छोड़ देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिए
पूजनीय प्रभो हमारे…… अध्याय 2
प्रार्थना की अगली पंक्ति-‘छोड़ देवें छल-कपट को मानसिक बल दीजिए’ है। यह पंक्ति भी बड़ी सारगर्भित है। इसमें भी भक्त अपने शुद्घ, पवित्र अंतर्मन से पुकार रहा है कि मेरे हृदय में कोई कपट कालुष्य ना हो, कोई मलीनता न हो । यह पंक्ति पहली वाली पंक्ति अर्थात ‘पूजनीय प्रभो! हमारे भाव उज्ज्वल कीजिए’ की पूरक है, और उसकी फलश्रुति भी कही जा सकती है। पूरक तो इसलिए कह सकते हैं कि भावों की उज्ज्वलता तभी मानी जा सकती है जब हमारा हृदय निष्कपट और निश्छल हो, और फलश्रुति इसलिए कही जा सकती है कि भावों की उज्ज्वलता से ही हृदय निष्कपट और निश्छल बनाया जा सकता है।
इस पंक्ति में एक विशेष बात कह दी गयी है कि हमें हे प्रभो! आप मानसिक बल दीजिए। ये मानसिक बल ऐसे ही नही मिलता, इसके लिए एक गंभीर और ठोस साधना करनी पड़ती है, बहुत कुछ संभलकर चलना पड़ता है, और मन के अंधकार को मिटाने के लिए अंतर्मुखी होना पड़ता है। मन को अंधकार का उपासक न बनाकर ्रप्रकाश का पुजारी या उपासक बनाना पड़ता है। मन अंधकार से निकलकर ज्ञान के प्रकाश में जितना ही अधिक गोते लगाने लगता है, पता चलता है कि उतना ही हमारी सोच में परिवर्तन आता जाता है। परिवर्तन भी ऐसा कि आप स्वयं कह उठेंगे-
सोच बदलो तो सितारे बदल जाएंगे।
नजर बदलो तो नजारे बदल जाएंगे।
कश्तियां बदलने की जरूरत नही,
दिशा बदलो तो किनारे बदल जाएंगे।
वास्तव में ही हमारी दृष्टि में सृष्टि समाविष्ट है। इसीलिए कहा गया है कि ‘‘जैसी होगी दृष्टि-वैसी होगी सृष्टि। ’’ और नजरिए का भी बड़ा अद्भुत मेल है।
जब परमेश्वर के गुण गाने की हमारी प्रवृत्ति हमारी प्रकृति के साथ हृदय से तारतम्य स्थापित कर लेती है और प्रभु के नाम जाप में आनंदानुभूति लेने लगती है, तब मन की दिशा में सकारात्मक परिवर्तन आ जाता है, तब हमारा मन संसार की ओर नही भागता, अपितु वह संसार की ओर से परमेश्वर की ओर गति करने लगता है। ऐसी अवस्था हमारे जीवन के उत्थान की प्रतीक होती है। ऐसी अवस्था में हमारा मन ‘जब संसार वाले’ की ओर भागने लगता है और उसी के गीतों में आनंद लेने लगता है, तब पता चलता है-
परमेश्वर के गुण गाने से
खुशियों की दौलत मिलती है।
मन से छल-कपट मिटाने से
खुशियों की दौलत मिलती है।।
जब जिह्वा पर परमेश्वर की गुणों की चर्चा होने लगे और रसना उसी के मधुर गीत गाने लगे, जब हमारे श्वांसों की सरगम में परमेश्वर के गीत भासने लगें तब समझना चाहिए कि हमारे दुर्भाग्य के दुर्दिन हमसे दूर हो रहे हैं और हमारे सौभाग्य का उदय हो रहा है। हमारे भीतर सर्वांशत: व्यापक स्तर पर परिवत्र्तन हो रहा है। हमारे भीतर और बाहर सर्वत्र क्रांति व्याप रही है। परिवर्तन की टंकार का नाद हो रहा है, पुरातन के स्थान पर सनातन अधुनातन बनकर स्थान ग्रहण कर रहा है, जिसे हमारी आत्मा अनुभव कर रही है। जब आत्मा इस नाद का अनुभव करने लगे – तब यह समझना चाहिए कि मानसिक बल अपना रंग दिखाने लगा है, हमने मन की गति को समझ लिया है और उसे नियंत्रित करने में भी हमने सफलता प्राप्त कर ली है।
क्या कहता है मुंडकोपनिषद का ऋषि
‘मुण्डकोपनिषद’ (खण्ड-1 मंत्र-10) में कहा गया है जब विद्वान उपासक योगी पुरूष प्रकृति का आधार छोडक़र अपने विशुद्घ सत्व आत्मदिव्य स्वरूप से निष्केवल = परमशुद्घ परमात्मा के ही आधार में मृत्यु को उल्लंघन करके अमृत=मोक्षसुख को प्राप्त होता है तब जिस-जिस सूर्यादि लोक में पहुंचने का मन से संकल्प अर्थात इच्छा व्यक्त करता है, और जिन सुख भोगों की अभिलाषा करता है, उस-उस लोक और उन सब कामनाओं को प्राप्त होता है। इसलिए योग संबंधी सिद्घियों के चाहने वाले जिज्ञासु पुरूष को उचित है कि ब्रह्मज्ञानी महात्मा की सेवा-सुश्रषा सत्कार अवश्य करे।
