प्राचीन भारत में विभिन्न धर्म ग्रन्थों में राजनय से सम्बन्धित उपलब्ध सामग्री का वर्णन इस प्रकार है :-
मनुस्मृति
मानव धर्म पर लिखित मनुस्मृति, भारत की एक ऐसी अति प्राचीनतम कृति है, जिसमें राजदूतों तथा उनके कार्यों का विस्तृत वर्णन मिलता है। मनु के द्वारा दिये गये नियमों में पड़ोसी देशों के साथ राजनीतिक सम्बन्धों को बनाये रखने के लिए राजदूत की नियुक्ति का प्रावधान था। वह राजदूत को बहुत ही महत्व देता था। राजा को केवल ऐसे व्यक्ति को ही राजदूत नियुक्त करना चाहिये जो सभी विषयों का ज्ञाता हो, जो दूसरों के मुख पर आये भावों को पढ़ सके तथा जो सत्यवादी, गुणी और उच्च वंश का हो। मनु उस व्यक्ति के लिये राजदूत की नियुक्ति पर बल देते हैं जो सब शास्त्रों का विद्वान हो, अच्च्छे व्यक्तित्व वाला हो, धूम्रपान व मद्यपान से दूर रहता हो तथा जो चतुर और श्रेष्ठ कुल का हो।
मनु के अनुसार,
राजा को राजदूत नियुक्त कर देना चाहिये, सेना को सेनापति पर आश्रित रहना चाहिये, प्रजा पर नियंत्राण सेना पर निर्भर करता है, राज्य की सरकार राजा पर, शांति और युद्ध राजदूत पर।
मनु का मत है कि एक योग्य व चतुर राजदूत मित्र राज्यों में मतभेद तथा शत्रु राज्यों के बीच मित्रता स्थापित करने में सफल होता है। मनु राजा को युद्ध के प्रयोग का परामर्श, युद्ध की अनिवार्यता तथा विजय की सुनिश्चितता की स्थिति में एक अन्तिम शस्त्र के रूप में ही देते हैं। चूंकि युद्ध का परिणाम अनिश्चित होता है, अतः मनु राजा को परामर्श देते हैं कि उसे मित्र, शत्रु अथवा तटस्थ राज्य को कभी भी अपने से अधिक शक्तिशाली नहीं बनने देना चाहिये। राज्य की रक्षा तथा शत्रु का विनाश राज्य का प्रमुख कर्तव्य है। शत्रु से युद्ध करना राजा का धर्म है। वह उसे शत्रु के सर्वनाश के लिये बगुले की भांति व्यवहार का परामर्श देते हैं। इसके अतिरिक्त राजा को शेर की भांति शक्तिशाली और लोमड़ी की भांति चालाक होना चाहिये। मनु ने राज्यों की विदेश नीति के बारे में विस्तार से वर्णन किया है। मनु का मौलिक सिद्धान्त षाड्गुण्य मंत्र है, जिसमें वह राजा को संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय गुणों को ग्रहण करने का परामर्श देता है। इसी के माध्यम से राजा सूचनायें एकत्रित करता था। मनु के मत में दूत के तीन प्रमुख कार्य थे- पर राजा के साथ युद्ध अथवा शांति की घोषणा करना, संधियां करना और विदेशों में रहकर कार्य करना। राजदूत को अपने गुप्तचरों के माध्यम से अपना ज्ञानवर्धन करना चाहिये तथा विरोधी पक्ष के लोभी व्यक्तियों व अधिकारियों को भ्रष्ट करने का निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिये। प्रलोभन और भेंट देकर सूचना प्राप्ति का मनु परामर्श देते हैं। वास्तव में प्राचीन काल में गुप्तचर व गुप्तचरी का विरोध न करके, उसके उपयोग पर बल दिया गया था।
याज्ञवल्क्य स्मृति
याज्ञवल्क्य स्मृति में राज्य और प्रजा की रक्षा, राजा का प्रमुख कर्त्तव्य माना गया है। अतः युद्ध करना राजा का धर्म है। राजा को इस स्थिति को ध्यान में रखकर ही अपनी नीति अपनानी चाहिये तथा साम, दान, भेद और दण्ड सभी उपायों का प्रयोग कर सिद्धि प्राप्त करनी चाहिये। याज्ञवल्क्य स्मृति के एक श्लोक में राजा के गुण संधि, विग्रह, यान, आसन, संश्रय और द्वधीभाव बताये गये हैं, अर्थात् राजा को आवश्यकता तथा परिस्थिति अनुसार अपने पड़ोसी राज्यों के साथ मित्रता, शत्रुता, आक्रमण, उपेक्षा, संरक्षण अथवा फूट डालने का प्रयत्न करना चाहिये।
रामायण तथा महाभारत
विश्व साहित्य के प्राचीनतम महाकाव्यों की तुलना में रामायण व महाभारत उत्कृष्ट कृति हैं। इनमें राजनय की उपयोगिता व उन्मुक्तियों से सम्बन्धित उदाहरण मिलते है।महर्षि बाल्मीकि द्वारा रचित रामायण में राम ने लंका के विरुद्ध युद्ध की घोषणा के पूर्व अंगद ने नीति के अनुसार समझौते का पूर्ण प्रयास किया था। रावण द्वारा हनुमान के लंका दहन के कारण प्राणदण्ड के आदेश देने पर रावण के भाई विभीषण ने व्यवधान डालते हुए कहा था कि शास्त्रानुसार दूत का वध नीति विरोधी है, उसे दण्डित नहीं किया जा सकता, चाहे वह कैसा ही अपराध क्यों न करे। विभीषण को अपने पक्ष में करना तथा रावण के दरबार में गतिविधियों की जानकारी प्राप्त कर लेना, कुशल राजनयिक योग्यता का परिचायक है। शुक राक्षस द्वारा राम की सेना का भेद पता लगाने के लिये आने पर उसे पकड़ लिया गया, परन्तु राम ने उसे छोड़ दिया क्योंकि शुक ने अपने को रावण का दूत घोषित कर दिया था। इस प्रकार इस काल में दूत भेजने की प्रथा थी तथा इनका मुख्य कार्य सन्देशों का लाना, ले जाना तथा जासूसी करना था। अयोध्या काण्ड में राजा दशरथ राम को परामर्श देते हैं कि राजा को दूतों के माध्यम से सत्य का पता लगाने का प्रयत्न करना चाहिये। तुलसीदास ने रामचरित मानस में साम, दान, भेद और दण्ड चारों उपायों का वर्णन किया है।
महाभारत हमारे प्राचीन राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास के अध्ययन का एक प्रमुख साधन है। रामायण की भांति महाभारत भी नीतिशास्त्र की ऐसी पुस्तक थी जिसका अध्ययन कर राजा स्वयं के राज्य के हितों की रक्षा के लिये कार्य कर सकता था। गीता को विद्वानों ने नीतिशास्त्र, नीति मीमांसा, कर्तव्य शास्त्र आदि अनेक नाम दिये हैं। गीता के उपदेश राजनीति के उच्चतम आदर्श के रूप में देखे जाते हैं। इस समय तक राजनय विकसित हो चुका था। महाभारत में दूतों का वर्णन मिलता है। शासन की सफलता के लिए दूतों और गुप्तचरों की आवश्यकता पर इसमें बल दिया गया है। दूत केवल वही व्यक्ति नियुक्त हो सकता था जो कुलीन वंश का, प्रिय वचन कहने वाला, अच्छी स्मृति वाला और यथोक्तवादी हो। शांतिपर्व में वर्णित है कि दूतों के माध्यम से राज्य को अपने शत्रु और मित्र दोनों ही पक्षों के अभिलाषित विषय का ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिये। संजन ने विभिन्न अवसरों पर दूत का कार्य किया था। पांडवों की ओर से श्रीकृष्ण एक विशेष दूत बनकर कौरवों के राजा दुर्योधन के दरबार में दोनों पक्षों के मध्य समझौता कराने गये थे, जिससे कि भविष्य में संग्राम न हो। द्रोपदी द्वारा ऐसे असम्भव कार्य के औचित्य के सम्बन्ध में पूछने पर श्रीकृष्ण ने जो उत्तर दिया वह राजनय से परिपूर्ण था। श्रीकृष्ण का मत था कि भले ही वे युद्ध को टालने में असफल रहे, परन्तु वे विश्व को दिखा देंगे कि वे न्यायोचित हैं तथा कौरव अन्याय कर रहे हैं। इसी सन्दर्भ में उन्होंने कहा था कि-
मैं तुम्हारी बात को कौरवों के दरबार में अच्छी प्रकार से रखूंगा और प्राणप्रण से यह चेष्टा करूंगा कि वे तुम्हारी मांग को स्वीकार कर लें। यदि मेरे सारे प्रयत्न असफल हो जायेंगे और युद्ध अवश्यम्भावी होगा, तो हम संसार को दिखायेंगे कि कैसे हम उचित नीति का पालन कर रहे हैं और वे अनुचित नीति का, जिससे विश्व हम दोनों के साथ अन्याय नही कर सके।
इस सन्दर्भ में श्रीकृष्ण ने कहा था कि “धष्तराष्ट्रं के समक्ष मैं न केवल अपने परन्तु कौरवों के हितों की भी रक्षा करूंगा।”
युद्धनीति एवं राजनीति के कृष्ण एक महान ज्ञाता थे। धर्मराज युधिष्ठिर व अर्जुन को दिये गये नीति प्रवचन, कृष्ण के योग्य एवं आदर्श राजदूत होने के द्योतक हैं। भीष्म पितामह ने दूत की योग्यताओं का वर्णन किया है। उनके अनुसार वह पुरुष जो दक्ष, प्रिय भाषी, यथोक्तवादी और अच्छी स्मृति वाला हो वही दूत नियुक्त किया जा सकता है। राजा को किसी भी परिस्थिति में दूत का वध नहीं करचा चाहिये।”दूत को मारने वाला मंत्रियों सहित नरकगामी होगा।” भीष्म पितामह द्वारा अन्तिम क्षणों में दिये गये वचन राजा तथा राजनय पर अच्छा प्रकाश डालते हैं। महाभारत में उच्च साध्य की प्राप्ति में सभी प्रकार के साधनों के उपयोग का समर्थन है। शांतिपर्व राजनय और युद्ध व शान्ति के परामर्श से भरा पड़ा है। वनपर्व में विजय प्राप्ति हेतु सभी साधन मान्य बताये गये हैं। क्षत्रिय धर्म नैतिकता के ऊपर तथा परे है।
ये दोनो महाकाव्य शासन, राजनय, युद्ध और शांति पर लिखे गये महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। इस प्रकार रामायण और महाभारत काल में राजनय का संस्थागत स्वरूप उभर आया था। रामचन्द्र दिक्षितार के अनुसार राजनय इस समय पूर्ण विकसित हो चुका था।