भारतीय इतिहास में न्याय का स्थान
न्याय की स्थापना के लिए पंडित वर्ग का होना जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक क्षत्रिय वर्ग का होना भी है। न्याय को क्षत्रिय ही लागू कराता है। यदि क्षत्रिय वर्ग की तलवार (शस्त्र) ब्राह्मण के आदेश (शास्त्रगत दण्ड) को मनवाने के लिए नही हो, तो समाज में अन्याय का प्राबल्य हो जाएगा। इसलिए भारतीय समाज में न्याय को लागू कराने का दायित्व क्षत्रिय समाज को दिया गया। इसके लिए क्षत्रिय धर्म की व्यवस्था की गयी, जिस पर महाभारत ‘शांतिपर्व’ (64-27) में कहा गया है :-
‘आत्मत्याग: सर्वभूतानां कुम्भा लोकज्ञानं पालनं विपणा ना मोक्षण पीडि़तानां क्षात्र धर्मे विद्यते पार्थिवनातम्।।’
अर्थात ”शत्रु से (न्याय और धर्म की रक्षार्थ) युद्घ करते हुए अपने शरीर की आहुति देना, समस्त प्राणियों पर दया करना, लोक व्यवहार का ज्ञान करना, प्रजा की रक्षा करना, विषादग्रस्त व पीडि़त स्त्री पुरूषों को दुखों से मुक्ति दिलाना, आदि सभी बातें क्षत्रिय धर्म में सम्मिलित हैं।”
राजा का प्रथम कर्त्तव्य है देश की स्वतंत्रता की रक्षा करना
राजा की स्थिति और क्षात्रधर्म की उपरोक्त व्यवस्था पर यदि विचार किया जाए तो स्पष्ट होता है कि अपने देश के लोगों की स्वतंत्रता की रक्षा करना प्रत्येक राजा का प्रथम कत्र्तव्य है। इतिहास में हमें बताया जाता है कि मध्यकाल में सारे विश्व में ही अशांति व्याप्त थी और चारों ओर युद्घों की प्रबलता थी, लोग एक दूसरे के देशों पर अधिकार करने को आतुर रहते थे और दूसरी जातियों को भी नष्ट कर अपनी जाति की उत्कृष्टता को सिद्घ करने की प्रतिद्वंद्विता से उस समय सारा विश्व समाज ही ग्रसित था। हम मानते हैं कि ऐसी परिस्थितियां उस समय थीं, परंतु इतिहास के इस काल खण्ड की ऐसी परिस्थितियों को आप उस काल की अनिवार्य बाध्यता नही मान सकते, ना ही इसे आप ‘युग धर्म’ कह कर महिमामंडित कर सकते हैं। यदि ऐसा किया गया तो (जो कि किया भी गया है) समझिये कि आप अराजकता को समर्थन दे रहे हैं, और इतिहास कभी अराजकता का समर्थक नही हो सकता, इतिहास तो अराजकता और अराजक तत्वों से संघर्ष करने की मानव गाथा है। जब इतिहास अराजकता और अराजक तत्वों का महिमामंडन करने लगे, तब समझना चाहिए कि वह अपने धर्म से पतित हो गया है। वह न्याय का प्रतिपादक न होकर अन्याय का प्रतिपादक हो गया है।
इतिहास में मिथक गढना ठीक नही
भारत के राजधर्म के नीति निर्धारक महाभारत के उपरोक्त श्लोक की व्याख्या करने की आवश्यकता नही है, उसके विषय में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि भारत के मध्यकालीन इतिहास में व्याप्त अराजकता और अराजक तत्वों की प्रबलता को या उनके वर्चस्व को समाप्त करने के लिए जिन-जिन लोगों ने जहां-जहां भी जैसे भी प्रयास किये, वे सभी स्वतंत्रता सेनानी थे। उनके साथ न्याय तभी होगा जब इतिहास के इस मिथक को तोडऩे का साहस किया जाएगा कि अराजकता तो उस काल की विश्व समस्या थी? समस्या तो थी, पर क्या समस्या को समस्या ही बने रहने दिया जाएगा? या उस समस्या से उस समय का सारा समाज ही निरपेक्ष भाव बनाये खड़ा देखता रहा? यदि नही, तो जिन लोगों ने समस्या के विरूद्घ संघर्ष किया, और अपनी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए हर प्रकार के बलिदान दिये, उनके संघर्ष और बलिदान को भुला भी मूर्खता होगी। अत: ऐसे रणबांकुरे स्वतंत्रप्रेमी योद्घाओं का इतिहास में उचित स्थान निर्धारित किया जाना अपेक्षित है।
प्राचीन आर्य धर्म में राजा का धर्म
हमारे प्राचीन आर्य धर्म में राजा के धर्म में दुर्गों की रक्षा करना, देश की संस्कृति-धर्म इतिहास के विनाशकों से उसकी रक्षा करना, धर्म और न्याय के मौलिक सिद्घांतों के अनुसार शासन करना (यही उस समय का संविधान होता था) जनता के लिए आजीविका के विभिन्न अवसर उत्पन्न कर उन्हें रोजगार देकर समृद्घ करना, अपराधियों को दंडित करना, और ईश्वर का ध्यान करने के लिए लोगों को उचित स्थान उपलब्ध कराना जैसे गुणों को सम्मिलित किया गया है। भारत में दुष्ट शासक वही माना जाता था, जो राजधर्म के इन मौलिक सिद्घांतों के विपरीत शासन करता था। अब जिस भारत में किसी हिंदू शासक को इन सिद्घांतों के विपरीत शासन करने की स्थिति में दुष्ट शासक कहा जा सकता है, उसमें किसी मुस्लिम शासक को इन सिद्घांतों की अवहेलना करने पर दुष्ट क्यों नही कहा जा सकता? समान नागरिक संहिता को हमें इतिहास के माध्यम से ही स्थापित करने की पहल करनी होगी। विधि के समक्ष असमानता और व्यक्ति व्यक्ति के मध्य भेदभाव करना, या तुष्टिकरण के लिए आज की कथित धर्मनिरपेक्षता की रक्षार्थ आप अपने गौरवमयी महापुरूषों के गौरवमयी इतिहास की हत्या नही कर सकते और यदि ऐसा करते हैं तो आप सबसे बड़ा ‘पाप’ करेंगे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत