न्याय प्राप्ति के लिए व्यक्ति का निर्भीक होना आवश्यक है। यदि व्यक्ति में निर्भीकता नही है, तो वह न्याय की प्राप्ति नही कर सकता। यही बात इतिहास के लिखने के संदर्भ में भी जाननी समझनी चाहिए। इतिहास लेखन में न्याय आवश्यक है, अन्यथा आप अपनी आने वाली पीढिय़ों के साथ न्याय नही कर पाएंगे।
एक बार राजा जनक अपने दलबल के साथ मिथिलापुरी के राजपथ से भ्रमण पर निकले। राजा की सुविधा के लिए राजपथ को सजाया जाने लगा। मार्ग में अष्टावक्र था उसे भी राजकर्मियों ने हटाने की याचना और चेष्टा की, परंतु अष्टावक्र ने स्वयं को हटाने से इंकार कर दिया। उसने बड़ी निर्भीकता से कहा-प्रजाजनों के आवश्यक कार्यों को रोककर अपनी सुविधा का प्रबंध करना राजा के लिए उचित और न्याय संगत नही कहा जा सकता। राजा यदि अन्याय, अनीति और अत्याचार करता है, तो विद्वान का कर्म है कि वह उसे रोके। अत: आप राजा तक मेरा संदेश पहुंचा दें और कह दें कि अष्टावक्र ने गलत आदेश मानने से मना कर दिया है।”
अष्टावक्र के इस ‘दुस्साहस’ से राजकर्मियों और मंत्री को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने अष्टावक्र को बंदी बना लिया और उसे राजा जनक के सामने प्रस्तुत किया।
राजा जनक परम विद्वान थे और इसलिए वह विद्वानों का सम्मान भी करते थे। जब उन्होंने अपने मंत्री से अष्टावक्र के विषय में सारावृतांत सुना तो वह अष्टावक्र की निर्भीकता से अत्यंत प्रभावित हुए। तब उन्होंने अपने मंत्री से जो कुछ कहा वह ध्यान देने के योग्य है-”ऐसे निर्भीक विद्वान राष्ट्र की सच्ची संपत्ति होते हैं, ये दण्ड के नही, सम्मान के पात्र हैं।”
राजा ने अष्टावक्र से क्षमायाचना की और कहा कि अनुचित नीति चाहे राजा की ही क्यों ना हो, तिरस्कार के ही योग्य होती है। आपकी निर्भीकता ने मुझे मेरी भूल को समझने और सुधारने का अवसर प्रदान किया है। अत: मैं निवेदन करता हूं कि आप मेरे राजगुरू बनें, और अपनी इस निर्भीकता से सदैव न्याय के पक्ष का समर्थन करें।”
मित्रों ! ऐसी हैं भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की महान परंपराएं । जिनमें विरोध करने का इससे बेहतर कोई रास्ता नहीं हो सकता कि एक योगी भी राजा को उसके अनीतिपरक कार्य के लिए झुकने के लिए विवश कर दे । परंतु हम इनसे शिक्षा तो तब लें जब इन महान परंपराओं को इतिहास में स्थान दिया जाए। भारत विरोधी कुछ लोगों का कहना है कि इन परंपराओं को भारत के इतिहास में इसलिए स्थान नहीं दिया गया कि इनसे सांप्रदायिकता फैल सकती है ? उसी सोच का परिणाम है कि आज नेताओं की जुबान फिसल रही है और देश अराजक तत्वों के हाथों में जाता हुआ दिखाई दे रहा है।
प्रधानमंत्री मोदी यदि कोई संविधान विरोधी कार्य करते हैं या राष्ट्र विरोधी कानून देश में लागू कराते हैं तो उसका विरोध और प्रतिरोध करना राहुल गांधी सहित सभी विपक्षी नेताओं का संवैधानिक अधिकार है । उनके ऐसे विरोध का स्वागत भी होना चाहिए। परंतु यह विरोध वैसे ही ही जैसे अष्टावक्र ने राजा जनक के अनीतिपरक कार्य का किया था। भाषा की शालीनता व गंभीरता बनी रहनी चाहिए। जिस नेता की भाषा की शालीनता व गंभीरता समाप्त हो जाती है , वह नेता नेता नहीं रहता , उसे आप कुछ भी कहें , परंतु भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में उसे कहीं भी सम्मान प्राप्त नहीं हो सकता। आपका क्या विचार है ?
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत