ऋषि दयानंद का जन्म होना इतिहास की सबसे महनीय घटना
–मनमोहन कुमार आर्य
ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन को सत्य को खोज में समर्पित करने सहित उन्हें स्वयं को उपलब्ध हुए सत्य ज्ञान को देश व संसार की जनता में प्रचारित व वितरित करने का सौभाग्य प्राप्त है। उनसे पूर्व सत्य का उन जैसा अन्वेषी और सत्य को ग्रहण और असत्य को छोड़ने वाला तथा इसके साथ ही सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों का जन–जन में प्रचार करने वाला दूसरा ज्ञात मनुष्य व महापुरुष कोई नहीं है। उन्होंने न केवल सत्य का अनुसंधान कर सत्य को धारण और प्रचारित ही किया अपितु उनकी सबसे बड़ी एक विशेषता यह भी थी कि उन्होंने असत्य का खण्डन, आलोचना व समीक्षा भी की। उन्होंने यह भी बताया कि मनुष्य का जन्म सत्य को जानने व सत्य को धारण करने सहित सत्य का मण्डन एवं प्रचार करने, असत्य का खण्डन व उसे अग्राह्य करने के प्रयत्न करने के लिये होता है। ऋषि दयानन्द का जीवनचरित देश व संसार के सभी मनुष्यों के लिये आदर्श महापुरुष का आदर्श जीवन चरित्र है। ऋषि का जीवन चरित्र पढ़कर व उसे अपने जीवन में धारण कर हम स्वयं को मनुष्य जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति तक पहुंचा सकते हैं।
हम यह भी अनुभव करते हैं कि मानव जीवन का जो लक्ष्य समाधि, ईश्वर साक्षात्कार और मोक्ष होता है वह सब ऋषि दयानन्द को प्राप्त हुआ था। ऋषि का हम सब पर समान रूप से ऋण है। उन्होंने हमें असत्य व अज्ञान से बचाया और हमें ज्ञान का मार्ग बताया। ऋषि दयानन्द के साहित्य व उनकी शिक्षाओं को पढ़कर मनुष्य का सर्वांगीण विकास वा उन्नति होती है। ऋषि ने स्वयं कहा है कि मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति का अर्थ उसकी शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति का होना होता है। उनके बनाये आर्यसमाज में मनुष्य कि इन्हीं उन्नतियों पर ध्यान देकर उन्हें प्राप्त कराया जाता है। इसका स्वर्णिम नियम भी उन्होंने दिया है जो कहता है कि सब मनुष्यों को अविद्या का नाश तथा विद्या की उन्नति करनी चाहिये। वेदाध्ययन सहित ऋषि दयानन्द एवं उनके पूर्ववर्ती ऋषियों के ग्रन्थ मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति में सहायक एवं अपरिहार्य हैं। जो मनुष्य ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन नहीं करता, वह सर्वांगीण उन्नति एवं जीवन के लक्ष्य को प्राप्त होने सहित इन अनिवार्य विषयों को जानने से भी वंचित रह जाता है और जन्म-जन्मान्तर में भी दुःख व पीड़ाओं का भोग करता है।
संसार के प्राचीन इतिहास पर दृष्टि डालते हैं तो महाभारत युद्ध तक के समय को हम वैदिक काल कह सकते हैं। यह 1.96 अरब वर्ष का युग रहा है। इस युग में देश व संसार में कोई मिथ्या या अविद्यायुक्त मत नहीं था। इस अवधि में सर्वत्र ऋषि परम्परा प्रचलित थी। देश का कोई ऋषि जिस बात को कहता था उसको सभी राजा व शासक स्वीकार करते थे। यह देश में सर्वमान्य मर्यादा थी। वेद विरुद्ध कार्य करने वाले दण्डित होते थे। कृत्रिम अहिंसा का कोई महत्व नहीं था। दुष्टता के शमन व दमन के लिये राज-वर्ग दुष्टों को कठोर दण्ड देते थे। सबको वेद व वैदिक साहित्य के अध्ययन करने का अवसर मिलता था। विद्या काल 25 वर्ष का होता था जिसके बाद उनके गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार उनका वर्ण निर्धारित किया जाता था। यह वर्तमान युग की तुलना में स्वर्णिम समय था। सभी लोग सन्ध्या व हवन करते थे। माता-पिता का आदर करने के नियम व सिद्धान्त वैदिक धर्म की देन हैं। राम चन्द्र जी ने स्वयं अपने माता-पिता की आज्ञा पालन कर विश्व में एक आदर्श उपस्थित किया है। कृष्ण जी का जीवन एवं उनकी शिक्षायें भी देश व समाज में न्याय एवं सत्य को स्थापित करने का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। ऐसा स्वर्णिम समय किन्हीं कारणों से विकृतियों से ग्रस्त होने लगा जिसका परिणाम महाभारत का युद्ध हुआ।
महाभारत युद्ध के बाद देश व समाज निरन्तर पतन व अज्ञान के मार्ग पर अग्रसर हुआ। इसी का परिणाम नाना प्रकार के मिथ्या, अविद्या, अन्धविश्वास, विकृतियों से युक्त मत-मतान्तर एवं सम्प्रदाय आदि हैं। आज देश में वेद मत को छोड़कर जितने भी मत प्रचलित हैं वह सब महाभारत काल के बाद उत्पन्न हुए हैं। वेद मत से इतर कोई मत यह दावा नहीं कर सकता व उसे सिद्ध नहीं कर सकता कि उनका मत शत-प्रतिशत सत्य पर आधारित है। ऋषि दयानन्द ने सभी मतों की मान्यताओं वा सिद्धान्तों का अध्ययन किया था। उन्होंने सभी मतों में विद्यमान अविद्या व मिथ्या ज्ञान के दर्शन अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में कराये हैं। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ केवल मत-मतान्तरों की अविद्या से ही परिचित नहीं कराता, यह तो देश-देशान्तर के लोगों को सत्य मार्ग को ग्रहण करने के लिये मार्गदर्शन करता है। सत्यार्थप्रकाश के पूर्वार्द्ध के दस समुल्लासों में वेद निहित सत्य व ज्ञानयुक्त मनुष्य जीवन के लिये आवश्यक एवं उपयोगी सभी मान्यताओं का प्रकाश किया गया है। मनुष्य के जानने योग्य स्वाभाविक प्रश्नों का उत्तर भी सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में उपलब्ध होते हैं। यह संसार कब, किसने, क्यों व किसके लिये बनाया? ईश्वर अनादि है या सादि है, निराकार है या साकार, अल्पज्ञ है या सर्वज्ञ है, एकदेशी है अथवा सर्वव्यापक है, ससीम है या असीम है, ईश्वर के सत्यस्वरूप एवं गुण, कर्म व स्वभाव कैसे हैं, इन सभी प्रश्नों का समाधान ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के पूर्वार्द्ध के समुल्लासों में किया है। ईश्वर को मनुष्य कैसे प्राप्त कर सकता है, ईश्वर की उपासना के लाभ क्या हैं और न करने से क्या हानियां होती हैं, इनका विस्तार से समाधान भी ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में प्रस्तुत किया है।
इसी प्रकार से जीवात्मा के सत्यस्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभाव के विषय में भी ऋषि दयानन्द ने विस्तार से समझाया है। महाभारत के बाद तथा ऋषि दयानन्द के समय तक और उसके बाद भी सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ जैसा ग्रन्थ पूरे विश्व में नहीं लिखा गया। इसी कारण से ऋषि दयानन्द विश्व के महापुरुष सिद्ध होते हैं। वह पूरे विश्व के द्वारा आदरणीय एवं अनुकरणीय महनीय पुरुष हैं। हमारा व हमारे देश के लोगों का सौभाग्य है कि उनमें से कुछ को आर्यसमाज व ऋषि दयानन्द के साहित्य से जुड़ने का अवसर प्राप्त हुआ और वह शुभ व पुण्यकर्मों को करते हुए अपने जीवन के लक्ष्य ईश्वर साक्षात्कार और मोक्ष की ओर बढ़ रहे हैं। मनुष्य का अपना हित इसी में है कि वह मिथ्या व अविद्या युक्त मतों, विचारों व मान्यताओं का त्याग कर सत्य वेदमत को अपनायें व उनका प्रचार करे। ऐसा करने से उनका अपना कल्याण तो होगा ही संसार का भी उपकार होगा। आर्यसमाज का उद्देश्य भी संसार का उपकार करना ही है। धन्य हैं वे लोग, जो अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट नहीं रहते अपितु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझते हैं। ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम व नगण्य है। इनकी संख्या में वृद्धि करने और स्वार्थी व दुष्ट प्रकृति के लोगों की संख्या कम करने व समाप्त करने के प्रयत्न होने चाहियें। तभी हमारे देश में रामराज्य स्थापित हो सकता है। रामराज्य वैदिक राज्य का पर्याय है। इसी राज्य का स्वप्न ऋषि दयानन्द ने देखा था। इसी के लिये उन्होंने सत्यार्थप्रकाश सहित वेदभाष्य आदि की रचना का कार्य किया था। उनका स्वप्न अधूरा है। उनके सभी शिष्यों का कर्तव्य हैं कि वह उनके स्वप्न को साकार करें। अपनी पूरी शक्ति से वेदों का प्रचार और अविद्या व असत्य का खण्डन करें। तभी हमारी यह पृथिवी स्वर्ग धाम बन सकती है।
ऋषि दयानन्द का राजकोट व मोरवी के मध्य टंकारा ग्राम व कस्बे में 12 फरवरी, 1825 को जन्म होना इतिहास की प्रमुख घटना है। ऋषि दयानन्द संसार के महानतम पुरुष हैं। वह सच्चे देवता हैं, ऋषि हैं, ईश्वर भक्त हैं, देशभक्त एवं समाज को अविद्या से मुक्त कराने के लिये अपना बलिदान देने वाले अद्वितीय महापुरुष हैं। इसी के साथ हम अपनी लेखनी को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य