यह चित्रण किसी मानसिक बल के धनी महापुरूष का ही है। कितनी दिव्य और महान छटा है – उसके व्यक्तित्व की ? पर उसके लिए भी यह अनिवार्य कर दिया गया है कि ब्रह्मज्ञानी महात्मा की सेवा सुश्रूषा-अवश्य करे। ऐसा निर्देश देने का उपनिषद के ऋषि का एक विशेष मंतव्य है, और वह मंतव्य यह है कि ऐसे महापुरूषों के श्रीचरणों से ही ज्ञानगंगा का अमृतपान किया जाना संभव है। महात्माओं के श्रीचरणों में ध्यान रहने से व्यक्ति सदा ही अहंकार शून्य रहता है। इसी अहंकार शून्य हृदय में ही भक्ति का सागर अठखेलियां करता है। इन अठखेलियों का आनंद जो व्यक्ति लेना आरंभ कर देता है वह उनका रसिक बन जाता है। उसके मन से छल-कपट अपने आप मिटने लगते हैं। वह तो अपने मन का धोबी अपने आप बन जाता है। उसे किसी अन्य व्यक्ति का आश्रय अपने मन की स्वच्छता के लिए लेना नही पड़ता। उसे अपना परिमार्जित स्वरूप स्वयं ही दिखाई देने लगता है, और वह उस परिमार्जित स्वरूप को चिरस्थायी बनाने के लिए साधना में लीन हो जाता है। इसी अवस्था के आनंद की चर्चा करते हुए वेदांत स्पष्ट करता है:-
भिद्यंते हृदय ग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्व संशया:।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे पराह्यवरे।।
मु. 2 खण्ड 2 मं. 18 (स.प्र. समु. 9 पृष्ठ 371)
अर्थात ‘जब इस जीव के हृदय की अविद्या अंधकार रूपी गांठ कट जाती है, तब सब संशय छिन्न होते हैं और दुष्ट कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं। तभी उस परमात्मा के दर्शन होते हैं, जो कि हमारे आत्मा के भीतर और बाहर सब ओर व्याप रहा है, उसमें निवास करता है, और तभी जीव मुक्त होकर परमेश्वर के आधार में मुक्ति के आनंद को भोगता है।’
हमारा मन कितना शक्तिशाली है और उसकी क्या-क्या विशेषाएं हैं ? – इस पर हमारे ऋषियों का स्पष्ट और गहन चिंतन सृष्टि प्रारंभ से ही रहा है।
वेद ने मन की विशेषताओं का बड़ा सुंदर चित्रण किया है, और उसकी विशेषताओं के दृष्टिगत ईश्वर से प्रार्थना की है कि ऐसी -ऐसी विलक्षण विशेषताओं से युक्त मेरा मन शिवसंकल्प वाला अर्थात शुभविचारों वाला हो। यज्ञ पर शांति प्रकरण के जिन मंत्रों को हम बोलते हैं, उनमें इस मन की विलक्षण विशेषताओं का कुछ मंत्र उल्लेख करते हैं। जिन्हें समझने से मन की शक्तियों का और मानसिक बल प्राप्त करने का उपाय समझ में आ सकता है। इन्हें ‘रात्रिशयन’ के मंत्र भी कहा जाता है।
पहला मंत्र है :-
‘यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं
तदुसुप्तस्य तथैवैति।
दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं
तन्मे मन: शिव संकल्पमस्तु।। ’ (यजु. 34.1)
अर्थ-‘जो दिव्य मन जागते हुए मनुष्य का दूर तक जाता है और मनुष्य का जो मन सोते हुए उसी प्रकार दूर तक जाता है। दूर तक जाने वाला प्रकाशों का प्रकाश वह मेरा मन शुभ विचारों वाला हो।’
इस मंत्र में ऋषि ने मन की विशेषता बतायी है कि वह ‘प्रकाशों का प्रकाश है’- ज्योतियों में एक ज्योति है। अभिप्राय है कि मन कभी अंधकार युक्त नही होता। उसे अंधकार युक्त बनाती हैं – हमारी अपनी कामनाएं और इंद्रियजन्य विकार। मन को इंद्रियों का स्वामी इसलिए कहा और माना गया है कि हर एक इंद्रिय अपने आप में एक ज्योति स्तंभ है – जो हमें ज्ञान कराती है, या कर्म करती है, ज्ञान और कर्म करने से वह प्रकाश स्तंभ है, और जो मन उनके भी ऊपर स्वामी बनकर विराजमान रहता है वह तो ‘प्रकाशों का भी प्रकाशक है।’ इंद्रियों किसी क्षेत्र विशेष या ज्ञान विशेष तक हमें ले जाती हैं या उसका बोध कराती हैं जबकि मन हमको सर्वत्र लिए फिरता है , यही कारण है कि वह सभी इंद्रियों का स्वामी है ।
तब इंद्रियां भी साधु हो जाती हैं
कोई भी इंद्रिय पूर्ण सुघड़ता से जब तक हमें कोई ज्ञान नही करा सकती और ना ही कोई कर्म कर सकती है जब तक उसमें मनोयोग ना आ जाए। मनोयोग के आते ही इंद्रियां भी ‘साधु’ हो जाती हैं। उनकी साधना सकारात्मक हो उठती है। इसीलिए मन को इंद्रियों का स्वामी कहा जाता है। इंद्रियों के स्वामी ऐसे मन की एक अन्य विशेषता यह होती है कि वह जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं में दूर-दूर तक भ्रमण करता है, अथवा दूर-दूर तक जाता है।
