आत्माराम यादव पीव
समाज में लौकिक आचरण का बड़ा महत्व है और वैदिक आचरण से इसका तानाबाना जोड़कर लोकाचारों को पूरा किया जाता है। भारत में हजारों साल से यादवों का वर्चस्व रहा है जिसमें कई शताब्दियों से यादव समाज की एक शाखा ग्वालवंश आज भी वैवाहिक बंधन में बंधने से पूर्व युवक-युवतियों के गुणों का मिलान करने के बाद आपसी सहमति से सगाई की रस्म अदायगी करता है। व्यवहार में अगर कुछ बदला है तो इन सम्बन्धों की मध्यस्था करने वाले नाई जिसे खबास भी कहते है के द्वारा सयानी बिटिया के रिश्ते के लिये लड़के वालों के यहाॅ वैवाहिक प्रस्ताव भेजे जाने का चलन समाप्त हुआ है और उसके स्थान पर अब परिजन आ गये है। जहाॅ परिजन नहीं होते है वहाॅ लड़की के माता-पिता भाई आदि भी रिश्ते की बातें तय करने लगे है। संबंध तय होने के बाद लड़के के परिजन लड़की के हाथ में समान्य भेंट मिठाई आदि के साथ कुछ राशि रखते है वही लड़की वाले लड़के हे हाथ में भेंट देकर मिठाई खिलाकर प्रसन्नता जाहिर कर सगाई पक्की करते है।
सगाई के दिन लड़के के परिवार के लोग अपने नातेदार-रिश्तेदारों के साथ लड़़की के घर पहुॅचते है जहाॅ लोकाचार की प्रक्रिया के साक्षी के बतौर समाज के बीच समाज की पंचायत के मुखिया जो महाते पदवी से नबाजे है के साथ चौधरी और दीवान के पदासीन व्यक्ति भी दोनों ही पक्षों के मध्य में बैठते है। दोनों पक्षों की ओर से आने वाले तमाम रिश्तेदारों-सगे सम्बन्धियों के सम्बन्ध में कुछ समय की प्रतीक्षा के बाद महाते की ओर से पूछा जाता है कि दोनों पक्षों का कोई मेहमान नहीं रहा हो तो सगाई की बात शुरू की जाये। लड़के-लड़की के पक्ष के मुखियाओं की ओर से यह स्वीकृति कि हमारे पक्ष के सभी लोग आ गये है के पाश्चात सगाई की रस्म की शुरूआत होती है। पंचायत के मुखिया या उनके प्रतिनिधि द्वारा पूछा जाता है कि इस सगाई के बीच में मध्यस्थ कौन है। सगाई से पूर्व दोनों पक्ष अपनी बात समाज में रखने के लिये एक रिश्तेदार को मध्यस्थ बनाकर ले जाता है, तब वह सगाई समारोह में खड़ा होकर अपना परिचय देता है और लड़के के माता-पिता के गोत्र की जानकारी देने के बाद लड़की के माता-पिता के गौत्र बताता है। समाज के मुखिया यह तय करते है कि जिन लड़के-लड़की का सम्बन्ध होने जा रहा है कहीं उनके गोत्रों में समानता तो नहीं है। जब दोनों के अलग-अलग गोत्र होने की जानकारी होती है तब पंचायत के महाते उपस्थित सभी मेहमानों के समक्ष कहते है कि पंचों फॅला लड़के- और लड़की के बीच रिश्ता आया है और इनके ये गोत्र है क्या बात पक्की समझे। जब समाज सहमति देता है तब महाते अपने निर्णय में सगाई की अनुमति देते है। पूरे समाज में सहमति मिलने के बाद लड़के वालों की ओर से सवा रूपये मुखिया के पास पहुॅचाये जाते है। उस सवा रूपये को पंचायत के मुखिया अपने माथे से लगाकर आगे बढ़ा देते है और वे सवा रूपये पूरे समाज के समक्ष लड़के-लडकी की सगाई के साक्षी बनते है जिन्हें दोनों पक्षों के परिजनों सहित उपस्थित समाज का हर व्यक्ति अपने माथे से लगाकर सम्मान देता है।
आत्माराम यादव पीव
सगाई समारोह में लड़के पक्ष एवं लड़की पक्ष की ओर से उपहार देने की परम्परा कुछेक सालों से कुछ सम्पन्न लोगों ने शुरू की है जिसका प्रदर्शन खूब देखने को मिलता है जिसमें लड़की वाले लड़के के लिये बढ़चढ़कर सोने-चांदी के आभूषण, कपड़े आदि की भेंट एवं नगदी लाने लगे वहीं लड़के पक्ष के लोग लड़की के लिये भेंट देनें में पीछे नहीं रहना चाहते है। यह अलग बात है कि इसके पूर्व हजारों सालों से चली आ रही यह परम्परा लोकाचार में सवा आने से बढ़कर सवा रूपये पर ठहर गयी जिस पर समाज स्वयं को गर्वोन्नत समझता है लेकिन जहाॅ लड़की पक्ष के लोग न्यूनतम कम से कम खर्च करके मेहमानों का स्वागत गर्मियों में मीठेशर्बत और ठण्ड में चाय से करने में अग्रणी रहा है तब सगाई की रस्म में लड़के पक्ष की ओर से बतौर मुॅह मीठा करने को बॅटने वाली 10-15 किलो मिठाई के स्थान पर सम्पन्न और दिखावे की शुरूआत हुई और पच्चीस-पचास किलो मिठाई बाॅटने का चलन हुआ तब समाज ने इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया और उसके स्थान पर शकर की चिरोंजी बॅटने का रिवाज बन गया। जब तक मीठा मुॅह नहीं हो जाता तब तक समाज के बीच दोनों पक्षों के मेहमानों द्वारा गीत,सवैया, कविता आदि के साथ पोराणिक कथाओं पर काव्यधारा का प्रवाह किया जाता है जो अब भी जारी है। मिठाई वितरण के बाद समाज के मुखिया द्वारा पूछा जाना कि भैईया कोई मिठाई से वंचित तो नहीं, फिर सगाई रस्म का समापन होता है।
ग्वाल समाज में आधुनिकता इस कदर हावी हो गयी कि जहाॅ सवा रूप्ये में सगाई की रस्म अदाकर वैवाहिक सम्बन्धों की गठजोड़ में बंधने की शुरूआत पर गर्व तो कर सकते है लेकिन कुछ अनावश्यक रिवाजों ने समाज में दिखावे की प्रतिस्पर्धा में खुद को कम न आंकने में झौंक दिया है। बुजुर्गो की परम्परानुसार दूसरे नगर से आने वाले मेहमानों को लड़की पक्ष की ओर से नाश्ता-भोजन कराया जाता था लेकिन अब इसका स्वरूप सुरसा के मुख की तरह विकराल हो गया है। अब सगाई में आने वाले हर मेहमान को नाश्ता कराने के बाद सगाई करने आने वाले हर मेहमान को लड़की पक्ष की ओर से भोजन कराया जाता है जिसमें परोसे जाने वाली व्यंजन गरीब लड़की वाले की कमर तोड़ दे लेकिन वे समाज के सम्पन्नों की बराबरी में कर्ज में डूबकर भी खुद को गंगापार समझते है। थोड़ा अपवाद यह भी देखने को मिलने लगा जहाॅ दूसरे नगर से आने वाले मेहमानों को भोजन कराना तो ठीक समझ आता है परन्तु जब दोनों पक्ष एक ही स्थान के हो वहाॅ भोजन का चलन समझ से परे लगता है। भोजन में अगर पचास सौ मेहमान हो तो वह भी ठीक समझ सकते है लेकिन सगाई में महिला- पुरूषों को मिलाकर यह सॅख्या हजार से भी अधिक बढ़ जाती है जो समाज के निम्न तबके के लिये दुखदायी कहा जा सकता है। समाज की पंचायतों को चाहिये कि वे जहाॅ मिठाई पर प्रतिबन्ध लगा सकते है तो ऐसे मसलों पर गंभीरता से विचार कर भोजन के लिये मेहमानों की आवभगत की सहमति दे और स्थानीय मेहमान रिश्ते में होते हुये उसे स्वयं अपने घर भोजन करके खर्चीली होती जा रही सगाई संस्कार को सम्मानित करने की ओर अग्रसर हो सकते है, जो समय की माॅग है और इस का कठोरता से पालन भी आवश्यक है तभी समाज के गरीब-निम्न तबकें के चेहरों पर खुशियाँ लाई जा सकेगी।