बाबा भीमराव अम्बेडकर साहेब जैसा विद्वान व्यक्तित्व शायद ही कोई दूसरा हो, परन्तु उनके तमाम विचार अंग्रेजी भाषा में होने के कारण और कांग्रेस और भीम-मीम का नारा लगाने वालों की कुटिल राजनीति के चलते हम सब उन विचारों से पूर्णतया अनभिज्ञ ही रहे हैं। कांग्रेस-वामपंथ सहित ओवैसी जैसों के इशारों पर तथाकथित बुद्धिजीवियों डॉ. आंबेडकर के विचारों को हिन्दुविरोधी और इस्लाम हितैषी बताने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। इन “बौद्धिक आतंकवादियों” ने एक गहरी साजिश के तहत दलित-पिछड़े और सवर्ण जातियों में विभाजित कर दिया। यहाँ तक कि इन्होने यह दुष्प्रचार किया कि दलित और हिन्दू दो अलग-अलग समुदाय हैं. और इसके लिए उन्होंने बाबा भीमराव आंबेडकर के उन विचारों का सहारा लिया जिनका कोई संबंध बाबा साहेब से कभी रहा ही नहीं।अगर आप लोग भी दलित-मुस्लिम एकता के पक्षधर हैं तो बाबा अम्बेडकर के उन विचारों को जानिए जो शायद आप तक इसलिए नहीं पहुंच पाए क्योंकि बाबा साहेब ने उन्हें अंग्रेजी में लिखा था और जो लोग अंग्रेजी जानते थे उन्होंने सच्चाई को हमेशा अपने तक सीमित रखा. लेकिन एस.के. अग्रवाल जैसे देशभक्त बुद्धिजीवियों ने बाबा साहेब के विचारों को हूबहू प्रस्तुत किया है.मुस्लिम समुदाय की मूलभूत राजनीतिक प्रेरणाओं के बारे में डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं-“मुस्लिम कानून के अनुसार दुनिया दो पक्षों में बंटी है- दारुल-इस्लाम और दारुल-हर्ब। वह देश दारुल इस्लाम कहलाता है जहां मुसलमानों का राज हो। दारुल-हर्ब वह देश हैं जहां मुसलमान रहते तो हैं, पर वे वहां के शासक नहीं हैं। इस्लामी कानून के अनुसार भारत देश हिंदुओं और मुसलमानों की साझी विरासत नहीं हो सकता। यह मुसलमानों की भूमि तो हो सकती है, पर ‘बराबरी से रहते हिंदुओं और मुसलमानों की भूमि’ नहीं हो सकती। यह मुसलमानों की ज़मीन भी तभी हो सकती है, जब इसपर मुसलमानों का राज हो। जिस क्षण इस भूमि पर किसी ग़ैर-मुस्लिम का अधिकार हो जाता है, यह मुसलमानों की ज़मीन नहीं रहती। दारुल इस्लाम के स्थान पर यह दारुल हर्ब हो जाती है।”यह न समझा जाये कि ऐसा विचार कोरी किताबी अभिरुचि की बात है, क्योंकि इसमें मुसलमानों के व्यवहार को प्रभावित करने वाली कारगर शक्ति बनने की क्षमता है। इस विचार ने मुसलमानों के व्यवहार पर उस समय भी काफ़ी प्रभाव डाला था जब अंग्रेजों ने भारत पर कब्ज़ा किया। ब्रिटिश कब्ज़े से हिंदुओं के मनों में तो कोई पापशंका पैदा नहीं हुई, किंतु मुसलमानों के सामने तुरन्त यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि क्या अब हिंदुस्तान मुसलमानों के निवास करने योग्य देश रह गया है। मुस्लिम समुदाय के भीतर यह चर्चा प्रारम्भ की गई, जो डॉ. टाइट्स कहते हैं, लगभग 50 वर्षों तक चली कि भारत दारुल-हर्ब है या दारुल-इस्लाम? कुछ अधिक उत्साही तत्वों ने सैयद अहमद शाहिद के नेतृत्व में सचमुच ही जिहाद की घोषणा कर दी; उन्होंने मुसलमानों को सिखाया कि हिज़रत करके मुस्लिम राज वाले देशों को चले जाओ, और हिंदुस्तान भर में अपना आंदोलन चलाया।अलीगढ़ आंदोलन के संस्थापक सर सैयद अहमद ने अपनी सारी प्रतिभा लगाकर मुसलमानों को यह समझाया कि “वे हिंदुस्तान को दारुल-हर्ब केवल इस कारण न माना जाए कि अब यहां मुस्लिम राज नहीं रहा। उन्होंने मुसलमानों से आग्रह किया कि हिंदुस्तान को दारुल-इस्लाम ही मानें, क्योंकि उन्हें अपने धर्म के अनुसार सभी रस्मों-रिवाज़ पूरे करने की आज़ादी है।”हिज़रत करने का आंदोलन कुछ समय के लिए गया। परन्तु हिंदुस्तान दारुल-हर्ब है यह सिद्धान्त छोड़ नहीं दिया गया। इसका दोबारा प्रचार मुस्लिम-राष्ट्र के झण्डा बरदारों ने ख़िलाफ़त आन्दोलन के समय 1920-21 में किया। इस प्रचार का मुस्लिम समुदाय में अनुकूल प्रभाव भी हुआ। बहुत से मुसलमान न केवल मुस्लिम कानून के अनुसार हिज़रत करने को तैयार हो गए, बल्कि वास्तव में भी भारत में अपने घर छोड़कर अफगानिस्तान की ओर चले गए। यह भी उल्लेखनीय है कि दारुल-हर्ब से अपने आपको मुक्त करने के लिए मुसलमानों के पास केवल हिज़रत ही एकमात्र मार्ग नहीं है। मुस्लिम कानून का एक और आदेश है-जिहाद छेड़ने का, जिसके द्वारा “मुस्लिम शासक कर्तव्य-बद्ध है कि वह (युद्ध के द्वारा) इस्लाम के राज को तब तक फैलाये जब तक कि पूरी दुनिया उसकी हुक़ूमत में नहीं आ जाती. सारे संसार को जब दो पक्षों में बांट दिया है।-एक दारुल इस्लाम और दूसरा दारुल हर्ब। तो सभी देश दो में से किसी एक श्रेणी में आएंगे ही।सिद्धान्ततः, दारुल हर्ब को दारुल इस्लाम में बदलना हर उस मुस्लिम शासक का कर्तव्य है जिसमें ऐसा करने का सामर्थ्य है।” और, जिस प्रकार मुसलमानों के हिज़रत करने के दृष्टांत मिलते हैं, उसी प्रकार ऐसे भी उदाहरण हैं जब उन्होंने जिहाद की घोषणा करने में झिझक नहीं की। सच्चाई जानने के इच्छुक व्यक्ति यदि 1857 के विद्रोह के इतिहास पर पारखी दृष्टि डालेंगे तो पाएंगे कि वह विद्रोह एक अंश में मुसलमानों द्वारा ब्रिटिश राज्य के विरुद्ध जिहाद की घोषणा भी था। मुसलमानों के लिए यह विद्रोह उसी बगावत की पुनरावृत्ति थी, जो सैयद अहमद शाहिद ने फैलाई थी। उसने कई दशकों तक मुसलमानों को यह समझाया था कि ब्रिटिश हुकूमत हो जाने के कारण हिंदुस्तान दारुल हर्ब हो गया है। 1857 में मुसलमानों ने तो विद्रोह करके भारत को फिर से दारुल इस्लाम में परिणत करने का प्रयास किया था (हिंदुओं के लिए भले ही वह देश की स्वाधीनता का संग्राम रहा हो).जो भी हो यह बात निश्चित है कि हिंदुस्तान पर यदि शत-प्रतिशत मुस्लिम शासन नहीं है तो यह दारुल हर्ब ही कहलायेगा। और मुस्लिम सिद्धान्तों के अनुसार यहां मुसलमानों का जिहाद छेड़ना उचित होगा। वे जिहाद छेड़ ही नहीं सकते, बल्कि जिहाद की सफलता के लिये किसी विदेशी मुस्लिम शक्ति को सहायता के लिए भी बुलवा भी सकते हैं, और इसी प्रकार यदि भारत के विरुद्ध कोई विदेशी मुस्लिम शक्ति ही जिहाद छेड़ती है तो भारत का मुसलमान उसके प्रयास की सफलता के लिए सहायता भी कर सकते हैं।स्रोत : (पुस्तक- डॉ. आंबेडकर की दृष्टि में मुस्लिम कटटरवाद, लेखक एस.के अग्रवाल, प्रकाशन सुरुचि, पृष्ठ संख्या २६-२७) *संकलन*-मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”
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