इस दूर-दूर तक जाने वाले मन का योग यदि अपनी पूर्ण शक्तियों के साथ हमारी नेत्रशक्ति के साथ हो जाए तो वह पत्थर के बीच से भी निकल जाएगी, पहाड़ों को तोड़ देगी, सागर की गहराई नाप लेगी, आकाश की ऊंचाई नाप लेगी इत्यादि-संसार के असंभव कार्यों को कर डालेगी। ‘नजर पत्थर को भी तोड़ देती है’ लोगों का ऐसा कहने का अभिप्राय यही होता है कि पूर्ण मनोयोग से जब हम किसी कार्य को करने का संकल्प लेते हैं तो हमारी संकल्प शक्ति उस असंभव कार्य को करके संभव कर दिखाती है, और हम उस पर पार पा लेते हैं। हमारी हर इंद्रिय को अपनी ज्योति से ज्योतित करने की शक्ति मन के पास है, यही कारण है कि ‘गोपथ ब्राह्मण’ मन को ब्रह्म कहा गया है। ‘मनोब्रह्म’ (गो.ब्रा.1-2-11)
अब आते हैं दूसरे मंत्र पर।
यह मंत्र है-
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो
यज्ञे कृणवन्ति विदथेषु धीरा:।
यदपूर्वं यक्षमन्त: प्रजानां,
तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु।
(यजु. 34-2)
अर्थ: ‘जिस मन से कर्मठ तथा धीर विद्वान लोग यज्ञ तथा शास्त्रार्थों में कर्मों को करते हैं, जो मन अपूर्व तथा पूज्य है और प्राणिमात्र के भीतर है, वह मेरा मन शिवसंकल्प अर्थात शुभ विचारों वाला होवे।’
जितनी भर भी प्रेरणाएं हैं उनका एकमात्र स्रोत मन है, इसलिए इस मन को हमारे ऋषियों ने हमारी प्रेरणाओं का संचालक तथा नियामक-नियंता स्वीकार किया है।
इस मंत्र में मन की विशेषओं का उल्लेख करते हुए जहां उसे प्रेरणाओं का संचालक कहा गया है वहीं ‘यक्षमन्त:’ कहकर उसकी एक अन्य महान विशेषता की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया गया है। मन की यह दूसरी विशेषता है उसका यजनीय, पूजनीय अथवा पवित्र होना।
यही कारण है कि हमारा यजन भजन और प्रत्येक पवित्र कार्य तब तक पूर्ण नही होता जब तक उसके साथ मन का योग नही होता, अथवा मन की पवित्रता का संबंध स्थापित नही होता। इसलिए मन की पवित्रता को ईश्वर के यजन-भजन के लिए बहुत ही आवश्यक माना गया है।
संसार के साधारण लोगों के विषय में यह सत्य है कि उन्हें लोकैष्णा, वित्तैष्णा और पुत्रैष्णा घेरे रखती हैं। इन से वह बाहर नही जा सकता। विद्वान लोग इन ऐषणाओं के घेरे को तोडऩे के लिए तैयारी करते हैं। इसलिए उन्हें ये ऐषणाएं अपने मार्ग में बाधा दिखाई देती हैं। क्योंकि उन्हें दूर जाना होता है – प्यारे प्रभु के पास। उनकी जीवन साधना का लक्ष्य बड़ा होता है, इसलिए उन्हें संसार की ऐषणाएं छोटी-छोटी कंटीली झाडिय़ां दिखाई देती हैं, जिन्हें पीछे छोडक़र आगे बढऩा उनका उद्देश्य होता है।
पर संसार के लोगों में और विद्वान लोगों में एक बात सांझा होती है कि संसार के साधारण लोग भी जिस सुख-समृद्घि की प्राप्ति करना चाहते हैं उनके लिए वह भी यज्ञ – यागादि और ज्ञान चर्चाएं करते हैं और विद्वान लोग भी अपने स्तर पर ऐसी ही कार्य प्रणाली को अपनाते हैं। इन सबका उद्देश्य होता है-अपने-अपने उद्देश्यों की प्राप्ति, अपनी-अपनी आकांक्षाओं की प्राप्ति। जिनकी पूर्ति के लिए प्रेरणा देने वाला मन है। यह मन ही हमें श्रेय मार्ग का ‘पथिक’ बनाता है और यही हमें प्रेयमार्ग का पथिक बनाता है। हम जो कुछ हैं या जो कुछ बनना चाहते हैं-वह हमारे मन पर ही निर्भर करता है। इसलिए मन को यजुर्वेद (11-34) में दिव्य सुखवर्षक कहा गया है।
मन परमात्मा का अपूर्व शरीर है
ऐतरेय ब्राह्मण में इस मन को परमात्मा का अपूर्व शरीर कहा गया है। कहने का अभिप्राय है कि मन अपूर्व है-अद्वितीय है। मन एक अपूर्व ज्योति है, परम ज्योति है, जिसके आलोक में हम अपने जीवन का निर्माण करते हैं। इस ज्योति को समझ लेना और इसकी ऊर्जा का सकारात्मकता के साथ प्रयोग करना ही मानसिक बल प्राप्ति की साधना है। जिसके मन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता अनुभव होने लगता है, और व्यक्ति मानसिक बल का पुजारी बनने लगता है। उसकी झोली में मानसिक बल की पूंजी आने लगती है।
तीसरा मंत्र है :-
यत प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च
यज्ज्योतिरंतरमृतं प्रजासु।
यस्मान्न ऋते किं चन कर्म क्रियते
तन्मे मन: शिवसंकल्प मस्तु।।
(यजु. 34-3)
अर्थ-जो मन ज्ञान, स्मृति और धारणा शक्ति का साधन है, जो प्राणिमात्र के भीतर अमर ज्योति है, जिसके बिना कोई काम नही किया जा सकता है, वह मेरा मन शिवसंकल्प-शुभ संकल्प अथवा शुभ विचारों वाला हो।
यहां पर वेद का ऋषि मन को ‘प्रज्ञान’ कहकर सुशोभित कर रहा है। ‘प्रज्ञान’ का अभिप्राय है कि मन ज्ञानरूप है। दूसरी विशेषता मंत्र का ऋषि बताता है कि यह मन ज्ञात वस्तुओं की स्मृति रखता है। मन एक संगणक (कंप्यूटर) है, एक विशाल पुस्तकालय है, जिसमें कितने ही विषय और ज्ञान-विज्ञान की बातें सुरक्षित रखी रहती हैं। मनुष्य किसी व्यक्ति को 20 वर्ष पश्चात मिलता है तो भी उसे पहचान लेता है और न केवल पहचान लेता है अपितु उसके साथ हुए वार्तालाप और वार्तालाप के समय का मौसम वह कक्ष, या जंगल का मनोरम स्थान आदि भी उसे स्मरण आने लगते हैं जहां उन दोनों की भेंट हुई थी। इसी मन के कोषागार में पूर्वानुभूत बहुत से तथ्य संग्रहीत रहते हैं। जब आप चाहें उन्हें पढ़ सकते हैं, खोल सकते हैं और देख सकते हैं। कहा जाता है कि मन में अपने मन में तो कोई मूर्ख नही होता, यह सच है। क्योंकि हर व्यक्ति अपना काम चलाऊ ज्ञान अपने मन में संग्रहीत रखता है, इसलिए अपने मन के आलोक से अर्थात अंत:प्रेरणा से वह कार्य करता रहता है। सांसारिक पढ़ाई-लिखाई से हम किसी व्यक्ति के ज्ञान के स्तर का अनुमान लगाते हैं, पर यह नही देखते कि उसने अपने भीतर कितना ज्ञान संचित किया हुआ है। कितने ही लोगों ने अशिक्षित होकर राज्य संभाले हैं, तो कितने ही लोग समाज में अशिक्षित होकर भी बड़ों को रास्ता दिखाई हैं। ऐसे लोगों का मानसिक बल ही होता है, जो दूसरे लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बन जाता है।
ऐसे मन के विषय में ही वेद का ऋषि कह रहा है कि उसके बिना कोई कार्य नही किया जा सकता। किसी भी कार्य के साथ जब तक मन का योग नही हो जाता है, तब तक वह सफल नही होता। आपके मन में कोई गंभीर चिंतन चल रहा हो, पर आंखें खुली हों, तो भी आंखें देखने का काम नही कर सकतीं, क्योंकि उनके साथ मन की शक्ति का योग नही था। ऐसा देखा भी गया है कि कोई व्यक्ति आपके पास से निकल जाता है, जब उसी के विषय में आपसे कोई अन्य व्यक्ति पूछता है कि क्या आपने अमुक व्यक्ति को देखा था? आप तब कहते हैं कि नही, उसे मैंने नही देखा है। ऐसा ही कानों के विषय में या अन्य ज्ञानेन्द्रियों के विषय में समझना चाहिए। बहुत अच्छा प्रवचन चल रहा है, परंतु यदि हमारा मन उसके साथ योग नही कर रहा है तो सारा प्रवचन हमारे ऊपर से निकल जाता है। अत: कार्य के साथ मनोयोग अत्यावश्यक है। मनोयोग से किया गया कार्य, संवाद, चर्चा, अध्ययन आदि मन के कोषागार में सुरक्षित हो जाते हैं, जिन्हें हम भुला नही पाते हैं। ऐसे मानसिक बल की ही इच्छा हमें होनी चाहिए।
ओ३म्! येनेदम् भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतम मृतेन सर्वम्। येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु।।
(यजु. 34-4)
अर्थ-‘जिस अमर मन ने ये तीनों काल भूत, वर्तमान और भविष्यत अपने वश में किये हुए हैं, जिसके द्वारा सात होताओं (यज्ञकर्त्ताओं) वाला यज्ञ किया जाता है, वह मेरा मन शुभ विचारों वाला होवे।’
इस मन को ऋषियों ने ‘अमृतेन’ अर्थात नाश रहित-अमर माना है। इसी नाशरहित मन से भूत, भविष्य और वर्तमान काल का सब व्यवहार हमारे द्वारा निष्पन्न होता है, या यह सब व्यवहार इसी के द्वारा जाना जाता है। कहने का अभिप्राय है कि भूत, वर्तमान और भविष्य ये तीनों काल मन के ग्रहण क्षेत्र हैं। मन के द्वारा ही तीनों कालों का ज्ञान होता है। इसी मन की गति को समझकर तत्वदर्शी लोग त्रिकालदर्शी बन जाते हैं।
