ओ३म्
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हम मनुष्य हैं और हमारे कुछ कर्तव्य हैं जिनमें हमारा एक प्रमुख कर्तव्य है कि हम अपने उत्पत्तिकर्ता, जन्मदाता, आत्मा व शरीर को संयुक्त करने वाले तथा हमारे लिए योगक्षेम वा कल्याण के लिए इस सृष्टि को बनाने सहित इसका पालन करने वाले परमेश्वर को जानें और उसके प्रति अपने सभी कर्तव्यों का उचित रीति से निर्वहन करें। यह नियम सभी मनुष्यों पर लागू होता है परन्तु हम देखते हैं कि संसार के अधिकांश लोग ईश्वर के सत्य स्वरूप सहित गुण, कर्म व स्वभाव को भली-भांति नहीं जानते। इसका कारण मुख्यतः अविद्या, मत-मतान्तर एवं संसार के नास्तिक व साम्यवादी लोग हैं। वैदिक धर्म ईश्वर से आविर्भूत धर्म है। यह धर्म सृष्टि की आदि में प्रचलित हुआ। कालान्तर ने हमारे ऋषियों ने वेदों पर अनेक ग्रन्थों की रचना की जिससे वेदार्थ अर्थात् वेदों के सत्य अर्थ जानने में सरलता हो। उपनिषद एवं दर्शन ग्रन्थ वेदों के यथार्थ अर्थ को जानने में सहायक हैं। इन ग्रन्थों की मान्यताओं एवं सिद्धान्तों का उल्लेख ही वेदों में परमात्मा ने किया है। इन ग्रन्थों के अध्ययन से ईश्वर का स्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभाव के अध्येता को यथार्थ ज्ञान व विद्या की प्राप्ति हो जाती है। ज्ञान हो जाने पर उसे अपना कर्तव्य भी ज्ञात हो जाता है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप एवं सर्वज्ञ होने से ज्ञान व आनन्द का स्रोत हैं। ईश्वर का मनन, चिन्तन, स्तुति, प्रार्थना व उपासना आदि से मनुष्य के गुण, कर्म व स्वभाव में भी सुधार व उन्नति होती है। इस उन्नति से वह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होते हैं। ऐसा न करने से मनुष्य की आत्मा का पतन होता है और वह गौणिक दृष्टि से ईश्वर से दूर होने के कारण ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना से वंचित होने सहित सुख, कल्याण, उन्नति, ज्ञान प्राप्ति व आनन्द प्राप्ति से भी दूर हो जाता है।
मनुष्य ईश्वर से दूर होकर जड़ प्रकृति व भौतिक पदार्थों की इच्छा कर उन्हें प्राप्त होकर बुद्धि में जड़ता व अविवेकी बनता है जिससे उसे इहलोक व परलोक में सुख प्राप्त न होकर अनेक प्रकार की हानियां होती है। इसके विपरीत ईश्वर को जानने व उसकी उपासना से मनुष्य को पुरुषार्थ की प्रेरणा मिलती है। वह ईश्वर की भांति ही परोपकार एवं दीनों की सेवा को ही अपने जीवन का उद्देश्य समझता है। इससे उसे निर्धनों के आशीर्वाद व शुभकामनायें प्राप्त होती हैं। वह सर्वप्रिय बन जाता है। इससे उसका मन व आत्मा आह्लादित होकर उसके सुख व कल्याण में वृद्धि करती हैं। अतः सभी मनुष्यों को सृष्टि को बनाने, पालन करने वाले तथा प्रलय करने वाली शक्ति व सत्ता ईश्वर को जानने व उसके प्रति अपने कर्तव्यों का अवश्य ही पालन करना चाहिये। ऐसा करना ही सभी मनुष्यों के हित में होता है। जो मनुष्य अपने कर्तव्यों को नहीं जानता और उनका सेवन नहीं करता, वह मनुष्य वस्तुतः अभागा होता है और अपने अनमोल जीवन को शाश्वत सुख की प्राप्ति से वंचित कर जन्म-जन्मान्तर में दुःख भोगता है। इसीलिये सावधान करने के लिये हमें परमात्मा से वेद ज्ञान मिला और हमारे ऋषियों व विद्वान महात्माओं ने हमारे जीवन को सन्मार्ग पर चलानें के लिये हमें प्रचुर साहित्य उपलब्ध कराया है। हमारे सभी ऋषि मुनियों के जीवन व कार्य भी हमारे प्रेरणा के स्रोत हैं। ऋषियों ने ही हमें पंच-महायज्ञों का विधान दिया है जिसे करके हम अपने कर्तव्यों की पूर्ति करते हुए कर्म-फल व कर्म-बन्धनों में फंसने व उलझने से बचते हैं। इसके परिणाम से हम दुःखों व आत्मा को होने वाली अनेक प्रकार की हानियों से भी बचते हैं।
