ओ३म्
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हम इस संसार में उत्पन्न हुए हैं व वर्षों से रह रहे हैं। जन्म से पूर्व हम कहां थे, क्या करते थे, हम कुछ नहीं जानते हैं? इस जन्म से पूर्व की सभी बातों को हम भूल चुके हैं। ऐसा होना स्वाभाविक ही है। हम बहुत सी बातों को जो कुछ मिनट या घंटों पहले हमारे जीवन में घटित होती हैं, उन्हें भी साथ साथ भूलते जाते हैं। इसके कई उदाहरण दिये जा सकते हैं। हमने एक या आधा घंटे पहले किसी व्यक्ति से जो बातें की हैं उसको हम ठीक उसी क्रम में नहीं दोहरा सकते। उसका सार व विषय वस्तु तो हमें स्मरण रहती है परन्तु अपने व दूसरों के शब्दों व वाक्यों का क्रम हमें स्मरण नहीं रहता। हमने कल प्रातः से रात्रि तक जो-जो काम किये उनका क्रम भी हम भूल जाते हैं। कल हम किस-किस से मिले, किस रंग के वस्त्र धारण किये थे, किनके फोन आये व किनको फोन किये, उनसे कितनी देर क्या बातें की, क्या-क्या पदार्थ भोजन व प्रातराश में खाये, कहां-कहां गये, हमने क्या-क्या दृश्य देखे, इनमें से अधिकांश बातें हम भूल जाते हैं। इसी प्रकार अपने इस जीवन की भी अधिकांश बातों जो महीनों व वर्षों पूर्व घटित हुई है जिन्हें हम स्वीकार करते हैं परन्तु उनका पूरा पूरा विवरण हम भूल जाते हैं। इसी प्रकार हमें अपने पूर्वजन्मों की बातें स्मरण नहीं हैं। इस स्थिति में हम यह नहीं मान सकते कि हमारा पूर्वजन्म था ही नहीं।
अपने पूर्वजन्म में हम मनुष्य योनि में भी रहे हो सकते हैं और किसी अन्य प्राणी योनि जैसी की हम संसार में गाय, बैल, कुत्ता, बिल्ली व अनेक प्रकार के पक्षियों आदि की योनियां हैं। यदि हम पशु रहे होंगे तो हमें स्मरण होना सम्भव नहीं है। यदि मनुष्य रहे होंगे तो मृत्यु ने हमारे पुराने शरीर जिसमें हमारे शरीर के मन, मस्तिष्क, बुद्धि, चित्त आदि करण व अवयव थे, वह जल कर नष्ट हो गये। अतः पुराने शरीर व उसके करणों में विद्यमान स्मृतियों को स्मरण करना ज्ञान-विज्ञान व बुद्धि के आधार पर सम्भव नहीं हो सकता। पूर्वजन्मों की स्मृतियों का स्मरण न रहने से हमें लाभ ही है। यदि हमें वह सभी बातें स्मरण हांे तो फिर हम इस जन्म को सुचारू व सुगमता से व्यतीत नहीं कर सकते। इस जन्म में भी हमारे जो दुःखद क्षण बीते होते हैं उनकी स्मृतियां हमें जीवन भर दुःख देती हैं। अतः यदि हमें अपने पूर्वजन्मों की स्मृतियां रहती तो हम उनमें ही खोये रहते और दुःखी होते रहते जिससे हमारा यह जन्म व इसके बाद के भी जन्म कष्टप्रद होते। ईश्वर की यह महती कृपा है कि उसने हमें पुरानी बातों की स्मृतियां न होने दी अन्यथा हम ईश्वर से इसकी शिकायत करते। वर्तमान जीवन में हम पुरानी बातों को भूल कर नये तरह से जीवन व्यतीत करते हैं। हमारे पास माता-पिता व आचार्यों की शिक्षाओं के साथ ईश्वर प्रदत्त वेदज्ञान एवं ऋषियों के बनाये सत्य ज्ञान की पुस्तकें उपनिषद, दर्शन, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं आर्य विद्वानों के वेदभाष्य आदि अनेकानेक ग्रन्थ हैं। जिनसे हमारा मार्गदर्शन होता है और हमारा जीवन सुखपूर्वक उन्नति करते हुए व्यतीत होता है। हम एक साधारण बालक से महापुरुष तक बन सकते हैं। यह सब हमारी बुद्धि व ज्ञान सहित हमारे सत्कर्मों एवं पुरुषार्थ पर निर्भर करता है। अतः हम ईश्वर के ऋणी हैं। हमें उसका प्रतिदिन अनेक बार धन्यवाद करना चाहिये। उस परमात्मा ने हमें जो मानव शरीर वा मानव जीवन तथा यह संसार बनाकर दिया है उसके लिये हम उसके ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकते।
यह संसार ईश्वरकृत रचना है। ईश्वर के अतिरिक्त संसार में ऐसी कोई शक्ति व सत्ता का अस्तित्व नहीं है जो संसार की रचना कर सके। बिना चेतन सत्ता, जिसमें बुद्धि और कर्म करने की शक्ति हो, वही बुद्धिपूर्वक, प्रयोजन सिद्ध करने वाली व विलक्षण रचना को कर सकती है। सृष्टि स्वतः बन गई, यह विद्वानों का सिद्धान्त नहीं है। मनुष्य स्वयं अपने जन्म व पालन आदि अस्तित्व के लिये अपने माता-पिता तथा आचार्यों एवं मित्रादि सहित परमात्मा पर ही निर्भर है। यदि परमात्मा जीवात्मा को मनुष्य आदि योनियों में से किसी एक में जन्म न दे, तो वह स्वतः व स्वयं जन्म को प्राप्त नहीं हो सकती। हमने यह जो बातें लिखी हैं उस पर हमारे दर्शनकारों ने विचार व चिन्तन किया है। उसी का निष्कर्ष है कि मनुष्य सृष्टि की रचना नहीं कर सकता और ईश्वर के अतिरिक्त संसार में सृष्टि-रचना करने में समर्थ अन्य कोई सत्ता है ही नहीं। ईश्वर के अस्तित्व को भी हमारे दर्शनकारों ने युक्ति एवं तर्क से सिद्ध किया है। कार्य-कारण के सिद्धान्त के आधार पर इस सृष्टि का निमित्त कारण परमात्मा ही सिद्ध होता है। प्रकृति सृष्टि का उपादान कारण सिद्ध होती है। ईश्वर के अस्तित्व का एक प्रमाण सभी प्राणी प्रतिदिन अनुभव करते हैं। वह यह है कि हमारी आत्मा के भीतर सत्कर्मों परोपकार व पुण्य कर्मों को करने में जो प्रेरणा, उत्साह, निःशंकता होती है और अशुभ व पाप कर्मों को करने में जो भय, शंका व लज्जा आत्मा में उत्पन्न होती है उसका कारण परमात्मा की आत्मा में प्रेरणा ही होती है। इनका अन्य कोई कारण नहीं होता। यह ईश्वर का प्रत्यक्ष प्रमाण है। कार्य को देखकर कर कर्ता का ज्ञान होता है। इस सृष्टि और इसमें रचना विशेष पदार्थों को देखकर इनके रचयिता परमात्मा का ही ज्ञान होता है। यह भी ईश्वर का प्रत्यक्ष ही है।
अतः यह संसार सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनादि, अनन्त, अनुपम, सर्वाधार, सर्वव्यापक, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, नित्य सत्तावान परमेश्वर से ही अस्तित्व में आया है। सृष्टि रचना विषयक दाशर्निक विश्लेषण को दर्शन ग्रन्थों में पढ़ना चाहिये जो किसी भी मनुष्य की पूर्ण सन्तुष्टि करने में समर्थ हैं। हमारे देश में भी वैज्ञानिक हुए हैं। आर्यसमाज में भी विज्ञान से जुड़े अनेक प्रतिष्ठित विद्वान व वैज्ञानिक हुए हैं। वह सब वेद एवं दर्शनों के आधार पर सृष्टि को अपौरुषेय अर्थात् ईश्वर से उत्पन्न एवं पालित मानते रहे हैं। हमारे ऋषि भी वैज्ञानिक ही होते थे। वह भी सृष्टि की रचना ईश्वर से होना मानते थे। यही एकमात्र युक्ति एवं तर्कसंगत सिद्धान्त है। इसमें किसी को शंका नहीं करनी चाहिये। इसका अन्य कोई समाधान भी नहीं है। संक्षेप में यही कह सकते हैं कि इस विशाल एवं अनन्तहीन सृष्टि की रचना स्वमेव नहीं हो सकती। मनुष्य व जीवात्माओं को सृष्टि रचना का ज्ञान नहीं है। आज देश के सभी वैज्ञानिक मिल कर भी मनुष्य व उसके शरीर के एक अवयव को भी नहीं बना सकते। वह एक पशु व पक्षी को भी नहीं बना सकते। इन सबका आधार परमात्मा ही है।
हमारी समस्त सृष्टि परमाणुओं से मिलकर बनी है। वैज्ञानिक भिन्न तत्वों के परमाणुओं को पृथक-2 नहीं कर सकते और न ही परमाणुओं को भी बना ही सकते हैं। सभी वैज्ञानिक मिलकर संसार में विभिन्न तत्वों के परमाणुओं को किंचित नियंत्रित नहीं कर सकते हैं। अतः सृष्टि को ईश्वरकृत मानना ही सत्य एवं उचित है। ईश्वर का ज्ञान वेद है। यह वेदज्ञान सृष्टि के अनुरूप व अनुकूल है। वेदों पर सत्य व्याख्यान ऋषि दयानन्द व आर्य विद्वानों के उपलब्ध हंै। हमें वेदों का अध्ययन करना चाहिये। वेदों से ईश्वर का सत्यस्वरूप उपलब्ध होता। मनुष्यकृत किसी धार्मिक आद्याचार्य व आचार्य के किसी ग्रन्थ व संकलन में सृष्टि की रचना, रचना का प्रयोजन एवं इससे जुड़े प्रश्नों का भ्रान्तिरहित समाधान नहीं मिलता। वेद वा दर्शन ग्रन्थों में सृष्टि रचना संबंधी सभी प्रश्नों के सटीक व समुचित उत्तर मिलते हैं। इनका प्रकाश ऋषि दयानन्द ने अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के आठवें समुल्लास में किया है। जिज्ञासु मनुष्य व विद्वानों को सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ एवं तत्पश्चात दर्शन ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। ऋग्वेद का दसवें मण्डल का नासदीय सूक्त जो सृष्टि रचना विषयक ज्ञान विज्ञान से युक्त है, उसका भी अध्ययन विद्वानों को करना चाहिये। इससे उनकी भ्रान्तियां दूर हो सकती हैं। यहां यह बता दें कि परमात्मा ने इस सृष्टि को उपादान कारण त्रिगुणात्मक सूक्ष्म जड़ प्रकृति से बनाया है। प्रकृति ईश्वर की तरह से ही अनादि व नित्य है। अनादि व नित्य पदार्थों का कदापि अभाव नहीं होता है। उनके स्वरूप में परवर्तन होता है जिसे अवस्थान्तर कहते हैं। अवस्थान्तर की स्थिति न रहने पर वह अपने मूलस्वरूप में आ जाते हैं। प्रकृति भी प्रलय अवस्था व सृष्टि की रचना से पूर्व तक त्रिगुणात्मक सत्व रज व तम गुणों की साम्यावस्था में रहती है।
ईश्वर ने सृष्टि की रचना क्यों की? इसका उत्तर जानने के लिये यह जानना आवश्यक है कि संसार में तीन अनादि, नित्य, अविनाशी व अमर पदार्थ वा सत्तायें हैं। यह हैं ईश्वर, जीव तथा प्रकृति। जीव एक सूक्ष्म, नित्य, अविनाशी, एकदेशी, ससीम, अल्पज्ञ गुणों वाला हैं। इनकी संख्या अनन्त व अगणनीय हैं। सभी जीव इस कल्प से पूर्व की सृष्टियों में भी मनुष्यादि नाना योनयों में अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार जन्म लेते रहे थे। सृष्टि को उत्पन्न कर परमात्मा इन सब जीवों के सुख व कल्याण के लिये उन्हें मनुष्यादि विभिन्न योनियों में जन्म देता है। इन जीवों के लिये ही परमात्मा ने इस सृष्टि को बनाया है व इसका संचालन कर रहा है। उसका इस सृष्टि को बनाने व चलाने में अपना कोई निजी हित व प्रयोजन नहीं है। उसको जीवों की प्रार्थना, स्तुति व उपासना की भी आवश्यकता नहीं है। उसने सृष्टि को इसलिये बनाया है जिससे सभी जीवों को अपने कर्मानुसार सुख व दुःखों की प्राप्ति व भोग प्राप्त हो सकें। यदि वह ऐसा न करता तो यह सृष्टि अस्तित्व में न आती और जीवों को भी सुख व कल्याण की प्राप्ति न होती। उस स्थिति में ईश्वर के सर्वशक्तिमान, न्यायाधीश, दयालु, सृष्टिकर्ता आदि अनेक गुण असत्य व कथनमात्र सिद्ध होते।
ईश्वर में सृष्टि को रचने की क्षमता व सामथ्र्य है इसलिये उसने अपनी अनादि प्रजा जीवों के लिये इस अपौरूषेय सृष्टि को बनाया है। ईश्वर ही सृष्टि का स्वामी, पिता व अधिष्ठाता है। सभी जीव ईश्वर के उपकारों से ऋणी हैं। ईश्वर के ऋण को धन्यवाद रूपी सन्ध्या, ध्यान व उपासना एवं अग्निहोत्र यज्ञ सहित परोपकार व दान आदि कर्मों को करके उतारने का प्रयत्न करना चाहिये। जो ऐसा नहीं करता वह कृतघ्न होता है। कृतघ्नता निन्दनीय होती है। ऐसे जीव अधम व निन्दनीय कोटि के होते हैं जो सत्य विधि से ईश्वर की उपासना न करें। ईश्वर की उपासना से आत्मबल मिलता है। ईश्वर के सान्निध्य में अलौकिक व अभौतिक आनन्द है जो अन्य किसी प्रकार से प्राप्त नहीं होता। ईश्वर को मानने व उपासना करने से वह हमारे सभी कार्यों में सहायक होता है और हमारे कार्यों एवं हमारी इच्छाओं, कामनाओं को पूरा करने सहित हमारा सर्वविध कल्याण करता है। इसी लिये वेद को मानने वाले वेद विधि से उपासना करते हैं। वेद विधि ही उपासना की एक मात्र सत्य विधि है। सभी मनुष्यों को वेद एवं ऋषियों की शरण में आना चाहिये। तभी वह ईश्वर के प्रति कृतघ्नता के दोष व पाप से बच सकते हैं। यह ध्यान देने योग्य है कि इस जन्म का अन्त मृत्यु पर होगा। मृत्यु के बाद प्रत्येक जीवात्मा का पुर्नजन्म होगा। वह जन्म हमारे इस जन्म के कर्मों एवं उपासना सहित परोपकार एवं दान आदि के कारण ही सुखमय व कल्याणप्रद हो सकता है अन्यथा अनेक नीच योनियों में से किसी एक योनि में हमारा जन्म होगा जहां अनेकानेक दुःख उठाने होंगे। बुद्धिमानों को अधिक समझाने की आवश्यकता नहीं होती और निर्बुद्धि का काम अधिकांश स्थितियों में कुतर्क करना होता है। कुतर्क करने वालों को कोई समझा नहीं सकता। वह तो विद्या के वैरी होते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत