने 48 माह में 22 युद्ध लड़े अर्थात उसने प्रति 2 माह में 1 एक युद्ध लड़ा और उन सारे युद्धों में सफलता प्राप्त की । इन 22 युद्धों में से 20 युद्ध उसे अफगान विद्रोहियों से निपटने के क्रम में लड़ने पड़े , और दो युद्ध अकबर से लड़ने पड़े थे । 1556 की 21जनवरी को जब हुमायूं की मृत्यु हुई तो उस समय हिंदूवीर हेमचंद्र विक्रमादित्य बंगाल में था । जहां उसने वहां के शासक मोहम्मद शाह को पराजित किया । यहां से यह हिंदू वीर दिल्ली की ओर चला। हुमायूं की मृत्यु के उपरांत वह दिल्ली का सम्राट बनने के लिए बंगाल से चल दिया था । उसके बंगाल से दिल्ली के लिए प्रस्थान करने की सूचना जैसे ही अकबर और उसके साथियों को मिली तो वह दिल्ली ही नहीं बल्कि हिंदुस्तान को भी छोड़कर भाग खड़े हुए थे । 24 दिन पश्चात अर्थात आज के दिन 14 फरवरी 1556 को कलानौर में ईंटों के चबूतरे को राज्यसिंहासन मानकर अकबर को वहां पर उसके कुछ मुट्ठी भर दरबारियों ने हुमायूं के छोटे से साम्राज्य का शासक बनने की शपथ दिलाई थी ।
अकबर जैसे हिंदू विरोधी बादशाह का महिमामंडन करने के लिए हमने यह पोस्ट नहीं डाली है , बल्कि हम यह तथ्य स्पष्ट करना चाहते हैं कि अपने पिता की मृत्यु के 24 दिन तक अकबर क्या करता रहा ?
क्यों नहीं उसने हुमायूं के मरने के तुरंत पश्चात उसके साम्राज्य का शासक बनने की शपथ ग्रहण की ,?
वह दिल्ली छोड़कर कलानौर के किले में जाकर क्यों छिपा और वहां पर अपने 10 या 20 साथियों के द्वारा ही शपथ की छोटी सी रस्म क्यों पूरी कर ली ? यदि इस सारे घटनाक्रम के पीछे के सच को खोजें तो पता चलता है कि हेमचंद्र विक्रमादित्य का भय स्वयं अकबर और उसके साथियों के भीतर इतना अधिक प्रवेश कर चुका था कि वह दिल्ली ही नहीं बल्कि हिंदुस्तान को भी छोड़ने के लिए भाग खड़े हुए थे । अतः आज अपने उस महायोद्धा हेमचंद्र विक्रमादित्य के पराक्रम को स्मरण करने का दिन है।
यदि किसी मुस्लिम बादशाह के भय से कोई हिंदू राजा इस प्रकार भाग रहा होता जिस प्रकार हेमचंद्र विक्रमादित्य के भय से अकबर और उसके साथी हिंदुस्तान छोड़कर भाग रहे थे तो हमारा इतिहास उस घटना को बहुत बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत करता । शत्रु इतिहास लेखक उस घटना को ऐसे दिखाते कि हिंदू किस प्रकार कायरता का प्रदर्शन करते रहे हैं ? परंतु इस घटना में क्योंकि हेमचंद्र विक्रमादित्य नाम के हिंदू सूर्य का शौर्य और पराक्रम हमें दिखाई देता है इसलिए इस घटना को इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया गया और उसकी चर्चा तक नहीं की गई।
इतिहास के दोबारा लिखे जाने की इसीलिए आवश्यकता है कि वह तथ्यात्मक हो और राष्ट्रद्रोही व राष्ट्रभक्त दोनों प्रकार की शक्तियों में उचित अंतर करके देखने की क्षमता रखने वाला हो।
इतिहास जब धर्म , संस्कृति और राष्ट्र के शत्रुओं को उन्हीं के कार्यों के अनुसार वर्णित करने लगता है और धर्म , संस्कृति व राष्ट्र के रक्षकों को उनके कार्यों के अनुसार महिमामंडित करने लगता है तब इतिहास अपनी शुद्ध भाषा बोलता है । हमें वही इतिहास चाहिए जो शुद्ध भाषा बोलने वाला हो।
हेमचंद्र विक्रमादित्य उस समय बंगाल में स्वयं को दिल्ली का सम्राट बनाने की घोषणा कर चुके थे और अब दिल्ली की ओर बढ़ रहे थे । हुमायूं के किसी भी व्यक्ति का साहस नहीं था कि वह हेमचंद्र विक्रमादित्य का सामना कर सके । यही कारण रहा कि उन्होंने हेमचंद्र विक्रमादित्य को दिल्ली की ओर बढ़ने दिया और अकबर को अपना शासक मानने की मौन औपचारिकता पूर्ण कर ली ।
7 अक्टूबर 1556 को हेमचंद्र विक्रमादित्य दिल्ली की ओर चले थे। दिल्ली के लोगों ने उस समय अपने महान शासक का अभूतपूर्व स्वागत किया था। पुराने किले में उनका राज्याभिषेक हुआ। जहां पर हेमचंद्र विक्रमादित्य ने बहुत ही ओजस्वी भाषण दिया था । इस प्रकार लगभग 10 – 11 महीने अकबर और उसके किसी भी मुगल अधिकारी का दिल्ली पर शासन नहीं रहा। 21 जनवरी 1556 से 5 नवंबर 1556 तक मुगल या उनका कोई भी व्यक्ति दिल्ली से दूर रहा और प्रारंभ में अप्रत्यक्ष रूप से तो बाद में प्रत्यक्ष रूप से दिल्ली पर हमारे हिंदू शौर्य संपन्न हेमचंद्र विक्रमादित्य का शासन रहा ।अतः हुमायूं के पश्चात दिल्ली के इतिहास को लिखते समय हेमचंद्र विक्रमादित्य के नाम का अध्याय इतिहास में जोड़ा जाना आवश्यक है।
अपने इतिहास के इस महानायक हिंदू सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य और उनके साथियों पर आज शोध करने की आवश्यकता है । जिनके बल पर उसने हिंदुस्तान से अफगानियों और मुगलों को भगाने का महान कार्य किया था ।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत