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ऋषि दयानन्द ने अध्ययन-अध्यापन के लिये गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति का उल्लेख कर उसे श्रेष्ठ शिक्षा पद्धति घोषित किया था। यही एकमात्र शिक्षा पद्धति है जहां पर वेदों सहित सम्पूर्ण वैदिक साहित्य का अध्ययन करने की सुविधा है। देश-देशान्तर में किसी शिक्षा पद्धति में वेदों व प्राचीन वैदिक साहित्य के अध्ययन करने की वह सुविधा नहीं है जैसी हमारे आर्ष गुरुकुल प्रणाली के प्रतिनिधि विद्यालयों में उपलब्ध है। ईश्वर व आत्मा विषयक सत्य ज्ञान सहित संसार का प्रयोजन बताने व इससे उचित लाभ लेने की दृष्टि से गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली संसार की सभी शिक्षा प्रणालियों में सर्वोत्तम है। ऋषि दयानन्द जी के विचारों के अनुरुप सबसे प्रथम गुरुकुल स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने हरिद्वार के निकट कांगड़ी ग्राम में स्थापित किया था। उस गुरुकुल में जो स्नातक तैयार हुए, उनकी प्रतिभा व योग्यता का अनुमान वर्तमान पीढ़ी व आर्यसमाज से असम्बद्ध लोग नहीं लगा सकते। गुरुकुल कांगड़ी का अतीत स्वर्णिम रहा है। आज का गुरुकुल कांगड़ी का स्वरूप अपने आरम्भ के वर्षों जैसा गौरवशाली नहीं है। स्वामी श्रद्धानन्द जी व उनके बाद के कुछ वर्षों तक गुरुकुल अपनी लक्ष्य प्राप्ति के कार्य में सफल रहा है। आज तो यह संस्था सरकार से पोषित संस्था हो गई है जहां सरकारी नियम चलते हैं जिनका मेल वैदिक विचारों से अनेक दृष्टियों से नहीं है। गुरुकुल में सभी नियुक्तियां भी वैदिक विचारधारा के आचार्यों की नहीं होती। आजकल आर्य विचारों वाले आचार्यजन भी आर्यसमाज के आरम्भ के वर्षों के आचार्यों के अनुरूप उच्च सिद्धान्तों से युक्त वैदिक जीवन व्यतीत करने वाले लोग नहीं हैं। आज आर्यसमाज में ही स्वयं एक क्रान्ति की आवश्यकता अनुभव की जाती है। भविष्य में क्या होगा, कहा नहीं जा सकता परन्तु यह तथ्य है कि आर्यसमाज में शिथिलता एवं निराशा का वातावरण देखने को मिलता है। नई पीढ़ी आर्यसमाज से दूर जाती दिखाई देर ही है। वह ईसाई मान्यताओं एवं यूरोपीय सभ्यता में ढल रही है व ढल चुकी है।
स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती आर्यजगत् में विख्यात संन्यासी है। आपने गुरुकुल झज्जर में अध्ययन कर गुरुकुल कांगड़ी से संस्कृत में एम0ए0 किया था। इसके बाद युवावस्था में ही आपने गुरुकुल गौतमनगर, दिल्ली जो उस समय ठीक से चल नहीं रहा था, उसे सम्भाला और उस संस्था को शून्य से शिखर तक पहुंचाया। हम विगत 20 वर्षों से स्वामी जी के सम्पर्क में है। स्वामी जी हम जैसे एक साधारण व्यक्ति को भी अपना स्नेह एवं आशीर्वाद देते हैं जिससे हमें आनन्द की प्राप्ति होती है। स्वामी जी के द्वारा इस समय देहरादून, दिल्ली, मंझावली, उड़ीसा, केरल, बुलन्दशहर आदि स्थानों पर गुरुकुल चल रहे हैं। सभी गुरुकुलों में विद्यार्थियों के अध्ययन की उत्तम व्यवस्था है। देहरादून के गुरुकुल में हमारा आना जाना होता रहता है। इस गुरुकुल के विद्यार्थियों की यदि शिक्षा व ज्ञान के स्तर की बात करें तो यह गुरुकुल आर्यसमाज के देश भर में चल रहे प्रमुख गुरुकुलों में से एक है। इस गुरुकुल ने अपनी स्थापना के मात्र बीस वर्षों में अनेक उपलब्धियां प्राप्त की हैं। बहुत योग्य स्नातक इस गुरुकुल से अध्ययन कर निकले हैं। कुछ नामों में श्री रवीन्द्रकुमार आर्य, श्री अजीत आर्य, श्री शिव कुमार आर्य, श्री शिवदेव शास्त्री आदि अनेक योग्य स्नातक हैं। सूची बहुत लम्बी है। देहरादून का आचार्यात्व प्रसिद्ध ऋषिभक्त डा. धनंजय जी कर रहे हैं। इस गुरुकुल की सफलता व प्रसिद्धि का कारण स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी के आशीर्वाद सहित सभी गुरुकुल के लिये आवश्यक साधनों को उपलब्ध कराना तथा डा. धनंजय जी का गुरुकुल को ऋषि दयानन्द की आशाओं व आकांक्षाओं के अनुरूप उसे मूर्तरूप देना है। स्वामी जी गुरुकुलों का संचालन करते हुए प्रायः हर समय यात्रा पर रहते हैं। लगभग आठ गुरुकुलों की की व्यवस्था करना कोई आसान काम नहीं है। हमें आर्य विद्वान राजेन्द्र विद्यालंकार जी की यह बात बहुत महत्वपूर्ण लगती है जिसमें उन्होंने कहा था कि आजकल के युवा दम्पती अपनी दो सन्तानों का पालन करने में स्वयं को खपा देते हैं। समाज से सम्बन्धित कार्यों को करने के लिए उन्हें अवकाश नहीं मिलता। वहीं स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी ने लगभग 8 गुरुकुलों का संचालन कर वर्तमान आधुनिक भौतिक युग में एक रिकार्ड स्थापित किया है। स्वामी जी को अनेक बार विदेशों में आर्य सम्मेलनों आदिे में भी जाना पड़ता है। आर्यसमाज से जुड़ा हुआ समस्त विश्व समुदाय स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती को जानता, पहचानता एवं उनके योगदान को भली प्रकार समझता है। वर्तमान में स्वामी जी आर्यसमाज के सर्वोपरि एवं शीर्ष विद्वान नेता व संन्यासी हैं।
हम स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी के जीवन पर विचार करते हैं तो हमें उनके जीवन में वैदिक श्रेष्ठ गुणों सहित त्याग व तपस्या का अद्भुद संगम दृष्टिगोचर होता है। उन्होंने युवावस्था में गृहस्थ जीवन में न जाकर ऋषि दयानन्द के स्वप्नों की पूर्ति हेतु आर्ष ज्ञान के प्रचार व प्रसार के प्रमुख साधन गुरुकुलों के उन्नयन व विस्तार में अपना जीवन अर्पित करने का शुभ संकल्प लिया था और उसे यथासामर्थ्य प्रशंसनीय रीति से पूरा किया। उनका यह निर्णय ही उनको श्रेष्ठ एवं महान गुणों वाला बनाता है। इससे ऋषि दयानन्द के मिशन को अवर्णनीय लाभ हुआ है। यदि वह यह संकल्प और निर्णय न लेते और वह सब कार्य न करते जो उन्होंने किये हैं तो आज गुरुकुलों का जो विस्तार हुआ है, आर्यसमाज को संस्कृत भाषा सहित वैदिक धर्म एवं संस्कृति के ज्ञान से युक्त स्नातक मिले हैं, वह शायद न मिलते। अपने परिवारजनों से दूर रहकर एक आचार्य और संन्यासी का जीवन व्यतीत कर उन्होंने जीवन के अनेक सुखों का त्याग किया है। स्वामी जी का यह उन्हें कल्याण मार्ग का पथिक बनाता है। स्वामी जी के तैयार किये स्नातक इस समय देश विदेश में अनेक स्थानों पर फैले हुए हैं। वह सभी अपने कार्यों व प्रयत्नों से ऋषि दयानन्द के मन्तव्यों सहित गुरुकुलीय परम्पराओं व शिक्षा का विस्तार कर रहे हैं। गुरुकुलीय शिक्षा का महत्व जान लेने पर मनुष्य के मन में यही विचार आता है कि हमारी शिक्षा प्रणाली में गुरुकुल की सभी विशेषताओं का समावेश होना चाहिये। इस भावना के कारण गुरुकुल का स्नातक व विद्यार्थी अपने जीवन में गुरुकुलों की उन्नति देखकर प्रसन्न होता है व अपनी ओर से भी यथासम्भव इस कार्य में सहयोग व योगदान करता है। इसी प्रकार से ऋषि दयानन्द के महाप्रयाण के बाद से गुरुकुलों का विस्तार होता रहा है। हम यह भी अनुभव करते हैं कि आर्यसमाज संगठित वेद प्रचार के कार्य में कुछ शिथिल दिखाई देता है। इस पर विचार होना चाहिये और वेद प्रचार को उन स्थानों पर करना चाहिये जहां लोग वेद के सत्यस्वरूप से अपरिचित होने के कारण अवैदिक विचारों से ग्रस्त होकर मानवता के विनाश में लगे हुए हैं।
कल प्रातः स्वामी प्रणवानन्द जी के दर्शन व भेंट का सौभाग्य हमें प्राप्त हुआ। वह देहरादून गुरुकुल के आचार्य भूषण जी तथा श्री रूपेश जी के साथ हमारे निवास पर पधारे थे। कुछ समय वह हमारे पास रूके और उसके बाद चले गये। उन्होंने अपने आशीर्वादों की वर्षा हम पर व हमारे परिवार पर की। हम अत्यन्त भाग्यशाली है जो हमें आर्यसमाज के एक शीर्ष संन्यासी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। हम आशा करते हैं कि भविष्य में भी स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती का स्नेह एवं आशीर्वाद हमें प्राप्त रहेगा। हम स्वामी जी के स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन की परमात्मा से प्रार्थना करते हैं। उनके मार्गदर्शन में आर्यसमाज आगे बढ़ता रहे, आर्यसमाज में जो अन्तर्कलह है, वह दूर हो जाये, यह प्रयत्न हम सबको मिलकर करने चाहियें। जो नेता आर्यसमाज के सिद्धान्तों से दूर तथा समाज के लिये अनुपयोगी व हानिकारक हों, उन्हें पृथक कर देना चाहिये। इसी के साथ हम अपनी लेखनी को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत