माफ करना नारदजी जमाना बदल गया है

– डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
आज नारद जयंती पर नारदजी का स्मरण करते हुए हमें हिचक हो रही। हो भी क्यों नहीं? हिचक इसलिए कि हमने कलियुग के जाने कितने-कितने किरदारों को नारदजी का प्रतीक मान लिया है।
त्वरित समाचार और संचार सुविधाओं के आदि जनक नारद का पावन स्मरण आज वे सभी लोग कर रहे हैं जो किसी न किसी माध्यम से जुड़े हुए हैं। जिस जमाने में नारदजी थे उसमें आज की तरह न सूचना प्रौद्योगिकी थी, न संचार सुविधाएं और न भौतिक संसाधन या सेवाएं। भौतिक रूप में इनका कोई वजूद नहीं था मगर दिव्य रूप में इससे भी अनन्त गुना त्वरित सूचना स प्रेषण और संकलन का पूरा का पूरा नेटवर्क था
आज लाखों लोग दुनिया में यही काम करते हैं फिर भी कहीं कोई चूक रह जाती है। देश, काल और परिस्थितियों की सीमाएं हैं, आदमी के काम करने की सीमाएं हैं मगर उस जमाने में ये सारे काम अकेले नारद किया करते थे। पल भर में खुद पहुंच कर पल-पल की खबर दोनों पक्षों को देने और लेने का जो काम नारद ने किया वह न और कोई कर सका है, न कर सकेगा।
नारद नाम ही इसलिए है कि वे जहाँ कहीं जाते वहाँ कुछ पल के सिवा रुकते तक नहीं थे। आज के नारद इस मायने में भिन्न हैं। इन्हें जहाँ सुकून मिल जाता है वहीं रुक कर विश्राम भी कर लेते हैं और ज्यादा साधन-सुविधाएं और सेवाएं मिल जाएं तो वहीं के होकर रह भी जाते हैं।
नारदजी जो नहीं कर पाए, अब वे सारे काम हम कर रहे हैं। उन्हें किसी ने नहीं पूछा कि उनका ठौर-ठाम कहां है। कहां रहते हैं और क्या जरूरतें हैं। नारद परंपरा से जुड़े लोगों के प्रति अब हमारे इन्द्र और इन्द्रलोक के कर्त्ता-धर्त्ता और सूत्रधार वे सारे काम करते हैं जो इन्हें पसंद हैं। मकान और प्लाट दिलाने तक का रहमदिल रखते हैं।
नारद ने जिन संघर्षों और सीमित संसाधनों में अपने फर्ज निभाये वे अब कहाँ आड़े आते हैं। अब तो हर मनचाही सुविधा और साधन हमारे लिए कहते ही उपलब्ध है। नारद अपने आप में निरपेक्ष व्यक्तित्व थे। उनमें न कोई ऐषणाएं थीं, न कोई दुराग्रह-पूर्वाग्रह। उनका न किसी से लेना-देना था और न वे किसी का होने में विश्वास रखते थे सिवा ईश्वर के। न असुरों के खेमों के प्रति उनका रुझान था, न देवताओं के खेमे से ज्यादा लगाव।
धर्म, नीति और सत्य के प्रति समर्पित थे वे और यही कारण है कि उनको देवताओं तथा असुरों दोनों पक्षों में समान आदर-स मान प्राप्त था। जो वे कहते वे खरा-खरा और तथ्यों पर आधारित था और उसका न कोई विरोध होता, न किसी में खण्डन करने का साहस था। ऐसा संभव भी नहीं था। क्योंकि नारद का हर शब्द सत्य पर आधारित था और सत्य कभी झुठलाया नहीं जा सकता।
यह सत्य की ही ताकत थी कि नारद किसी भी खेमे में जाकर कुछ भी कह देते, उसे हर पक्ष अक्षरश: सत्य मानकर गंभीर चिंतन करता था। इस सत्य की ही बदौलत नारद कहीं भी और कभी भी जा सकते थे। उनके लिए न लोकों की सीमाएं थीं, न समय की।
यह भी सत्य है कि नारद ने जो कुछ किया वह सृष्टि के कल्याण के लिए ही। आज कई लोग नारद को इस अर्थ में भले ही याद करते हों कि वे इधर की बातें उधर करते थे और इस कारण नारद विद्या शब्द का आविर्भाव हुआ। लेकिन नारद के सामने समाज और सृष्टि का कल्याण ही सर्वोपरि था। इसीलिए वे बिना किसी भय के सत्य का प्रकटीकरण करने का साहस रखा करते थे।
नारद की परंपरा आज कहाँ दिखाई देती है? आज हम नारद की परंपरा में होने का गौरव और गर्व तो करते हैं मगर नारद के व्यक्तित्व से कहां कुछ सीख ले पाए हैं। नारद ने कभी नहीं सिखाया कि अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए किसी न किसी खेमे में घुसपैठ कर जाएं, कुछ न कुछ पाने के लिए ऐसा कुछ कह दें, लिख डालें, दिखा दें जिसका कोई ओर-छोर नहीं हो, सत्य का अता-पता नहीं हो और बाद में खण्डन पर खण्डन आते चले जाएं।
आज हमारी विश्वसनीयता पर संदेह गहरा गया है। आज हम जो कहते हैं, लिखते हैं और दिखाने लगे हैं उस पर कोई आँख मींच कर विश्वास नहीं कर पा रहा है। हालांकि कुछ लोग अब भी हैं जो नारद के व्यक्तित्व का अनुगमन करते हुए सत्य, विश्वास और धर्म पर चल रहे हैं लेकिन मुट्ठी भर लोग ही ऐसे बचे हैं।
आज सबसे बड़ा संकट विश्वसनीयता का है। हम जो कर्म करें, जो बात कहें उसमें सच्चाई हो, किसी वाद-विचार, पंथ और पार्टियों से परे होकर निरपेक्ष बुद्घि से समाज हितों को ध्यान में रखकर सोचें और उन आदर्शों को अपनाएं जिनके बूते अकेले नारद ताजातरीन और प्रामाणिक सूचनाओं के साथ पूरे ब्रह्माण्ड को नाप लिया करते थे और उनका एक-एक शब्द सत्य के रस में परिपक्व होकर निकलता था जो आने वाले समय का दिग्दर्शक हुआ करता था।
आज आत्मचिंतन का समय है। नारदजी ने जिस निरपेक्षता, निष्काम भाव और समर्पण से तीनों लोकों का परिभ्रमण करते हुए कल्याण किया और समाज तथा भविष्य को सामने रखकर काम किया, बिना किसी लोभ-लालच, स्वार्थ या ऐषणाओं के अपने आपको जीया और अमर कीर्ति पा गए, उन विचारों को अपनाने की जरूरत है।
आज अपने कर्मयोग में ऐसी सुगंध भरने की जरूरत है जिससे कि नारद द्वारा स्थापित मूल्यों को आकार मिल सके और अपना जीवन संसार के लिए होने का जीवंत उदाहरण प्रकट हो सके, तभी हमें अपने आपको नारद की परंपरा का कहने में गर्व होना चाहिए। वरना कलम, माउस और कैमरों जैसे कितने ही उपकरणों और संसाधनों का उपयोग करने के बाद भी नारदजी की उस वीणा का मुकाबला हम नहीं कर पाएंगे।
कलियुग में नारद परंपरा से जुड़े सभी महानुभावों को नारद जयंती की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं …..
—-000—-

Comment:

Latest Posts