कई लोग अपनी बेटी के हाथ का बना हुआ खाना नही खाते थे। यद्यपि इसे एक सामाजिक बुराई माना गया, परंतु इसके भी कोई न कोई अर्थ हैं। पिता अपनी जवान बेटी को अपना दायित्व बोध मानकर चलता है। वह जवान और सुयोग्य पुत्री को यथाशीघ्र अपने घर भेजने के लिए सुयोग्य वर की खोज करने लगता है। वर की खोज के इस दायित्वपरक अभियान में कोई प्रमाद न आने पाए, इसलिए पिता अपनी पुत्री के हाथ का बना भोजन ही नही खाता था। इसी दायित्व बोध ने कालांतर में बेटी को एक बोझ बना दिया। परंतु बोझ से पहले बेटी एक बोध है। बात यही विचारणीय है। बस इसीलिए वह वंदनीया है। जिन्होंने उसे एक बोझ माना उन्होंने कन्या की हत्या करने का पाप भी किया। परंतु यह पाप एक सद्परंपरा की हत्या करके कुपरंपरा को अपने लिए रूढ़ि बनाने की कुत्सित भावना से उत्पन्न हुआ। ज्वर शरीर का एक विकार है, या विकार की एक अवस्था है। हमें अपने लिए शरीर की अनिवार्यता का निर्धारण विकार की इस अवस्था से पूर्व की स्वस्थ अवस्था से करना होगा। विकार का तो उपचार करना चाहिए।
बेटी के प्रति हमारी दृष्टि और दृष्टिकोण में आए परिवर्तन को हम एक विकार मानें और पूर्व की अवस्था के लिए प्रयास करें, यही उत्तम होगा।
सरस्वती, अनुमति और राका
हमारे यहां प्राचीन काल में नारी को सरस्वती, अनुमति और राका के अर्थों में सम्मानित किया जाता था। निघण्टुकोश में सरस्वती वाणी तथा नदी के वाचक शब्दों में पठित है। इसीलिए इसे विद्या की देवी माना गया है। भारतवर्ष में विद्या का देवता नही होता अपितु विद्या की देवी होती है। वास्तव में विद्या की देवी सरस्वती की आराधना नारी जाति की आराधना है। क्योंकि सृष्टि का प्रारंभ करने के लिए नारी ने स्वयं को प्रस्तुत किया और अपनी कोख में पल रहे बच्चे को ज्ञान, कर्म और उपासना की त्रयी विद्या प्रदान की। मां की कोख मानो हमारे लिए त्रिवेणी बन गयी। इसी त्रिवेणी से वेद की गंगा निकली। आज का विज्ञान इस सत्य को भली प्रकार समझ रहा है और भारतीय मत की पुष्टि अपने डिण्डिम घोष के साथ कर रहा है कि माता बच्चे का निर्माण अपनी कोख में ही कर देती है,और बच्चा मूल संस्कार तो माता से प्राप्त करता है।
स्वामी दयानंद ने अपने वेदभाष्य में सरस्वती के अर्थ विदुषी स्त्री, प्रशस्तज्ञानयुक्ता, पत्नी, विदुषी शिक्षिता माता, प्रशस्त विद्या सुशिक्षा युक्त वांग्मती स्त्री, विज्ञान युक्ता अध्यापिका स्त्री आदि किये हैं। भारत तो ज्ञान की आभा में रत रहा है, इसलिए वह विद्या का उपासक रहा है। बस, यही कारण है संपूर्ण राष्ट्र विदुषी स्त्री, शिक्षिता माता से लेकर विज्ञान युक्ता अध्यापिका पर्यंत विद्यावती नारियों का सम्मान करता आया है। इसीलिए हम सरस्वती वंदना को नारी वंदना मानते हैं जहां सारा राष्ट्र नारी जाति का संकीर्तन कर रहा हो, और अपने हर मांगलिक कार्य का शुभारंभ सरस्वती वंदना से करता हो, उस देश में नारी उत्पीड़न कभी राष्ट्रधर्म नही हो सकता। यत्र नार्यंस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता का अभिप्राय यही है कि यदि राष्ट्र को देवों की वासस्थली बनाना है तो विद्यावती सन्नारियों का सम्मान करो, उनके गुणों का सम्मान