क्या यह वही देश है….
आजादी मिलते ही ‘नवयुग’ के गीत गाये गये क्योंकि आजादी से पूर्व नवयुग का एक सपना हर भारतीय की दृष्टिï में तैर रहा था, हर छोटा बड़ा व्यक्ति बड़ी उत्सुकता से उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा था जिस दिन सचमुच गुलामी का जुआ उतरेगा और आजादी का उत्सव पूरा देश इस जुए के उतरने के क्षणों में मनाएगा। जुआ उतरा-उत्सव भी मनाया गया। चारों ओर नवयुग का नया गीत-संगीत गूंजने लगा। किसी ने अपने भवन का नाम नवयुग रखा, किसी ने अपने समाचार पत्र का नाम ‘नवयुग’ रखा, किसी ने अपने संस्थान का नाम ‘नवयुग’ रखा तो किसी ने मार्केट का नाम ‘नवयुग’ रखा। सबको बहुत अच्छा लगा। लगा कि ‘नवयुग’ के इस काल में शोषण, उत्पीड़न, बैर विरोध, अपराध सब छूमंतर हो जाएंगे और हम सचमुच एक नया सुनहरा संसार बना डालेंगे। पर जैसे वर-वधू विवाह से पूर्व नई दुनिया नये सपनों के साथ बसाने की कसमें खाया करते हैं और उधर चलने का प्रयास भी करते हैं, पर थोड़ी देर में ‘दुनिया का सच’ उनकी समझ में आ जाता है और वह भी हार थककर डोली के सुनहरे सपनों से निकलकर अर्थी के निराशापूर्ण कड़वे सच का शिकार होकर संसार से चले जाते हैं। युग युगों से मानव ‘डोली से अर्थी’ तक की कदमताल कर रहा है और वह समझ नही पाया है कि सच क्या है? बस यही हश्र हमारे ‘नवयुग’ का हुआ। हम ‘नवयुग’ नही बना पाए इसीलिए आज चारों ओर दगा ही दगा है, हर छुरे पर खून का दाग लगा है। इस इंसान को देखो, धरती की संतान को देखो, कितना है ये हाय कमीना, इसने लाखों का सुख छीना।
गाजियाबाद में एक ड्राइवर ने एक बिल्डर परिवार के सात लोगों की निर्मम हत्या कर दी है-22 मई की इस घटना से मानव के भीतर का दानव उभर कर बाहर आया है-सबको पता चल गया है कि हम ‘नवयुग’ में नही अपितु पत्थर युग में जी रहे हैं। पर पत्थर दिल इंसान की पत्थर युगीन हरकतों को देखकर पत्थर युग भी लजा गया होगा। इसे देखकर सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जी की ‘दिल्ली’ नामक कविता की ये पंक्तियां याद आ रही हैं :-
क्या यह वही देश है
भीमार्जुन आदि का कीर्त्तिक्षेत्र,
चिरकुमार भीष्म की पताका ब्रह्मïचर्य दीप्त,
उड़ती है आज भी जहां के वायुमण्डल में
उज्ज्वल अधीर और चिरनवीन?
श्रीमुख से श्रीकृष्ण के सुना था जहां भारत ने
गीता गीत सिंहनाद
मर्मवाणी जीवन संग्राम की
सार्थक समन्वय ज्ञान कर्म भक्ति योग का?
हिंसा और जघन्य अपराधों में लगे दानव को देखकर नही लगता कि ये देश नैतिक व सामाजिक व्यवस्था के माध्यम से मोक्षाभिलाषी समाज बनाने के लिए मनुस्मृति लिखने वाले मनु महाराज का, दर्शनों के रचयिता गौतम, कणाद, कपिल, पतंजलि आदि का, स्मृतियों के माध्यम से वेद व्यवस्था को प्रचारित प्रसारित करने वाले महान ऋषियों का, माधान्ता से लेकर युधिष्ठर पर्यन्त चक्रवर्ती साम्राज्य स्थापित कर विश्व में भारत की विजय दुन्दुभि बजाने वाले सम्राटों का, महात्मा विदुर, महामति चाणक्य जैसे राजनीति के प्रकाण्ड पंडितों का, और उन अनेकों देशभक्त क्रांतिकारियों, नरम व गरम दल के देशभक्त स्वतंत्रता सैनानियों का देश है, जिन्होंने भारत को आजाद कराके नवयुग का सपना संजोया था। किसी भी देश के महापुरूष उस देश के आदर्श होते हैं, उन आदर्श महापुरूषों से वह देश अनुप्राणित होता है और आगे बढ़ने का हौंसला प्राप्त करता है। हर देश अपने आदर्श महापुरूषों के बताए रास्ते का अनुगमन और अनुकरण करता है, पर भारत में रहने वाले हम लोगों ने अपने महापुरूषों से कोई शिक्षा नही ली या उन्हें महापुरूष ही नही माना। हमने हर महापुरूष के साथ छल किया, उसकी स्मृति में हमने श्रद्घा के नही अपितु औपचारिकता के दो फूल चढ़ाए और चल दिये। उनके जीवनादर्शों पर हमने अतिक्रमण कर अपनी अपनी दुकानें बनायीं और अपना अपना माल बेचने लगे। हमने कांग्रेस को गांधी मार्का बताया पर उस मार्का की पैकिंग में सामान अपना बेचा, इसी प्रकार लोहिया, सावरकर सुभाष चंद्र बोस आदि के साथ हुआ। इस प्रकार हम आदर्श महापुरूषों की स्मृतियों पर बुल्डोजर चलाते हुए, उन्हें रौंदते रहे और देश का निर्माण करते रहे। यह अलग बात है कि हमारे छल प्रपंचों से न देश बना और न समाज बना। हम अपना चेहरा विकृत बना बैठे। आज उसी की परिणति है, गाजियाबाद का नृशंस हत्याकांड। हमने नाटककारों की पूजा की जो केवल अभिनय करते थे उन अभिनेताओं को पूजा और नेताओं को भुला दिया। हमने अपसंस्कृति के नाम पर परोसी गयी ‘पराई सोच’ को पूजा और भारतीयता को भुला दिया। हमने निर्मम और नृशंस बनी व्यवस्था और उसके कानूनों को सम्मान दिया और उसे पूजा। हमने विद्यालयों में यह बताना छोड़ दिया कि विमान की खोज ऋषि भारद्वाज ने की थी, हमने बच्चों को पढ़ाया कि विमान की खोज राइट ब्रदर्स ने की थी। हमने विद्यालयों में किसी फिल्म के किसी दृश्य को दिखाया या किसी गीत को सुनाया और बच्चों की आईक्यू टैस्ट के लिए उनसे पूछा कि बताओ ये दृश्य किसका है या ये गीत किस फिल्म का है? इस प्रकार अभिनय का झूठ यहां सच बनाकर पूजा जाने लगा और सच को कूड़ेदान में फेंक दिया। क्योंकि ‘सच’ के पास फिल्मी हस्तियों का सा पैसा नही था जो सरकारी भोंपू टीवी और मीडिया को वो खरीद सकता, इसलिए सच की कब्र खोदकर उसे दबाया गया। फलस्वरूप फिल्मों की अश्लीलता, अभद्रता, हिंसा और आपराधिक कुसंस्कृति का इंजेक्शन इस देश की युवा पीढ़ी की नसों में दिया गया। उसी सोच ने ‘गाजियाबाद को बदनाम किया है। ऐसी घटनाओं में सचमुच हमारे आदर्शों का हमारी सोच का, हमारी दिशा का और हमारे चिंतन का पता चला करता है और यदि यह सच है तो गाजियाबाद की घटना ने हमें बता दिया है कि हम क्या हैं? और हम कैसे समाज की रचना कर रहे हैं? सत्य के पुजारी इस देश में यहां आर्यों को विदेशी बताया गया-ताजमहल को सवाई राजा जय सिंह के पूर्वजों की संपत्ति न बताकर शाहजहां के झूठ महल (ताजमहल) के रूप में पूजा गया, कुतुबमीनार को वराह मिहिर की वेधशाला न बताकर कुतुबुद्दीन द्वारा बनायी गयी बताया गया। टेलीफोन का आविष्कारक ग्राहम बेल को बताया गया जबकि जगदीश चंद्र बोस ने इसका आविष्कार किया था, धरती के ग्रह और गतिशील होने की जानकारी हमें महर्षि भास्कराचार्य जी से मिली थी, लेकिन इसका श्रेय गैलिलीयो को दिया गया, बिजली का आविष्कार महर्षि अगस्त्य ने किया था लेकिन इसका श्रेय बैंजामिन को दिया गया, स्वयं ईसाई जगत जिस ईसा मसीह के अस्तित्व को लेकर संशय में है, उसे काल्पनिक न मानकर सच माना गया और रामायण महाभारत को या उसके पात्रों को, यहां काल्पनिक माना गया। अपने सच को सच कहना जिस जाति में या देश में शर्म की बात माना जाने लगता है, उस जाति या देश की जनता स्वाभिमान के स्थान पर आत्महीनता के भावों से भर जाया करती है और देर सवेर उस जाति या देश के समाज में गाजियाबाद जैसी कहानियां जन्म लेने लगती हैं। देश की युवा पीढ़ी को यहां कलम चढ़ी संस्कृति पढ़ायी जा रही है। अपनी चाल भूलकर दूसरों की चाल का अनुकरण किया जा रहा है। इसलिए सामन्ती व्यवस्था नये परिवेश में नये ढंग से जन्म ले चुकी है। अपराधी और पुलिस, पुलिस और नेता, तथा नेता और अपराधी जहां मिलकर कार्य कर रहे हों उस देश में कानून व्यवस्था की स्थिति ढीली होनी स्वाभाविक है। अपराधी को यहां अपराध करने पर अपराध बोध नही होता क्योंकि उसे व्यवस्था का ही कहीं संरक्षण प्राप्त होता है। यही कारण है कि अपराधी को देश का समाज भी अपराधी न मानकर उसे काम निकलवाने के लिए प्रयोग कर रहा है। अपराधी राजनीतिक पकड़ बनाता है और लोगों के काम अधिकारियों से कराता है। अपराधी कई बार अधिकारियों से डरा धमकाकर काम कराता है तो लोगों को अच्छा लगता है क्योंकि कई अधिकारी भी इतने निकम्मे और हराम होते हैं कि वो बिना गालियों के काम ही नही करते। देवभाषा (बिना गालियों की भाषा-प्रेम की भाषा) को कोई सुनता ही नही यहां तो दैत्यभाषा (गाली गलौच) को सुना जाता है। जब ऐसे निकम्मे लोगों को कानून और व्यवस्था में लगाया जाता है तो अपराधी अपराध करता है, उसका मनोबल बढ़ता है और उसकी हिंसा में क्रूरता, निर्ममता और जघन्यता आ जाती है। गाजियाबाद में हुई घटना में मरे 7 लोगों को हम अपनी विनम्र श्रद्घांजलि देते है, परंतु साथ ही प्रदेश सरकार और केन्द्र सरकार से अपेक्षा करते हैं कि अराजकता की ओर बढ़ रहे समाज को शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का पाठ पढ़ाने के लिए भारतीयता को अपनाने पर बल दिया जाए और पुलिस अधिकारी नेता और अपराधियों के बीच बढ़ रही प्रेम की पीगों को खत्म कराया जाए वरना आपत्ति को संभाला नही जा सकेगा।