प्रश्न यह है कि ईश्वर के सत्यस्वरूप, उसके गुण, कर्म व स्वभाव तथा मनुष्य को अपने कर्तव्यों एवं उनके निर्वाह के साधनों का ज्ञान कहां से व कैसे हो सकता है? इसका उत्तर यह है कि इसके लिये मनुष्य को ऋषि दयानन्द का सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय तथा संस्कार विधि सहित वेदभाष्य का नियमित रूप से अध्ययन वा स्वाध्याय करना चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य की अविद्या दूर होगी तथा ज्ञान वृद्धि होकर उसे ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप सहित उसके गुण, कर्म व स्वभाव एवं सृष्टि के बनाने का प्रयोजन भी विदित होगा। ईश्वर के उपकारों को जानने के बाद मनुष्य स्वयं ही ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का अनुभव करता है और उसके ऋण से उऋण होने के लिये उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना को अपने जीवन का अंग बनाता है। ईश्वर की उपासना के लिये भी ऋषि दयानन्द ने एक पुस्तक पंचमहायज्ञ-विधि लिखी है जिसके अन्तर्गत सन्ध्या को प्रथम महायज्ञ के रूप में प्रस्तुत किया गया है तथा इसे करने के सभी विधि विधान पुस्तक में दिये गये हैं। इनको करने से मनुष्य की आत्मा की उन्नति होती है। वह कृतघ्न नहीं कहलाता और सन्ध्या सहित स्वाध्याय व इतर पंचमहायज्ञों को करने का लाभ भी उसे प्राप्त होता है। मनुष्य सद्कर्म करता है तो उसकी आत्मा व जीवन की उन्नति होती है और नहीं करता तो उसकी आत्मा पतित होकर देश व समाज की व्यवस्था से दुःख को प्राप्त होने सहित ईश्वर की कर्म-फल व्यवस्था वा दण्ड व्यवस्था से भी दुःख पाती है। अतः सबको ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का स्वाध्याय अनिवार्य रूप से जीवन के ब्रह्मचर्य आश्रम सहित गृहस्थ आश्रम में अवश्यमेव करना चाहिये अन्यथा बहुत देर हो चुकेगी और मनुष्य का शुभ कर्मों का संचय न्यून होने से उसे परलोक में हानि व दुःख भोगने पड़ सकते हैं। ऋषि दयानन्द ने जो विस्तृत साहित्य-राशि हमें प्रदान की है उसके लिये सारी मानव जाति उनकी ऋणी है। उनके साहित्य से यदि हम लाभ उठाते हैं तो इसमें हमारा ही कल्याण है और यदि नहीं उठाते तो हमारी ही हानि है।
ईश्वर के गुण कर्म स्वभाव को जानना हो तो मनुष्य आर्यसमाज के प्रथम व दूसरे नियम से भी जान सकता है। आर्यसमाज का प्रथम नियम है ‘सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका आदि मूल परमेश्वर है।’ आर्यसमाज के दूसरे नियम में भी ईश्वर का स्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभाव पर अत्यन्त संक्षेप में प्रकाश डाला गया है। यह नियम है ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ आर्यसमाज के इसी नियम का विस्तार हमें वेद, उपनिषद एवं दर्शन ग्रन्थों में मिलता है। यदि हम और कुछ भी न करें, केवल इस नियम को पढ़कर इसके प्रत्येक शब्द पर विचार करें तो इससे भी ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना की जा सकती है। उपासना के लिये सन्ध्या विधि एवं अग्निहोत्र सहित गायत्री मन्त्र वा ओ३म् के अर्थ व इनकी तदवत् भावना रखकर जपएवं इनका चिन्तन करना है। मनुष्य को ईश्वर के गुणों को जानकर उसके अनुरूप ही अपने आचरण को करना होता है। ऐसा करना ही धर्म होता है। धर्म का एक स्वरूप सत्याचरण है। सत्याचरण के लिये हमें अपने मन, वाणी एवं कर्म से एक करना होगा। ऋषि दयानन्द का जीवन पढ़कर हमें धर्म करने की प्रेरणा मिलती है। उन्होंने धर्म पालन में कितने कष्ट उठायें हैं, उसको पढ़कर मनुष्य का हृदय द्रवित हो जाता है और आंखे गीली हो जाती हैं। उन्होंने वेद व धर्म का जो प्रचार किया वह सब ईश्वर की वेदाज्ञा के पालन के लिये ही किया था। उनका जीवन वेदमय था। हमें भी उनसे प्रेरणा ग्रहण कर अपने जीवन को उनके समान ही बनाना है। ऐसा करने से ही हम श्रेष्ठ प्रारब्ध वाले बन सकेंगे जिससे हमें परलोक में भी सुख व कल्याण की प्राप्ति होगी। मनुष्य का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति है। हमें यह सब चीजें सन्ध्या व सत्याचार से प्राप्त होती हैं। हमें ईश्वर को जानना है व उसके प्रति अपने कर्तव्यों को जानकर उनका आचरण करना है। इसी में हमारा निजी हित व लाभ सहित मानवता का भी हित निहित है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत