एशिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति भारत की मौजूदा विकास दर 4.5 फ़ीसदी है जो छह साल में सबसे निचले स्तर पर है. साल 2019 के आखिरी महीने में वित्त मंत्री ने संसद में बताया कि भारत की अर्थव्यवस्था भले ही सुस्त है लेकिन मंदी का ख़तरा नहीं है. साल 2019 ख़त्म हो गया और 2020 आ गया है, ऐसे में वो कौन सी चुनौतियां हैं जो नए साल में सरकार के सामने होंगी? अर्थशास्त्रियों का मानना है कि अर्थव्यवस्था का जैसा हाल है उससे सामाजिक और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ेगी.
भारत के लिए फ़िलहाल सुस्त अर्थव्यवस्था, बढ़ती बेरोज़गारी और बड़ा वित्तीय घाटा चिंता का विषय हैं. जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण साल 2020 में बजट पेश करेंगी तो उन्हें नई नीतियां बनाने या पुरानी नीतियों को वापस लाने में इन चीज़ों का ख़याल भी रखना होगा.
सुस्त विकास दर
वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए यह साल काफ़ी चुनौती भरा रहा और इसका गहरा असर भारत की अर्थव्यवस्था पर भी दिखा. इस तिमाही में विकास दर 4.5 फ़ीसदी तक गिर गई. ये गिरावट लगातार छठी तिमाही में और बाज़ार की उम्मीदों के उलट है.
भारत की अर्थव्यवस्था की विकास दर छह साल में सबसे निचले स्तर पर है. निजी खपत और निर्यात के साथ निवेश पर भी बुरा असर पड़ा है. घरेलू खपत भी चिंता का विषय रही जिसका भारत की जीडीपी में हिस्सा 60 फ़ीसदी है.
साल 2019 में सेंट्रल बैंक और आरबीआई ने पांच बार ब्याज़ दरें कम की, लेकिन इस असर का दिखना अब भी बाकी है. हालांकि सरकार ने कुछ कदम ज़रूर उठाए हैं लेकिन जानकारों का मानना है कि ये पर्याप्त नहीं हैं.
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बजट 2020: मोदी सरकार क्या आयकर में राहत दे पाएगी? अर्थव्यवस्था में सुस्ती के बीच अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने भी संकेत दिए हैं कि साल 2020 में भारत की अनुमानित विकास दर को वो कम कर सकते हैं.
आईएमएफ़ ने सुझाव दिया है कि आरबीआई ब्याज़ दर कम कर लोगों को पैसे दे लेकिन साथ ही मंदी के दबाव पर भी नज़र बनाए रखे.
अर्थशास्त्री विवेक कौल कहते हैं कि ब्याज़ दर कम करने की संभावना है लेकिन इसका प्रवाह थोड़ा पेचीदा है. बैंकों को ब्याज़ दर में कटौती का लाभ ग्राहकों को देना था लेकिन जैसा आरबीआई ने सोचा था वैसा हुआ नहीं.
आईएमएफ़ के एशिया पैसिफिक डिपार्टमेंट के असिस्टेंट डायरेक्टर रानिल सलगादो ने कहा, “जवाबदेही (एकाउंटेबिलिटी) में इज़ाफ़ा करने के उपायों के साथ-साथ उन्हें ज़्यादा कमर्शियल आधारित निर्णय लेने की दिशा में अग्रसर बनाए जाने की ज़रूरत है.”
प्रोफेसर अरुण कुमार का कहना है कि सरकार पहले ही लोन की ब्याज़ दरें और कॉरपोरेट टैक्स में कमी करने जैसे फ़ैसले ले चुकी है लेकिन ये पर्याप्त नहीं हैं.उन्होंने कहा, “आरबीआई की कटौतियों के बावजूद निवेश कम हुआ है. कमर्शियल क्रेडिट में 88 फ़ीसदी की गिरावट हुई. ये बड़ी गिरावट है और लोग लोन भी कम ले रहे हैं.”
उनका मानना है कि बाहरी निवेश पाने की कोशिश की जगह घरेलू बाज़ार में निवेश बढ़ाने की ज़रूरत है. वो कहते हैं, ”देश के कुल निवेश में बाहरी निवेश पांच फ़ीसदी से भी कम है. इसलिए बाहर से निवेश पाने की कोशिशों के बजाय हमें घरेलू बाज़ार में निवेश बढ़ाने की ज़रूरत है.”
इस चिंता से निपटने के लिए सरकार ने 100 लाख करोड़ रुपये ग्रामीण इलाकों में इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स में खर्च करने की घोषणा की है. हालांकि यह सवाल अब भी बरकरार है कि यह कितना कारगर साबित होगा और साल 2020 के बजट में वित्त मंत्री कौन से नए फ़ायदों की घोषणा करती ।
बेरोज़गारी से लड़ाई
मई 2019 में सरकार ने माना कि भारत में बेरोज़गारी दर 45 साल में सबसे ऊंचे स्तर पर है और जुलाई 2017 से जून 2018 के बीच बेरोजगारी 6.1 फ़ीसदी थी. 7.8 फ़ीसदी शहरी युवाओं के पास नौकरी नहीं थी.
अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार कहते हैं, ”जब अर्थव्यवस्था मुश्किल में है तब राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर भी बदलाव दिखते हैं. बेरोज़गारी का मुद्दा राज्यों के चुनावों में राजनीतिक असर दिखाएगा.”
उनका मानना है कि भारत के असंगठित क्षेत्र पर आर्थिक सुस्ती का सबसे बुरा असर पड़ा है, जिसमें 94 फ़ीसदी रोज़गार के अवसर पैदा होते हैं और देश की अर्थव्यवस्था में 45 फ़ीसदी का योगदान होता है.
बड़ी चुनौती यह भी है कि असंगठित क्षेत्र के आंकड़े सरकारी रिपोर्ट में शामिल नहीं किए जाते. आंकड़े पांच साल में आते हैं और अंदाज़ा लगा लिया जाता है कि असंगठित क्षेत्र भी उसी तरह विकसित हो रहा है जैसे संगठित क्षेत्र.
प्रो. अरुण कुमार कहते हैं कि सरकार जो आधिकारिक आंकड़े पेश कर रही है, भारत की अर्थव्यवस्था उससे भी नीचे है. नोटबंदी के तीन साल बाद भी इसका असर बरकरार है और कई क्षेत्रों में नौकरियां गई हैं. सरकार की ओर से उठाए गए कदम अर्थव्यवस्था को उबारने में कारगर नहीं रहे.
अर्थशास्त्री विवेक कौल कहते हैं, ”अगर आप आर्थिक विकास के इतिहास पर नज़र डालें तो अधिकतर देश अपने वर्क फोर्स को खेती से कंस्ट्रक्शन की ओर ले जा रहे हैं. क्योंकि कंस्ट्रक्शन में कम स्किल वाली कई नौकरियां निकलती हैं. भारत में ऐसा नहीं हो रहा, क्योंकि भारत में रियल एस्टेट सेक्टर बेहद बिखरा हुआ है.”
10 सालों में कंस्ट्रक्शन 12.8 फ़ीसदी से घटकर 5.7 फ़ीसदी हो गया है और इसकी विकास दर 13.4 से घटकर 6.5 फ़ीसदी हो गई है.अधिकतर अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि साल 2020 में सरकार को पब्लिक निवेश बढ़ाना चाहिए और ग्रामीण इन्फ्रास्ट्रक्चर और खेती में पैसे लगाने चाहिए, निवेश से नौकरियों के मौके बढ़ेंगे।
मंदी की मार ?
खाने के सामानों में मंदी की दर छह साल में सबसे अधिक है. 16 दिसंबर को जारी वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, मार्च से अब तक प्याज़ की कीमतों में 400 फ़ीसदी का उछाल आया है. सब्ज़ियों की कीमतों में आए उछाल से नवंबर में मंदी की दर 5.54 फ़ीसदी तक पहुंच गई जो अक्टूबर में 4.62 फ़ीसदी थी. तीन साल में यह सबसे शीर्ष स्तर पर थी.
विशेषज्ञों का मानना है कि खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ने में मानसूम में देरी और सूखे जैसी समस्याएं भी जिम्मेदार हैं, जिनकी वजह से सप्लाई का पैटर्न बिगड़ता है. साल 2019 में मानसून सामान्य नहीं रहा, जिसकी वजह से कीमतें कम हो सकती थीं. इस साल भी भारी बारिश हुई जो दो दशक में सबसे अधिक थी जिससे गर्मियों में होने वाली फ़सलें खराब हो गईं और सर्दियों में होने वाली फ़सलों में देरी हुई.
अर्थशास्त्रियों का मानना है कि आने वाले कुछ महीनों में जब रबी की फसल बाज़ार में आएगी तब स्थिति सुधर सकती है और दाम गिर सकते हैं.
उनका कहना है कि मंदी पर पैनी नज़र बनाए रखना ज़रूरी होगा क्योंकि खाने की चीज़ों की कीमतों में बदलाव का सीधा असर आरबीआई की मॉनिटरी पॉलिसी पर होगा जिससे रेट कट होने की संभावनाएं बनेंगी और ग्राहक खर्च अपना खर्च बढ़ाएंगे. कई विशेषज्ञ इस बात पर भी हैरानी जताते हैं कि सेंट्रल बैंक ने सुस्ती के बावजूद दिसंबर में अपनी ब्याज़ दरें कम नहीं कीं. जबकि आरबीआई ने माना था कि उनके पास दरें कम करने की संभावनाएं थी।
वित्तीय घाटा
नए साल में सरकार के सामने मौजूदा वित्तीय घाटे से निपटना भी चुनौती होगी. साल 2019 में टैक्स उम्मीद से कम मिला.लेखा महानियंत्रक की ओर से जारी किए गए आँकड़ों के मुताबिक अक्टूबर 2019 तक भारत का वित्तीय घाटा 7.2 ट्रिलियन रुपए रहने का अनुमान था. कॉरपोरेट टैक्स कम करने के सरकार के हालिया फ़ैसले से भी टैक्स से होनेवाली कमाई पर असर पड़ेगा जो करीब 1.45 लाख करोड़ रुपए तक हो सकती थी.
आरबीआई के अगस्त 2019 में 1.76 ट्रिलियन रुपए सरकारी ख़ज़ाने में जमा कराने के बावजूद सरकार को घाटा हुआ. इसका मतलब साफ है कि सरकार को आमदनी बढ़ाने की ज़रूरत है.
विशेषज्ञों का मानना है कि आमदीन बढ़ाने का एक तरीक़ा ये हो सकता है कि सरकार टैक्स स्ट्रक्चर की समीक्षा करे. प्रो. अरुण कुमार का सुझाव है कि ‘अमीरों पर टैक्स बढ़ाया जाए.’ इसके साथ ही दूसरे भी सुझाव हैं जिनमें अमीरों पर टैक्स बढ़ाने और कॉरपोरेट टैक्स की तरह पर्सनल इनकम पर टैक्स कम करने पर विचार किया जाए. प्रोफ़ेसर कुमार कहते हैं कि इससे आने वाले पैसे को ग्रामीण क्षेत्रों में लगाया जाए जिससे किसानों को मदद मिलेगी, विकास दर बढ़ेगी और रोज़गार के नए अवसर बनेंगे.
जीएसटी पर सरकार ने दरें नहीं बढ़ाईं. हाल में एनडीटीवी को दिए एक इंटरव्यू में पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने कहा, ”ये नहीं हो सकता कि आप एक तरफ जीएसटी भी नहीं बढ़ाएँ, और दूसरी तरफ़ इनकम टैक्स कम करने पर विचार करें. जीएसटी की दर बढ़ाने का सीधा असर खपत पर पड़ेगा.”विवेक कौल कहते हैं, ”लोगों की ज़ेब में अधिक पैसे पहुंचाने का सीधा फॉर्मूला है पर्सनल इनकम टैक्स की दरों में कटौती करना.” लेकिन वो यह भी चेताते हैं कि आयकर विभाग को टैक्स जुटाने के दबाव में नागरिकों को प्रताड़ित नहीं करना चाहिए. वो सरकार को विनिवेश योजना में शीघ्रता लाने का भी सुझाव देते हैं. एयर इंडिया और बीपीसीएल में विनिवेश की योजना में देरी हुई है जिससे सरकार को 40 हज़ार करोड़ रुपए का नुकसान हो सकता है.
विवेक कौल मानते हैं कि यह ज़रूरी है कि सरकार ऐसे सरकारी उपक्रमों को बेच दे जिनका प्रदर्शन कमज़ोर है. वो कहते हैं, ”ये पीएसयू पैसे तो ले रहे हैं लेकिन पर्याप्त रिटर्न नहीं मिल रहा. सरकार को यह भी तय करना पड़ेगा कि इन पीएसयू के दायरे में कितनी ज़मीन है और उससे अतिरिक्त आमदनी के तरीके क्या हो सकते हैं.”
साल 2018 तक भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था रहा है, जिसमें साल 2016 में विकास की दर 9.4 फ़ीसदी तक थी. हालांकि अब अर्थशास्त्रियों को लगता है कि 2020 उतना बेहतर नहीं दिख रहा क्योंकि जो भी कदम उठाए गए हैं उनका असर कम होगा. विशेषज्ञ मानते हैं कि साल 2016 में हुई नोटबंदी का असर अब भी अर्थव्यवस्था पर है और उसके बाद जीएसटी लागू करना और दुनिया भर में आर्थिक विकास के माहौल से भी मदद नहीं मिली.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 20 दिसंबर को एसोसिएटेड चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री की कॉन्फ्रेंस में कहा कि सरकार ने भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का काम किया है और 2025 तक देश को पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने का टारगेट पूरा करने की मज़बूत नींव रखी है.
लेकिन क्या भारत अब भी ये टारगेट पूरा करने की राह पर है?विवेक कौल कहते हैं, ”सरकार को सबसे पहले ये मानना पड़ेगा कि समस्या है, तभी चीज़ें सुधर सकती हैं.”साल 2020 के बजट पर भी बहुत सी चीज़ें निर्भर करती हैं कि आगे क्या होने वाला है.
(बीबीसी से साभार )
मुख्य संपादक, उगता भारत