करो, जिससे कि सारा देश ही नही अपितु संपूर्ण भूमंडल ही देवताओं की पुरी बन जाए। ऐसी सरस्वती नारी के लिए ऋग्वेद (1/3/10) में यज्ञं वष्टु अर्थात यज्ञ की कामना करे, अर्थात यज्ञ करने कराने वाली हो, प्रशस्तिम् अम्ब नस्कृधि (2/41/16) श्रेष्ठ मां बनकर श्रेष्ठ संतानों की प्रशस्ति कराए। सरस्वती देवनिदोनिर्बहय (1/6/13) देवनिंदा की प्रवृत्तियों को दूर करे, नास्तिकों (देवनिन्दकों) को आस्तिक बनाए। धीनाम् अवित्री अवतु (वही) ज्ञानों और कर्मों की संरक्षिका बनकर संतानों की रक्षा करे। शं सरस्वती सह धीभिरस्तु (19/11/2) श्रेष्ठ ज्ञानों और श्रेष्ठ कर्मों की शिक्षा देकर सबका कल्याण करे।
ऐसी कल्याणमयी सरस्वती नारियों को इस देश ने शक्ति स्वरूपा मानकर पूजा है। संसार में भारतवर्ष ही एकमात्र ऐसा देश है जो सरस्वती स्वरूपा नारियों की युगयुगों के लिए कामना करता है। क्योंकि यह सरस्वती की शक्ति का उपासक तो है ही साथ ही सरस्वती की शक्ति का रहस्य भी समझता है। इस देश में ऐसी सरस्वती स्वरूपा नारियां आज भी सम्मान प्राप्त करती हैं। जैसे ही किसी नारी में सरस्वती के गुण भासने लगते हैं वैसे ही समाज के लोग उसको देवी के रूप में मानने लगते हैं।
अब अनुमति और राका शब्दों पर आते हैं। अनुमति शब्द अनुपूर्वक मन् धातु से और राका शब्द दानार्थक रा धातु से सिद्घ होता है। निरूक्त में अनुमति और राका क्रमश: पूर्वा पौर्णमासी तथा उत्तरा पौर्णमासी के नाम हैं। किंतु नैरूक्तों में ये देवपत्नियां हैं। देव पत्नी का अर्थ विद्वान की पत्नी माना जाए। पति, परिवार, समाज, राष्ट्र आदि के प्रति अनुकूल है, और दान परायणा अथवा पूर्णिमा के समान उज्ज्वल गुणों वाली नारी राका है।
वेदों में अनुकूल चिंतन करने वाली नारी को अनुमति शब्द से प्रशंसित किया गया है। नारी का त्रिया हठ भी जग प्रसिद्घ है। यदि नारी हठीली है तो वह कुल घातिनी भी हो सकती है, इसलिए उसके हठीले स्वभाव को नही अपितु अनुकूल चिंतन को पूजनीया माना गया है। अनुकूल का अभिप्राय यहां पति की हर अच्छी बुरी बात का समर्थन करना नही है, अपितु पति परिवार, समाज, राष्ट्र, संसार और प्राणिमात्र के हित चिंतन के अनुकूल चलने से है, कुल मिलाकर नारी का अनुमति स्वरूप सर्व लोकल्याण कारक स्वरूप है।
गृहस्थाश्रम परिवार के सब सदस्यों का एक दूसरे के अनुकूल चलने का धर्म है। इस आश्रम की धुरी नारी है। सीता, द्रोपदी, गांधारी, कुन्ती, सावित्री आदि भारतीय सन्नारियों को आज तक लोग केवल इसीलिए सम्मान देते हैं कि वे सदा अपने पति, परिवार, राष्ट्र और समाज के अनुकूल चलीं। गांधारी ने अपने पति को सदा वही परामर्श दिया जो उनके हित में उचित था। यहां अनुकूल चलने का अर्थ यह नही है कि पति की इच्छा के अनुकूल चलना है-इच्छा तो अनुचित भी हो सकती है, इच्छा शोषण से भरी हुई भी हो सकती है-इसलिए इच्छा के अनुकूल नही अपितु धर्मानुकूल चलते हुए पति को भ्रष्ट होने से बचाना भी है। इसीलिए पत्नी का अर्थ रक्षिका भी है। नारी का यह आदर्श स्वरूप है।
सीता, द्रोपदी आदि का उदाहरण देने का अर्थ ये नही है कि आज भारत में ऐसी सन्नारियों की कमी है। कमी नही है, अपितु हमारा मानना तो ये है कि आज भी भारत में लाखों करोड़ों सन्नारियां सीता द्रोपदी आदि प्राचीन सन्नारियों के आदर्शों पर चलने वाली है। कमी हमारे समाचार पत्रों की, पत्रिकाओं की और मीडिया जगत की है कि उसने राखी सावंत को तो प्राथमिकता दी है, पर वास्तव में भारत में जीती जागती सीताओं और द्रोपदियों की खोज नही की। यहां सकारात्मक सज्जन शक्ति को उपेक्षित कर दुर्जन नकारात्मक शक्ति को प्रचारित प्रसारित करने का प्रचलन है, बस यही हमारे दुखों का कारण है। यदि समाचार पत्र पत्रिकाएं आज की आदर्श माताओं को और बहनों के विषय में जानकारी प्रसारित करनी आरंभ कर दें, तो समाज में नारी के प्रति नकारात्मकता का जो परिवेश बना हुआ है, उससे हमें मुक्ति मिल सकती है। नारी पति के लिए सुख शांति की आधार है। ऋगवेद (2/32/4) में आया है-सहस्रपोषं सुभगे रराणा-अर्थात हे सौ भाग्ययुक्त स्त्री! उत्तम सुख देने वाली होती हुई हम लोगों के लिए असंख्य प्रकार से पुष्टि को दो।
सचमुच यदि सुलक्षणा राका विदुषी स्त्री श्रेष्ठ विद्वान जन की पत्नी हो तो धन की और सुख शांति की सब प्रकार से उपलब्धि हो। महर्षि दयानंद का ऋण नारी जाति पर असीम है, उन्होंने वेद मंत्रों की ऐसी व्याख्याएं कीं कि उससे नारी जाति के प्रति समाज में जिस प्रकार उपेक्षा और अपमान का भाव समाहित हो गया था, उसे दूर करने में पर्याप्त सीमा तक सफलता मिली। लोगों को अपनी संस्कृति की पावनता और उच्चता का पता चला।
वेदों में नारी को सिनीवाली (महर्षि दयानंद जी महाराज ने इसका अर्थ प्रेमबद्घ तथा वाली का अर्थ बलकारिणी किया है) कुहू (अर्थात जो चाहे कहीं भी हो घर में यज्ञ अवश्य करती है) जैसी आदरसूचक संज्ञाओं से भी संबोधित किया गया है। इसी प्रकार इडा, यमी, भारती, उर्वशी, गौरी, सरण्यू शची, पृथिवी आदि देवियां भी वेदों में वर्णित हैं, ये सारी देवियां भी नारी अर्थ को प्रकट करती हैं।
यदि भारत में नारी को तिरस्कृत किया जाता तो इन्द्र के साथ इन्द्राणी, महादेव के साथ पार्वती, राम के साथ सीता का उल्लेख कदापि नही होता। राम का नाम भारत में बड़ी श्रद्घा से लिया जाता है, लेकिन उनके नाम से पहले लोग सीता राम कहकर सीता माता को सम्मानित करते हैं। इसी प्रकार राधा (यद्यपि कृष्ण की पत्नी रूक्मिणी है, राधा से उनका कोई संबंध नही रहा, पर फिर भी यहां प्रसंगवश यह कहा जा रहा है) को कृष्ण से पहले रखा जाता है।
आज भी विवाहों के निमंत्रण पत्रों में हम श्रीमति…एवं श्री…इस प्रकार पत्र की भाषा का प्रारंभ कर नारी को निमंत्रण पत्र में भ्ी पहला स्थान देते हैं।
गृहस्थी की आधार स्तंभ नारी के प्रति भारतीय संस्कृति ने जो प्रेम और सम्मान भाव प्रकट किया है, सचमुच उस पर चिंतन और अनुसंधान करने की आवश्यकता है। रामचरित उपाध्याय ने नारी के प्रति भारतीय संस्कृति के प्रेम और सम्मानसूचक व्यवहार के दृष्टिगत ही तो लिखा था-
अबला कहते हैं अर्द्घांगिनी को, नीच कहे मूढ हैं।
कुछ सोचिए तो दंपत्ति शब्दार्थ कैसा गूढ़ है।।
संबंध अन्योन्याश्रय नरों को नारियों के साथ है।
पति लोकगति पहलोकगति कुल कामिनी के हाथ है।।
इस प्रकार उपाध्याय जी ने तो नारी को अबला कहना भी निषिद्घ कर दिया है। वह दम्पत्ती शब्द की गूढ़ता को इंगित करते हैं और यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि नारी को पत्नी रूप में पति से अलग करके देखा जाना भी मूर्खता है। इसीलिए वह आगे लिखते हैं-
पत्नी अलौकिक क्षेत्र है सुत रत्न है उसमें भरे।
अति नीच पति वह है न क्यों जो भर्त्सना उसकी करे।
गौरीश कैसे कर रहे हैं देखिए उस कर्म को।
निगमाताओं ने है कहा पति के लिए जिस धर्म को।।
डा. राधाकृष्णन ने भारतीय संस्कृति में पति पत्नी के सृजनात्मक प्रेम को एक दूसरे के लिए पूरक माना है। वह कहते हैं कि पति पत्नी पक्के और सच्चे साथी हैं, वे दोनों धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पदार्थों की प्राप्ति के लिए सामूहिक प्रयत्न करते हैं। इस प्रकार नारी का भारतीय संस्कृति मधुर संकीर्तन कर रही है, हर स्थान पर उसे सम्मानित किया गया है।
भारत महान क्यों था
भारत की महानता के गुण संपूर्ण विश्व गाता था भारत की उस महानता का रहस्य यही था कि यहां के पुरूष समाज की मान्यता यही थी कि ‘यत्र नार्यंस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।’ तब हमारा चिंतन नारी गुणों का सम्मान करने में समर्पित होता था। तुलसीदास जी ने भी इसी बात को दृष्टिगत रखते हुए कहा है-
जिस बिनु देह नदी बिनु बारी।
तौसिअ नाथ पुरूष बिनु नारी।।
(अयो. 64/7)
अर्थात जैसे जीव के बिना शरीर और जल के बिना नदी व्यर्थ है, उसी प्रकार स्त्री के बिना पुरूष का जीवन व्यर्थ है। इसका अभिप्राय है कि तुलसीदास जी के काल तक भी वैदिक मान्यताओं के अनुरूप नारी का यथोचित सम्मान होता रहा।
पर कालांतर में हमने यत्र नार्यस्तु….वाली उपरोक्त पंक्ति या सूक्ति को विस्मृत कर दिया। आजकल उपदेशों में हम किसी उपदेशक को इस श्लोक की इसी पहली पंक्ति को ही उच्चारते सुनते हैं। मनुस्मृति (3 /56)में मनु महाराज इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में कहते हैं –
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रा फल: क्रिया:।।
अर्थात जहां नारी का सम्मान नही होता, वहां किये गये सारे कार्य और क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं।
आज के संदर्भ में मनु महाराज का यह कथन ही विचारणीय है। क्योंकि जिन लोगों ने नारी में आत्मा तक के अस्तित्व को नकारा या उन्हें पठन पाठन से वंचित रखने की पैर्रवी की या उन्हें केवल पैरों की जूती समझा उन लोगों के दुष्चिंतन के परिणाम स्वरूप आज संपूर्ण वैश्विक व्यवस्था में अशांति है, एक बैचेनी है और संबंधों में भयंकर तनाव है।
महाभारत उद्योग पर्व (38 /11) में महाभारत कार ने लिखा है-
पूज्यनीया महाभागा: पुण्याश्च गृहदीप्तम:।
स्त्रिय: श्रियो गृहस्योक्ता स्तस्माद रक्ष्या विशेषत:।।
अर्थात स्त्रियां घर की लक्ष्मी कही गयी हैं। ये अत्यंत सौभाग्यशालिनी, आदर के योग्य, पवित्र तथा घर की शोभा हैं। अत: इनकी विशेष रूप से रक्षा करनी चाहिए।
घर की लक्ष्मी की रक्षा प्रत्येक सदगृहस्थ करता है। स्त्री की रक्षा पुरूष वर्ग को अपना कर्त्तव्य समझ कर करनी चाहिए, परिवार से रक्षित होना उसका अधिकार है, उसकी दुर्बलता नही है। कुछ लोगों ने और आजकल नारी अधिकारों के पैरोकारों ने पिता, पति और पुत्र द्वारा अपनी आयु के विभिन्न पड़ावों में रक्षित नारी के प्रति वैदिक संस्कृति के इस दृष्टिकोण की यह कहकर आलोचना की है कि ऐसी रक्षा नारी की स्वतंत्रता को सीमित करने का पुरूष समाज का ओच्छा हथकंडा है और यह नारी जाति का शोषण करने का एक ढंग है।
ऐसी आलोचना करने वालों के कारण ही नारी ने स्वयं को रक्षित भाव से स्वतंत्र करने का रास्ता चुना है और परिणाम हम देख रहे हैं कि वह सर्वत्र असुरक्षित है। व्याख्याएं उल्टी सीधी करोगे तो परिणाम भी उल्टे सीधे ही आएंगे।
त्रिया चरित्र गंभीर है
एक सुलक्षणा नारी ससुराल पक्ष और मातृपक्ष दोनों में उचित सामंजस्य स्थापित करती है। इससे नारी की गंभीरता का पता चलता है। वह ससुराल पक्ष में मातृपक्ष की आलोचना को या तो हंसकर सह लेती है या मुस्कुराते हुए ससुराल पक्ष में मातृपक्ष के प्रति आयी शंका का समाधान दे देती है। इसी प्रकार मातृपक्ष में ससुराल पक्ष के प्रति करती है। जो लड़कियां ऐसा नही कर पातीं वो गृहस्थ धर्म को निभा नही पातीं। आजकल स्वतंत्रता के नाम पर नारी ससुराल और मातृपक्ष में बड़ी शीघ्रता से स्वयं ही दरार उत्पन्न कर देती हैं और कई प्रकरणों में तो ससुराल पक्ष पर झूठे मुकदमे तक दायर कर देती हैं। यह त्रिया चरित्र के विरूद्घ बात है। अपवादों पर चिंतन ना करें।
त्रिया चरित्र तो गंभीर होता है। तुलसीदास जी ने कहा है—
सत्य कहहि कवि नारि सुभाऊ।
सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ।।
निज प्रतिबिम्ब बरूक गहि जाई।
जानि न जाई नारि गति भाई।।
कवियों ने सत्य कहा है कि स्त्रियों का स्वभाव सब प्रकार से अज्ञेय, गंभीर और रहस्यमय होता है। चाहे कोई दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब पकड़ ले परंतु स्त्री के स्वभाव और आचरण को नही समझ सकता।
अज्ञानी लोगों ने तुलसी के इस कथन को नारी के प्रति दुर्भाव के रूप में लिया है। परंतु तुलसी का या भारतीय समाज का यह भाव नारी के प्रति दुर्भाव का नही अपितु सदभाव का सूचक है। तनिक एक उस गंभीर नारी के विषय में चिंतन करें जो पति और सास, पति और उसके पिता, उसके भाईयों और उसकी बहनों या उसके अन्य संबंधियों में परस्पर सुंदर सामंजस्य बनाकर चलती हैं और किसी से भी एक दूसरे की छोटी बात नही करती। ऐसी त्रिया का चरित्र रहस्यमयी तो होता ही है साथ ही आदरणीय भी होता है।
चुगलियों और निंदा में लगी रहने वाली नारियां कैसे अपना, अपने पडोस का और अपने पति के संबंधियों का जीवन कष्ट मय बना देती हैं उनके चरित्र और एक गंभीर नारी के चरित्र में तुलना करोगे तो ज्ञात हो जाएगा कि तुलसी ने उक्त चौपाई में कौन सी नारी की वंदना की है?
दोषपूर्ण व्याख्याओं ने नारी के प्रति हमारे दृष्टि कोण को दोषयुक्त किया है, अन्यथा भारतीय संस्कृति तो हर मोड़ पर नारी का संकीर्तन कर रही है।
थोड़ा सकारात्मक सोच के साथ इस संकीर्तन को सुनने की आवश्यता है। जैसे जैसे दोषपूर्ण व्याख्याओं के दुष्चक्र से हम निकलेंगे वैसे वैसे ही नारी के प्रति हमारे दृष्टिकोण में परिवर्तन आएगा, पर नारी स्वयं भी अपने दिव्य और वंदनीया स्वरूप को पहचाने यह देवी बने, फिल्मी हीरोइन नही।