हमारा मन और सप्तहोता ऋषि
हमारे शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियां बुद्घि और आत्मा ये सप्तहोता-सात यज्ञकर्त्ता हैं। इन्हीं के संयोग से मानव अपना सारा संसार व्यवहार चलाता है। इसीलिए ‘वृहदारण्यक उपनिषद’ के ऋषि ने मन को यज्ञ का ब्रह्मा कहा है। मन हमारी इंद्रियों का स्वामी है। एक-एक इंद्रिय को विजय करना बड़ा कठिन है और जो इनका भी स्वामी हो-उसके तो कहने ही क्या हैं? इसी लिए मन को सम्राट भी कहा गया है। इसी मन में सप्तहोता यज्ञ कर रहे हैं, इसी मन के द्वारा सात होताओं से संपन्न किया जाने वाला यज्ञ अनुष्ठित किया जाता है। ये सप्तहोता सात साधक हैं। जिनके द्वारा शुभकर्मरूप यज्ञ संपन्न किया जाता है। इस यज्ञ का ब्रह्मा मन है इसलिए उसके लिए कहा गया है कि वह मेरा मन शिवसंकल्प वाला होवे।
ओ३म्! यस्मिन्नृच: साम यजूं षियस्मिन प्रतिष्ठिता रथनाभाविवारा:। यस्मिंश्चित्त्ं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु।।
(यजु. 34-5)
‘जिस मन में जैसे रथ की नाभि के धुरे में अरे लगे होते हैं ऐसे जिसमें ऋक, साम, यजु त्रीविद्या रूप ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद और अथर्ववेद ये चार वेद प्रतिष्ठित हैं। जिस मन में प्राणियों की सब चिंतन या स्मरण शक्ति ओतप्रोत है, अर्थात संयुक्त है वह मेरा मन शुभ संकल्प-विकल्प शुभचिंतकों वाला होवे।’
इस मंत्र में मन को ज्ञान का अधिष्ठाता माना गया है। उसी के योग से व्यक्ति वेद की त्रयी विद्या अर्थात ज्ञान, कर्म और उपासना को हृदयंगम करता है। उसमें निष्णात होता है, स्नातक बनता है। इसी त्रयी विद्या को ओढक़र व्यक्ति अपने नंगेपन को भी ढांपता है। जिसके पास यह त्रयी विद्या नही है, वह व्यक्ति ही वास्तव में नंगा -नग्न का जाता है। इस प्रकार मन सारे वैदिक ज्ञान का आश्रय है, दूसरे सारी चेतनाओं का आश्रय है। सारे विश्व के समस्त ज्ञान का आश्रय यह मन है। ज्ञान के हर क्षेत्र में मन की पूर्णगति है। मन के संयोग से ही व्यक्ति की चेतना उदबुद्घ होती है, जिससे मानव का सर्वांगीण विकास होता है, उसके कौशल का और प्रतिभा का विकास होता है। ‘शतपथ-ब्राह्मण’ में इसीलिए इस मन को अंशु या किरण कहा गया है, क्योंकि यह ज्योति प्रदान करता है।
मनो हवा अंशु (शत 11-5-9-2) इससे अगला वेदमंत्र घोषित करता है कि मन ही मानव का नियंत्रक है। मंत्र है :-
ओ३म् सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान् नेनीयते अभीशुभिर्वाजिन इव। हत्प्रतिष्ठम् यदजिरं जविष्ठं तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु।।
(यजु. 34-6)
वेदमंत्र कहता है कि-‘जो मन को चलाता है, जैसे उत्तम सारथि लगाम से घोड़ों को चलाता है, उसी प्रकार जो मनुष्यों को नियंत्रित करता है-जो हृदय में रहता है, अत्यंत फुर्तीला है और अतिवेगशाली है, वह मेरा मन शुभ विचारों वाला होवे।’
हमारा मन है एक योग्य सारथी
इस मंत्र में स्पष्ट किया गया है कि यह जो हमारा मन है इसकी विशेषता है कि यह एक योग्य सारथि है, यह हृदय में प्रतिष्ठित है, यह अत्यंत फुर्तीला है और अत्यंत वेगवान (तीव्रतम गति वाला) है।
कठोपनिषद में आत्मा को रथि, शरीर को रथ, बुद्घि को सारथि तथा मन को लगाम बताया गया है। वहां इसे ‘मन: प्रग्रहमेव च’ कहकर मन की प्रशस्ति की गयी है। यह अजिरम्-अजर है, अर्थात वृद्घावस्था से रहित है।
अथर्ववेद (14-1-10) में मन को एक रथ कहा गया है :-
मनोअस्या अन आसीदद्यौरा सीदुतच्छदि:।
शुक्रावन आवाहावास्तां यदयात् सूर्यापतिम्।।
अर्थात जब सूर्या अपने पति गृह को चली उस समय उसका मन ही रथ बना और द्युलोक छत (आवरण) बना। उसमें दो पुष्ट बैल जुते थे।
वेद में अन्यत्र विभिन्न स्थानों पर मानसिक बल-मनोबल प्राप्ति की साधना अथवा उसकी प्राप्ति से होने वाले लाभों का उल्लेख किया गया है। जिनके अनुशीलन से स्पष्ट होता है कि मन का कितना महत्व है ?
वास्तव में जब हम व्यक्ति को मानसिक बल की प्रार्थना में लीन पाते हैं या स्वयं ईश्वर से अपने लिए मानसिक बल मांगते हैं तो इसका अभिप्राय होता है दृढ़ इच्छाशक्ति की प्रार्थना करना या विचारशक्ति को प्रबल करने की ईश्वर से प्रार्थना करना। इनकी इसी अपरिमित शक्ति की प्राप्ति से मनुष्य के भीतर अजेयता, आत्मनिर्भरता, निर्भयता, स्वाभिमानी होने का भाव आदि का जन्म होता है। जिस किसी के पास विचारों की या इच्छाशक्ति की यह अपरिमित पूंजी होती है वह संसार में सर्वाधिक संपन्न व्यक्ति होता है, यह विचारशक्ति या इच्छाशक्ति ही व्यक्ति के भीतर आत्मबल का संचार करती है। क्योंकि विचारों की शक्ति व्यक्ति को ईश्वरभक्त बनाती है, और ईश्वर भक्ति से आत्मबल की प्राप्ति होती है। जिससे व्यक्ति का ज्ञान या विवेक बढ़ता है।
इच्छाशक्ति से व्यक्ति सब कुछ कर सकता है। इच्छाशक्ति से प्राणों को वश में करके भीष्म पितामह मृत्युशैय्या पर लेटे रहे और उन्होंने अपने प्राणों का त्याग तभी किया जब सूर्य अपनी उत्तरायण गति में आ गया। इच्छाशक्ति से ही व्यक्ति के भीतर उत्साह उत्पन्न होता है, जो व्यक्ति से बड़े-बड़े कार्य करा देता है। मन और बुद्घि के समन्वय से परमात्मा की प्राप्ति की जा सकती है। बुद्घि से व्यक्ति किसी निर्णय पर पहुंचता है। जबकि मन का काम है इंद्रियों द्वारा प्राप्त किये गये ज्ञान को बुद्घि तक पहुंचाया जाए। इन दोनों के उत्तम समन्वय से सारा कार्य सुंदर रीति से संपन्न होता है। व्यक्ति को अभीष्ट की प्राप्ति होती है और अनीष्ट का विनाश हो जाता है। असंभव भी संभव हो जाता है। शत्रु की चालों को व्यक्ति समझ लेता है और नि:शस्त्र होकर भी अपनी रक्षा करने में सफल हो जाता है।
मन जड़ है या चेतन है
जिस प्रकार शरीर के अंग यथा हाथ पैर, नाक, कान इत्यादि को मेरा हाथ, मेरा पैर कहने वाली कोई सत्ता है, उसी प्रकार मेरा मन तो यह कह रहा है, या मेरे मन में यह विचार आ रहा है ऐसा कहने वाली सत्ता भी कोई है। निस्संदेह वह सत्ता ‘आत्मा’ है। वही हाथ-पैर इत्यादि को मेरा कहकर पुकारता है और वही मन को मेरा मन कहकर पुकारता है। इससे पता चलता है कि मन के पीछे भी कोई है जो उसका भी स्वामी है। इस मन की स्थिति उस आत्मा के समक्ष बहुत ही छोटी है।
मन को चाहे जो कुछ कहा गया हो, पर वह जड़ जगत के ज्ञान विज्ञान के संकल्प-विकल्प के मायाजाल में ही हमें उलझाये रखता है। संकल्प-विकल्प के मायाजाल से निकालकर उसे शांत करने की स्थिति को हम जैसे-जैसे प्राप्त करने लगते हैं, वैसे-वैसे ही हमें चेतन से परमचेतन की ओर बढऩे की स्थिति का अनुभव होने लगता है। मन जितना शांत होता जाता है, उतना ही हमें आत्मानंद अनुभव होने लगता है। सत्यव्रत सिद्घांतालंकार लिखते हैं-विचारों की प्रकृति ही यह है कि वे आते हैं, चले जाते हैं, टिकते नही, टिकते भी हैं तो फिर कुछ देर टिककर फिर चले जाते हैं, उनके स्थान पर दूसरे विचार आ जाते हैं।
जो आते-जाते इन विचारों को देखता है, इन्हें अनुभव करता है, वह स्वयं मन तो नही है, क्योंकि मन ही तो ये विचार है। वह जो मन से अतिरिक्त है, मन को भी देखता है अनुभव करता है, वही आत्मा है।
यहीं जाग्रत साधक को अत्यानुभूति होती है, स्वानुभूति होती है, इसे ही आत्मदर्शन कहा जाता है। इस अत्यानुभूति के क्षणों में मन बहुत तुच्छ सा दीखने लगता है। वह जड़ जगत में रमाने वाला ही जान पड़ता है। इसलिए मानसिक बल आत्मिक बल की अपेक्षा छोटा है। मानसिक बल अध्यात्म और ब्रह्मविद्या के क्षेत्र में जाते ही आभाहीन हो जाता है। वहां आत्मबल ही साथ देता है। परंतु इसका अभिप्राय यह नही कि मानसिक बल का कोई मूल्य ही नही है। यदि मानसिक बल नही होगा तो व्यक्ति सांसारिक मायाजाल में ही उलझ कर रह जाएगा। मानसिक बल का ही कार्य है कि व्यक्ति इस ज्ञान-विज्ञान की सार्थकता और निरर्थकता का बोध कर पाता है और अपनी विवेकशीलता का विस्तार कर पाता है।
‘‘सांख्यकार के मत में मन चेतन नही है उसकी दृष्टि में आत्मा चेतन है। मन प्रकृति के विकास का परिणाम है। मन करण है, एक साधन है, जिस का उपयोग आत्मा करता है। ‘करण’ उपकरण या साधन होने के कारण मन भौतिक है, इसलिए जड़ है।
उपनिषद में कहा गया है-‘अन्नमय ही सोम्य मन:’-हे सोम्य! मन अन्न से बना है, अर्थात मन भौतिक है। इसके उपरांत भी यह मन ही है जो ‘हिरण्यगर्भ: समवत्र्तताग्रे’ की प्रकृति की उस साम्यावस्था से लेकर विषमावस्था तक का हमारा यात्रा मार्ग निश्चित करता है या उससे परिचित कराता है। जब कुछ भी नही था तब प्रकृति अपनी साम्यावस्था में थी। उसके विषमावस्था में आते ही इस सृष्टि की रचना आरंभ हो गयी। यह सब कैसे हुआ? इसके पीछे कितना बड़ा रहस्य था और कैसे यह चल रहा है, इसके पीछे कौन सा विज्ञान है? कब तक यह चलेगा-इसके पीछे कौन सा लय है, ये सारी बातें हमारे अंत:करण में हैं अर्थात जब हम मन के ज्ञान क्षेत्र पर चिंतन करते हैं तो इस भजन में ‘मानसिक बल दीजिए’ के शब्दों के यथार्थ का बोध हमें हो जाता है।
वेद के रहस्यों को वेद की भाषा से ही जाना जा सकता है। अन्य भाषाओं के गद्य में या पद्य में जाते ही भाषा का अध:पतन हो जाता है। भाषा की उतनी पवित्रता नही रह पाती, जितनी कि अपेक्षित है। अत: जो लोग मन के विस्तृत लोक की उपेक्षा केवल इसलिए कर देते हैं कि वह तो जड़ है वह ज्योतियों का ज्योति नही है, उनके लिए आवश्यक है कि मन की स्थिति के विषय में वे प्रथमत:वेद उपनिषद ब्राह्मण ग्रंथों का अध्ययन करें, और इसके विशाल क्षेत्र का ज्ञान करें। जब यह कार्य संपन्न हो जाएगा तो पता चलेगा कि अब हम आत्मा के आलोक में और लोक में पहुंचने लगे हैं। वह अवस्था आनंद की अवस्था होगी। वहां कोई द्वंद्व नही होगा। मन के क्षेत्र में जितने द्वंद्व और अंतर्द्वंद्व थे वे सभी धीरे-धीरे पीछे छूटते गये और हमारी यात्रा सहज, सरल और सुगम होती गयी। यात्रा की इसी अवस्था की प्राप्ति के लिए ही ‘मानसिक बल दीजिए’ की प्रार्थना इस पंक्ति में की गयी है।
कब और कहां तक कहा जाए- छोड़ देवें छल कपट को भजन की इस पंक्ति में हम कह रहे हैं कि ‘छोड़ देवें छल कपट को….।’ इस पर कुछ विद्वानों का तर्क है कि जीवन भर इसी गीत को गाते रहने का कोई औचित्य नही कि छोड़ देवें छल कपट को…।’ यदि 8 वर्ष से लेकर 80 वर्ष तक की अवस्था में निरंतर यही बात दोहराई जा रही है तो समझना चाहिए कि छल कपट छोड़े नही गये हैं, और केवल तोते की भांति यह भजन रट लिया गया है।
