मनीराम शर्मा
भारत में उच्च स्तरीय न्यायाधीशों के लिए स्वयं न्यायपालिका ही नियुक्ति का कार्य देखती है और उस पर किसी बाहरी नियंत्रण का नितांत अभाव है।फलत: जनता को अक्सर शिकायत रहती है कि उसे न्याय नहीं मिला और उतरोतर अपीलों का लंबा सफर करने बावजूद आम नागरिक वास्तविक न्याय से वंचित ही रह जाता है। दूसरी ओर सरकारें कहती हैं कि न्यायपालिका स्वतंत्र है अत: वह उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। स्वतंत्र होने का अर्थ स्वच्छंद होना नहीं है और लोकतंत्र में जनता द्वारा चुनी गयी सरकारें न्यायपालिका सहित अपने प्रत्येक अंग के स्वस्थ संचालन के लिए जिम्मेदार हैं । आखिर न्यायाधीश भी लोक सेवक हैं और वे भी अपने कृत्यों के लिए जवाबदेय हैं।
किसी प्रकरण में बहुत सी अपीलें दायर करने के बाद भी पीड़ित पक्ष के दृष्टिकोण से न्याय नहीं मिलता है, उसे प्रक्रिया के गढ्ढों में इस प्रकार डाल दिया जाता है कि पीड़ित व्यक्ति न्याय की आशा ही छोड़ देता है। सम्पति सम्बन्धी विवादों में आपराधिक मुकदमे दर्ज होना इसी की परिणति है। फिर किसी प्रकरण विशेष में यदि न्याय मिल जाये तो यह अपवाद और सौभाग्य ही समझा जा सकता है। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इतने कानूनी दृष्टान्तों, निर्णयों के बावजूद जनता को संतोषजनक निर्णय नहीं मिल रहे हैं और न्याय से वंचित करने वाले निर्णय दिए जाने की मनोवृति व प्रवृति पर कोई अंकुश नहीं लगा है। यद्यपि पीड़ित पक्ष के लिए असंतोषप्रद निर्णय के विरुद्ध अपील ही एक मात्र रास्ता है किन्तु इससे अनुचित निर्णय देने वाले न्यायाधीशों के आचरण और कार्यशैली पर कोई प्रभाव नहीं पडता है।
भारत में न्यायालय अवमान अधिनियम के भय से आम व्यक्ति न्यायालय के निर्णयों पर किसी प्रकार की टिपण्णी करने से परहेज करता है। अमेरिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति, व उनके आचरण पर नियंत्रण के लिए अलग से न्यायिक आयोग/कमेटियां कार्यरत हैं। न्यायालयों के निर्णयों की समीक्षा के लिए वहाँ मंच उपलब्ध है और न्यायिक निर्णयों की समीक्षा के लिए वहाँ एक नियमित पत्रिका निकाली जाती है जिसमें न्यायिक निर्णयों पर जनता के विचार प्रकाशित किये जाते हैं। इसी प्रकार के आयोग इंग्लॅण्ड में भी कार्यरत हैं। इंग्लॅण्ड में न्यायिक समीक्षा आयोग अलग से कार्यरत है जो किसी (विचाराधीन अथवा निर्णित)भी मामले की किसी भी चरण पर समीक्षा कर सकता है और जिस व्यक्ति के साथ अन्याय हुआ हो उसे उचित क्षतिपूर्ति दे सकता है। यह भी उल्लेखनीय है उक्त समीक्षा की व्यवस्था के बावजूद इंग्लॅण्ड की न्यायिक प्रणाली भारतीय न्यायिक निकाय से किसी प्रकार कमजोर प्रतीत नहीं होती है। भारत में तो न्यायपालिका को सर्वोच्च माना जाता है और उसके निर्णयों की किसी अन्य निकाय द्वारा समीक्षा नहीं हो सकती। जनतंत्र में जनता और उसके विचार ही सर्वोपरि हैं व कम्बोडिया के संविधान के अनुसार तो नागरिक ही लोकतंत्र के स्वामी हैं, और न्यायाधीश तो इस लोकतंत्र के सेवक मात्र हैं। भारत में भी न्यायालय अवमान अधिनियम की धारा 5 में यह प्रावधान है कि किसी निर्णित मामले के गुणावगुण पर उचित टिप्पणियां करना अवमान नहीं माना जायेगा। इसी प्रकार वर्ष 2006 में धारा 13 ख जोड़कर यह प्रावधान किया गया है कि यदि न्यायालय इस बात से संतुष्ट हो कि सत्यता को बचाव अनुमत करना जन हित में है और ऐसे बचाव की प्रार्थना सद्भाविक है तो न्यायालय सत्यता को किसी अवमान कार्यवाही में बचाव के रूप में अनुमत कर सकता है। अत: न्यायालयों के निर्णयों की सद्भाविक और तथ्यों पर आधारित समालोचना भारत में भी अवमान के दायरे में नहीं आती है। हमारे पवित्र संविधान के अनुच्छेद 51क (एच )में नागरिकों का यह मूल कर्तव्य बताया गया है कि वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानव वाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे। इसी प्रकार अनुच्छेद 51 क (जे ) में कहा गया है कि नागरिक व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करें जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊंचाइयों को छू ले। उक्त प्रावधान हमें प्रेरित करते हैं कि हम न्यायिक क्षेत्र सहित उतरोतर सुधार की ओर अग्रसर हों ताकि राष्ट्र प्रगति करता रहे। लोकतंत्र में जनता को यह भी अधिकार है कि न्यायपालिका में उपयुक्त सुधारों हेतु अपने विचार निर्भय होकर व्यक्त करे और न्यायपालिका से ऐसे विचारों पर सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की अपेक्षा है। अब समय आ गया है कि न्यायपलिका की कमियों पर आम नागरिक को स्वर उठाना होगा। उक्त सम्पूर्ण विवेचन के सन्दर्भ में नागरिकों को चाहिए कि जहां किसी भी न्यायिक या अर्ध न्यायिक अधिकारी के निर्णय से यह आभास हो कि ऐसा निर्णय वास्तविक न्याय, न्याय के सुस्थापित सिद्धांतों अथवा रिकार्ड पर उपलब्ध सामग्री से विपरीत है और वह पूर्ण न्याय की कसौटी पर खरा नहीं उतरता तो ऐसे निर्णय के सन्दर्भ में निर्णायक न्यायाधीश को एक सार्वजनिक और खुले पत्र द्वारा नम्रतापूर्वक फीडबैक दे सकते हैं कि उनके निर्णय में पत्र के अनुसार कमियां हैं ताकि वे भविष्य में ध्यान रखें। अच्छा रहेगा यदि ऐसे पत्र की एक प्रति मुख्य न्यायाधीश महोदय को भी आवश्यकीय कार्यवाही हेतु भेज दी जाय। मीडिया को भी इस सन्दर्भ में अपनी स्वतंत्रता और निर्भीकता का परिचय देकर अपना धर्म निभाना चाहिए।