बिखरे मोती-भाग 3
देखे नही पर दोष को…
तीर, कांच तन में घुसें,
तो देवें तुरत निकाल।
बुरा बोल घट में चुभै,
दरद करै विकराल ।। 38।।
जाको दुख दें देवगण,
बुद्घि को हर लेत।
वाणी का संयम घटै,
कष्टï मीत को देत।। 39।।
अर्थ, काम में धर्म का,
गर होवै समावेश।
धाम मिलै फिर मोक्ष का,
और कहलावै दरवेश ।। 40।।
मृत्यु खाती प्राण को,
रूप बुढ़ापा खाय।
दुष्टों की संगति करै,
शील समूल मिटाय।। 41।।
क्रोध खाय धन मान को,
काम निगल जाय लाज।
एक अभिमान के कारने,
बने बिगड़ जायें काज ।। 42।।
कुलीन तो पिछनै शील तै,
सोना पिछनै ताप।
भय परखै है शूर को,
धर्मी को परखै पाप ।। 43।।
ज्यों असुर ऊंचो उठे,
त्यों त्यों करे अभिमान।
अपयश पावै एक दिन,
चल्यो जाए सम्मान ।। 44।।
नम्रता और उदारता,
सुर की है पहचान।
ज्यों ज्यों सुर ऊंचो उठै,
चहुं दिशि पावै मान ।। 45।।
यज्ञ दान और ज्ञान तप,
सत्पुरूषों की पहचान।
सत्य दमन और सरलता,
उर के भूषण जान।। 46।।
सत्य, क्षमा और उदारता,
दुर्जन में नही होय।
लालच को त्यागै नही,
दम्भ की गठरी ढ़ोय।। 47।।
जीवन के पूर्वार्द्घ में,
कर तू ऐसे काम।
चैन न जावै चित्त का,
मिलै हरि का धाम ।। 48।।
भोजन भला जो पच गया,
बचत किया हुआ दाम।
पुण्य तो इससे भी श्रेष्ठ है,
ले ले हरि का नाम ।। 49।।
सत्गुरू उनका शास्ता,
जो पुण्यात्मा होय।
राजा उनका शास्ता,
जो पापात्मा होय ।। 50।।
शास्ता अर्थात शासन करने वाला सुमार्ग पर चलाने वाला।
विद्या विनय से शोभती,
सर की शोभा हंस।
सभा शोभै विद्वान से,
सपूत से शोभै वंश ।। 51।।
जितना ऊंचा पहाड़ हो,
वैसा ही होय तूफान।
बिरला ढूंढ़े ही मिलै,
सुखिया कोई इंसान ।। 52।।
धन के भी अभाव में,
करै मीत-सत्कार।
ऐसे नर की नाव को,
ईश लगावै पार ।। 53।।
बोलने से भला मौन है,
मौन से प्रिय सत्य।
धर्मयुक्त बोलन भला,
आदर पावै नित्य ।। 54।।
निन्दा और स्तुति में,
जो नर रहै समान।
यह तो ब्रह्माभाव की प्राप्ति,
मिल जावै निर्वाण ।। 55।।
मिथ्या दे नही सान्त्वना,
प्रतिज्ञा को निभाय।
देखे नही पर दोष को,
वो नर श्रेष्ठ कहाय ।। 56।।