‘छोड़ देवें छल कपट को,’…. गाते-गाते पिता की उम्र ढल गयी, दादा संसार से चले गये या दादा और पोता दोनों मिलकर इसी गीत को गा रहे हैं, ना तो दादा ने छल कपट छोड़ा, ना पिता ने छोड़ा तो पोते पर क्या संस्कार पड़ेगा ? कहने का अभिप्राय है कि वह भी इसे तोते की भांति रटता रहेगा, गाता रहेगा, पर इससे सीखेगा कुछ नही।
प्रार्थना आचरण में उतरनी चाहिए
दूसरे जिस गीत को पोता गा रहा है, उसे ही पितामह भी गाये तो यह भी अच्छा नही। लगता है दोनों की कक्षा और पाठ एक ही है, जिसे दोनों एक साथ दोहरा रहे हैं। भजन की इस आलोचना में अंशत: बल है। यह पोते का संकल्प होना चाहिए कि छल कपट छोडऩे हैं, दादा का नही। दादा से तो अपेक्षा की जाती है कि उसने तो छल कपट को बहुत समय पहले ही छोड़ दिया था। इस भजन की ऐसी आलोचना करने का अभिप्राय केवल यह है कि इस भजन को यज्ञ का एक अनिवार्य अंग बनाने से रोका जाए, दूसरे हम केवल एक स्थान पर कदम ताल न करते रह जाएं। जीवन निरंतर प्रवाहमान रहने वाली एक धारा का नाम है, इसलिए हमें भी आगे बढऩा चाहिए। हां, एक पितामह अपने पोते को अंगुली पकडक़र जैसे चलना सिखाता है वैसे ही उसे यह गीत भी गाकर सिखा सकता है, और सिखाना भी चाहिए, उसका भावार्थ बताना चाहिए और यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि इसे व्यावहारिक जीवन में अपनाने से क्या-क्या लाभ मिलने संभावित हैं।
कोई भी भजन, प्रवचन, गीत या मंत्र आदि हम इसीलिए बोलते हैं कि वह कंठस्थ होते-होते हमारे कार्य व्यवहार में उतरकर हमारे साथ इस प्रकार रम जाए कि हम और वह भजन, प्रवचन, गीत या मंत्र इस प्रकार एकाकार हो जाएं कि हमारा अस्तित्व ढूंढऩा या खोजना भी असंभव हो जाए। ऐसी अवस्था में जाकर ही कोई गीत, भजन, प्रवचन या मंत्र आदि हम पर वास्तविक प्रभाव डाल सकते हैं। इसलिए ‘छोड़ देवें छल कपट को’ केवल गाते ही नही रहना है, अपितु उसे अपने व्यावहारिक जीवन में उतारना भी है। यदि ऐसी अवस्था को वास्तव में हम अपना लें तो संसार के बहुत सारे कष्ट, क्लेश और नित्यप्रति के वाद-विवाद समाप्त हो सकते हैं। न्यायालयों में अधिकांश वाद-विवाद हमारे द्वारा अपनायी जाने वाली छल कपट की नीतियों के कारण ही बढ़ते जा रहे हैं। जिन्हें कम करते-करते समाप्त करना हर व्यक्ति का दायित्व है। ऐसा नही हो सकता कि ये वाद-विवाद समाप्त न हों। छल कपट करते-करते यदि हम इन्हें बढ़ा सकते हैं तो छल कपट छोड़ते-छोड़ते हम इन्हें समाप्त भी कर सकते हैं।
जीवन में गतिशील और प्रगतिशील रहे, सदा प्रवाहमान रहें, आगे ही आगे बढ़ते रहें, इसके लिए पुन: वेद के शब्दों में ऐसे मनोबल या मानसिक बल की प्रार्थना करें-यास्ते शिवा स्तन्व: काम भद्रा
याभि: सत्यं भवति यद्वृणीषे।
ताभिष्ट्वमस्मां अभिसंविशस्व
अन्यत्र पापीरय वेशयाधिय:।।
अर्थात-‘‘हे विचारशक्ति (हे कामदेव)! तुम्हारे जो शुभ और कल्याणकारी रूप हैं उनसे तुम उसको वर्ण करती हो, जो सच्चा होता है। तुम उन रूपों से हमारे भीतर प्रविष्ट हो। तुम अपने अशुभ रूप अर्थात दुष्ट बुद्घियों को अन्यत्र रखो।’’
इसमें एक भक्त प्रार्थना कर रहा है कि मेरी विचारशक्ति में जो शुभ और कल्याणकारी तत्व हैं वे मेरे मार्गदर्शक हों। कहने का अभिप्राय यहां पर भी यही है कि भक्त छल कपट रहित व्यवहार और आचरण की कामना परमपिता परमेश्वर से कर रहा है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत